RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘परंतु तुम पर विश्वास करूँ?’
‘एक बार करके देख लो।’
‘तो ठीक है।’
‘परंतु एक शर्त पर।’
‘वह क्या?’
‘मंदिर तक हम दोनों नदी के रास्ते चलेंगे... तैर कर।’
‘नहीं उस नाव से।’
‘मुझे स्वीकार है।’
और राजन ने मुख फेर लिया-उसने गुनगुनाना शुरू कर दिया-पार्वती कुछ क्षण तो चुपचाप खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे पग रखते हुए नदी के बाहर जा पहुँची और वस्त्र उठा शीघ्रता से पत्थरों के पीछे हो ली। भीगे वस्त्र उतार साड़ी पहन ली। राजन अब तक मुँह फेरे मजे से गुनगुनाता जा रहा था और पार्वती की पुकार की प्रतीक्षा कर रहा था। थोड़ी देर बाद उसने पार्वती को आवाज दी-उत्तर मिला ‘अभी नहीं।’
कुछ देर चुपचाप रहने के पश्चात् राजन ने फिर कहा-‘मैं तो शीतल जल में अकड़ा जा रहा हूँ और तुमने अभी तक कपड़े भी नहीं बदले।’
पार्वती ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया, पल भर की चुप्पी के पश्चात् राजन ने फिर पुकारा-‘पार्वती!’ और तुरंत ही मुँह फेरकर देखा-पार्वती शीघ्रता से लौटी जा रही थी।
राजन यह देखते ही आग-बबूला हो गया और जल से बाहर निकल पार्वती के पीछे हो लिया। शीघ्र ही उसके समीप पहुँचकर क्रोध में बोला-‘तो क्या किसी के विश्वास को यों ही तोड़ा जाता है?’
‘तुम्हें विश्वास की पड़ी है और वहाँ बाबा मुझे गाली दे रहे होंगे।’ इतना कहकर पार्वती फिर तेजी से बढ़ने लगी।
‘तो झूठ क्यों बोला था?’
‘अपनी जान छुड़ाने के लिए।’
‘तो मुझे यह पता न था कि तुम मुझे एक पागल समझती हो। ठीक है... मुझे तुम्हें रोकने का अधिकार ही क्या है?’ यह कहकर राजन उन्हीं पैरों से नदी की ओर लौट गया। पार्वती ने रुके शब्दों में उसे पुकारा भी। परंतु उसने सुनी-अनसुनी कर दी और न पीछे घूमकर ही देखा।
जब वह पहले स्थान पर पहुँचा तो नदी की लहरें उसी प्रकार उतनी भरती जा रही थीं, क्योंकि उनसे खिलवाड़ करने वाला संगी तो जा चुका था।
राजन के भीगे वस्त्रों से अब तक पानी बह रहा था। उसने हाथों से पानी निचोड़ा और वैसे ही धरती पर औंधे मुँह लेटा रहा-शायद वस्त्र सुखाने के विचार से। उसका शरीर ठंड के मारे काँप रहा था, आँखें लाल हो रही थीं। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे ज्वर आया हो। उसका सिर भारी सा हो गया था।
नदी के जल की कलकल, धूप की गर्मी और भीगे वस्त्र उसे विश्वास-सा दिला रहे थे कि अभी उसमें चेतना शेष है। अचानक वह चौंक उठा और शरीर समेट कर बैठ गया। उसके वस्त्र कुछ सूख चले थे। ठंड भी पहले से कम हो चुकी थी। उसने नदी की ओर देखा, फिर किनारे खड़ी नाव की ओर दृष्टि डाली-देखते ही भौंचक्का-सा रह गया। शीघ्रता से उठ खड़ा हुआ और नाव की ओर लपका। नाव पर पार्वती सिर ऊँचा किए बैठी थी। वह बोल उठा-‘पार्वती! तुम।’
पार्वती राजन की ओर एकटक देखती रही और राजन के प्रश्न का उत्तर दिया उसके आँसुओं ने।
राजन यह सब देखकर व्याकुल-सा हो उठा और काँपते स्वर में बोला-‘तुम यहाँ बैठी क्या कर रही हो?’
‘तुम्हारी प्रतीक्षा।’
‘वह क्यों?’
‘नदी के रास्ते मंदिर तक साथ जो जाना है।’
राजन को अहसास हुआ मानो संसार भर का आनंद आज भगवान ने उसी के अंतर में उड़ेल दिया हो। उसकी भटकती हुई निगाहों में आशा की किरण झलक उठी। वह नाव को नदी में धकेल स्वयं भी उसमें सवार हो गया।
नाव अपने आप जल के प्रवाह की ओर बढ़ने लगी। राजन ने पार्वती को प्रेमपूर्वक गले लगा लिया। दोनों खामोश थे, शायद उनकी खामोशी देख नदी की लहर भी खामोश हो चुकी थी। परंतु दोनों के हृदय में हलचल-सी मची हुई थी।
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