RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
पार्वती ने राजन का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसकी उंगलियों से खेलने लगी। राजन अपनी उंगलियाँ उसके होठों तक ले गया। पार्वती मुस्कुराती रही, फिर तुरंत ही उसने मुँह खोल उंगली को जोर से दाँतों तले दबा लिया। राजन चिल्ला उठा और झट से हाथ खींच उंगली को मुँह में रख चूसने लगा।
पार्वती ने हाथ अपनी ओर खींचा और बोली-
‘लाओ ठीक कर दूँ।’ कहकर हथेली से सहलाने लगी।
राजन हँस पड़ा और बोला-
‘यह भी खूब रही-पहले काट खाया, अब मरहम लगाने चली हो।’
‘राजन तुम्हें क्या पता कि इस प्रकार काटने और फिर उसी को सहलाने में कितना रस आता है हम औरतों को।’
राजन ने इसका कोई उत्तर न दिया-केवल मुस्करा दिया।
पार्वती सशंक सी होती हुई बोली-
‘अरे! तुम्हारे हाथ तो यूं जल रहे हैं जैसे ज्वर हो गया हो।’
‘तुमने अब जाना?’
‘तो क्या।’
‘यह तो जाने कितने समय से यूँ ही जल रहे हैं।’
‘और कुछ दवा ली?’
‘दवा? इसकी दवा तो तुम हो पार्वती।’
‘मैं और दवा? तब तो इलाज अपने आप हो गया, परंतु यह ज्वर कैसा?’
‘प्रेम का’ कहकर उसकी उंगलियाँ अपनी गर्म हथेलियों में दबा लीं।
‘तुम्हें तो प्रेम के सिवा कुछ आता ही नहीं।’
इतना कहकर वह चुप हो गई।
नाव धीरे-धीरे नदी के बहाव में स्वतः ही बढ़ी जा रही थी। दुपहरी की धूप में पार्वती के सुनहरे बाल चमक रहे थे।
राजन तो उसी के चेहरे व बालों की सुंदरता को अपलक नयनों से निहारें जा रहा था। पार्वती ने मुख ऊपर उठाया। आँखों से आँखें मिलते ही लजा-सी गई, फिर मुँह नीचे करके कहने लगी, ‘ज्वर कितने प्रकार का होता है, यह तो मैं जानती नहीं, परंतु इतना अवश्य सुना है कि होता भयानक है।’
‘यह तो तुमने ठीक सुना है। भयानक ऐसा कि पीछे जिसके पड़ जाए, छोड़ने का नाम तक नहीं लेता।’
‘लो बातों-ही-बातों में हम मंदिर तक पहुँच गए।’
‘इतनी जल्दी... अच्छा तो नाव किनारे बाँध दो।’ यह कहते हुए राजन ने पतवार हाथ में लेकर नाव तट पर लगा दी। उतरते ही दोनों मंदिर की ओर बढ़ने लगे। सीढ़ियों के समीप पहुँचते ही पार्वती रुक गई और कहने लगी-
‘समझ में नहीं आता क्या करूँ?’
‘ऐसी क्या उलझन है?’
‘रात्रि को मंदिर में पूजा है, पुजारी सजावट के लिए राह देख रहा होगा-और घर में बाबा।’
‘यही न कि हमें देर हो गई।’
‘हाँ यही तो।’
राजन कुछ समय तो चुप रहा, फिर बोला, ‘सुनो!’
‘क्या?’
‘बाबा से जाकर कह देना, मंदिर की सजावट हो गई।’
‘झूठ बोलूँ?’
‘नहीं यह सच है।’
‘तो क्या मंदिर...’
‘यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो।’
‘तुम पर!’
‘विश्वास... क्यों नहीं-अच्छा तो मैं चली। हाँ, मंदिर अवश्य सजाना।’
‘मंदिर सजाते समय देवताओं से आशीर्वाद ले ही लूँगा।’
‘शायद तुम यह नहीं जानते कि जब तक मैं न जाऊँ, देवता किसी की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते।’
‘और यदि हम आ गए और देवताओं ने अपने नेत्र मूँद लिए तो?’
‘देखा जाएगा।’ पार्वती से बड़ी लापरवाही से कहा और घर की ओर भागी।
ज्यों-ज्यों घर करीब आ रहा था, पार्वती के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। वह भय से काँप रही थी, बाबा के सम्मुख इतना बड़ा झूठ कैसे बोलेगी? यह सोचते-सोचते घर तक वह पहुँच गई। ड्यौढ़ी में कदम रखते ही चुपके से उसने झाँका। सामने कोई न था। वह शीघ्रता से आँगन पार कर अपने कमरे में जाने लगी। अभी वह किवाड़ के करीब पहुँची ही थी कि बाबा की पुकार ने उसे चौंका दिया-वह बरामदे में बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे।
‘इतनी देर कहाँ लगा दी?’
‘स्नान को जो गई थी।’
‘स्नान में क्या इतनी देर।’
‘वहाँ से मंदिर भी तो जाना था।’
‘सीधी मंदिर से आ रही हो क्या?’
‘जी बाबा सजावट ऐसी हुई कि जिसे देखते ही आप आश्चर्य में पड़ जाएँ।’
‘तुम्हारे नृत्य की या मंदिर की?’
‘मंदिर की।’
‘परंतु रामू भी तो अभी पुजारी से मिलकर आया है।’
‘तो क्या कहा इसने?’
‘कि पार्वती तो सवेरे से आई ही नहीं।’
‘आई नहीं?’ पार्वती कुछ चुप हो गई और बाबा के मुख की ओर देखने लगी, जो अपने उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे। पार्वती बाबा को देख यूँ बोली-
‘ओह! अब समझी।’
‘क्या?’
‘बाबा सच कहूँ!’
‘कैसा सच?’
‘पुजारी ने इसलिए कहा था कि कहीं आप मुझे बुला न लें और उसकी सजावट अधूरी रह जाए।’
‘पगली कहीं की! भला मैं ऐसा क्यों करने लगा?’
‘उसने तो यही सोचा होगा, बाबा!’
‘अच्छा सोचा! जरा-सा झूठ बोलकर दो घंटे से मुझे बेचैन कर रखा है।’
‘बाबा आपको मालूम है कि वह मेरे बिना मंदिर का काम किसी दूसरे से नहीं करवाता और न ही किसी पर विश्वास करता है।’
‘तब तो दोनों ने मिलकर मंदिर में बिलकुल परिवर्तन कर दिया होगा।’
‘हाँ बाबा।’
‘तब तो मंदिर की सजावट अभी देख आऊँ।’
‘न बाबा, ऐसी क्या जल्दी है-हमेशा देखने वाली वस्तु कुछ प्रतीक्षा के पश्चात् ही देखनी चाहिए।’
‘ऐसा लगता है जैसे तुम्हें आज ‘सीतलवादी’ को जगमगा देना हो।’
‘रात्रि आने के पहले क्या कहा जा सकता है?’
‘अच्छा-भोजन करो। मैं रामू से पूजा की तैयारी करवा देता हूँ।’
‘थालियाँ साफ करनी होंगी। दीयों के लिए घी की बत्तियाँ और।’
‘तुम चिंता न करो, मैं सब कराए देता हूँ।’
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