RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
बाबा ने रामू को पुकारा और पार्वती ने कमरे में प्रवेश किया। ज्यों-ज्यों सायंकाल का समय समीप आ रहा था, पार्वती का दिल बैठा जा रहा था। न जाने मंदिर में क्या हो रहा होगा। पुजारी अपने मन में मुझे गालियाँ दे रहा होगा। यदि राजन ने भी कुछ न किया तो शाम को बाबा क्या कहेंगे? इन्हीं विचारों में डूबी पार्वती सायंकाल की प्रतीक्षा करने लगी। इधर पूजा की सब सामग्री तैयार हो गई। उसने कई बार चाहा कि वह सब कुछ रामू द्वारा मंदिर में राजन को कहलवा भेजे, परंतु साहस न पड़ा।
आखिर साँझ हो गई।
ज्यों-ज्यों अंधेरा बढ़ रहा था, त्यों-त्यों सीतलवादियों के मुख पर उल्लास की किरण चमकने लगी और लोग मंदिर की ओर चल पड़े। इधर पार्वती शृंगार में मग्न थी। आज उसने अपने को खूब सजाया परंतु उसका हृदय अज्ञात आशंका से धड़क रहा था, यदि मंदिर की सजावट न हुई तो वह बाबा को क्या उत्तर देगी।
आज तो वह बड़ी आशाएँ हृदय में लिए हुए मंदिर जाने की तैयारी कर रही थी। जब वह नृत्य के लिए देवताओं के सम्मुख आएगी और पास बैठा पुजारी उसे घूर-घूरकर ताकेगा तो क्या वह नृत्य कर सकेगी? यही विचार आ-आकर उसको खाए जाते थे।
वह यह सोच रही थी कि उसके कानों में बाबा की आवाज सुनाई दी-उसने झट से शृंगार दान बंद किया और साड़ी का पल्लू ठीक करते-करते कमरे से बाहर आ गई। बाबा उसे सजा-धज देख मुस्करा पड़े। पार्वती ने लज्जा के मारे मुँह फेर लिया। बाबा रह न सके, तुरंत ही उसे प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया। उनके नेत्रों में ममता के आँसू उमड़ आए। वे उसे देख ऐसे प्रसन्न हो रहे थे, जैसे माली अपने बढ़ते हुए पौधों को देख प्रसन्न हो उठता है। पार्वती ने पास खड़े रामू से दुशाला ले बाबा को ओढ़ा दिया। एक हाथ में फूलों की टोकरी तथा दूसरे में पूजा की थाली ले बाबा के साथ मंदिर की ओर बढ़ चली। रामू भी उसके पीछे-पीछे हो लिया।
बाबा व रामू दोनों प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे थे।
और-
पार्वती के मुख पर उदासी और घबराहट थी।
ज्यों ही वे आबादी से निकलकर मंदिर की ओर बढ़ने लगे, पार्वती के मुख पर उदासी की रेखाएँ प्रसन्नता में बदल गईं। मंदिर की दीवार तथा चबूतरे प्रकाश से जगमगा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो संसार भर का प्रकाश किसी ने इन पहाड़ियों में एकत्रित कर दिया हो। मंदिर में मनुष्यों का कोलाहल सुनाई पड़ रहा था। ज्यों-ज्यों मंदिर करीब आ रहा था, पार्वती के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो रहा था उसे।
अब तो वह मंदिर में शीघ्र पहुँचने के लिए बेचैन हो उठी। न जाने आज उसकी आँखें क्या देखने वाली हैं?
थोड़ी देर में तीनों मंदिर आ पहुँचे। बड़े द्वार पर लोगों की काफी भीड़ थी। पार्वती ने बाबा का हाथ थामा और उन सीढ़ियों की ओर ले गई, जहाँ से वह प्रतिदिन मंदिर जाती थी। यह मार्ग आम लोगों के लिए न था, केवल पुजारी तथा नदी को जाने वाले लोग ही इधर से आते-जाते थे। उन सीढ़ियों पर भी दीये जल रहे थे।
राजन ने शायद इस विचार से जला रखे थे कि यह वह रास्ता है, जहाँ दोनों का प्रथम मिलन हुआ था।
जब तीनों सीढ़ियों के करीब पहुँचे तो पार्वती रुक गई। सीढ़ियों पर फूलों की कलियाँ बिछी हुई थीं। पार्वती ने एक जलता दीया उठाया और अपनी पूजा की थाली के अन्य दीये जला लिए और थाली उठाकर मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी। उसके कोमल गुलाबी तलवे उन फूलों की कलियों पर पड़ रहे थे, जो राजन ने उसकी राह में बिछा रखी थीं। वह अपनी दुनिया में खो गई। उसे कोई ध्यान न रहा कि उसके बाबा भी उसके साथ-साथ आ रहे हैं। बाबा भी मौन थे। वे सोचने लगे, पार्वती शायद देवताओं की दुनिया में खो गई है।
परंतु पार्वती के दिल में तो आज दूसरी ही धुन थी। पहले जब वह सीढ़ियों पर चढ़ती तो उसे यूँ लगता था, जैसे देवता उसे अपनी ओर खींच रहे हों, परंतु आज उसे सिवा राजन के किसी दूसरे का ध्यान न था। इन सीढ़ियों पर बिछी एक-एक कली आज उसे राजन की याद दिला रही थी। जब वह बरामदे में पहुँची तो प्रसन्नता से फूली न समाई। कारण, मंदिर की सजावट में कोई कसर न छोड़ी गई थी। ‘सीतलवादी’ की हवा भी फूलों की महक से भर उठी। मंदिर प्रकाश से जगमगा रहा था।
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