RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
मैनेजर और माधो खड़े ही देखते रह गए। जब वे दोनों दूर निकल गए तो मैनेजर माधो से बोला-‘न जाने ठाकुर बाबा को क्या सूझी कि उन्हें अकेले में यूँ भेज दिया-फिर दोनों का मेल ही क्या?’
‘मुझे भी दाल में कुछ काला मालूम होता है-देखने वाले अंधे नहीं। दोनों मिलकर दूसरों की आँखों में धूल झोंकना चाहते हैं।’
मैनेजर चुप रहा-अब तक उसकी आँखें उन्हीं की ओर लगी हुई थीं और पार्वती का सुंदर चेहरा उसके सामने घूम रहा था।
राजन और पार्वती चट्टान के पास जाकर रुके, जहाँ कुंदन की ड्यूटी थी। कुंदन दोनों को देख बहुत प्रसन्न हुआ।
राजन ने कुंदन से पूछा-
‘भैया आज्ञा हो तो चट्टानों को अंदर से देख लूँ।’
‘वहाँ क्या रखा है... अंधेरा-ही-अंधेरा... परंतु... तुम आज इधर कैसे आ निकले?’
‘आज जरा सामने पहाड़ों में उस आश्रम को देखने जा रहे हैं, जिसके बारे में तुम कहा करते थे।’
‘परंतु इतनी दूर जाओगे कैसे?’
‘इसीलिए तो कहा था कि चट्टानों से जाने दो। यहाँ से करीब भी है।’
‘तुम समझते नहीं, वह रास्ता बहुत भयानक है। उसके पीछे बारूद भरा पड़ा है, यहाँ से जाने की किसी को भी आज्ञा नहीं।’
‘अच्छा भाई चार कदम और चल लेंगे।’
‘देखो एक तरकीब मुझे सूझी है।’
‘क्या?’
‘ठहरो...’ और थोड़ी दूर खड़े एक मनुष्य को कुछ समझाने लगा, फिर दोनों को पास बुला उस मनुष्य को संग कर दिया। दोनों उसके पीछे-पीछे जाने लगे। तीनों एक ढलान उतर, रेल की पटरी के पास पहुँचकर रुक गए। छोटे-छोटे गाड़ी के डिब्बे पटरी पर चल रहे थे। राजन जो कोयला नीचे स्टेशन तक भेजता था, वह इन्हीं डिब्बों द्वारा अंदर की खानों से स्टेशन तक पहुँचाया जाता था। उस मनुष्य ने उन्हें उन डिब्बों में बैठ जाने को कहा, जो कोयला छोड़ खाली वापस लौट रहे थे। उसकी बात सुन दोनों असमंजस में पड़ गए और उसकी ओर देखने लगे।
‘हाँ-हाँ, घबराओ नहीं-इस रास्ते से तुम थोड़ी ही देर में पहाड़ी पार कर लोगे।’
पार्वती ने राजन की ओर देखा और फिर बोली-
‘परंतु...।’
‘शायद तुम डरने लगीं-अंधेरा अवश्य है, पर डर की कोई बात नहीं-हमारा तो प्रतिदिन का काम यही है।’
‘और फिर मैं भी तो साथ हूँ।’ राजन ने उस मनुष्य की बात को पूरा करते हुए कहा।
‘तो क्या तुम मुझे डरपोक समझते हो?’ पार्वती बोली और उछलकर खाली डिब्बे में जा बैठी।
उसकी पहल देख राजन हैरान हुआ और -मिंटो वायलन उसे पकड़ा कर आप भी डिब्बे में जा बैठा। पार्वती डिब्बे में बेधड़क बैठ गई पर उसका मन बैठा जाता था। धीरे-से उस आदमी से पूछने लगी-‘तो अंदर काफी अंधेरा होगा!’
‘यूँ जानो एक अंधेरी रात।’
राजन पार्वती का यह प्रश्न सुन हँसने लगा और हँसी को रोकते हुए बोला-‘काश! अंधेरी रात के बदले चाँदनी रात होती।’
उस मनुष्य ने कहा-‘तो चाँद ला दूँ।’
पार्वती यह सुन झट से बोली-‘वह कैसे?’
‘लैंप से, हमारे पास अंदर ले जाने वाले लैंप भी हैं।’
राजन बोला-‘उसकी क्या आवश्यकता है?’
‘क्यों नहीं।’ पार्वती ने उत्तर में कहा और फिर उस आदमी से बोली-‘भाई यदि कष्ट न हो तो...।’
‘मैं समझ गया, अभी लाया’ और वह लैंप के लिए एक ओर को भागा। लैंप का नाम सुन पार्वती को ढाढस बंधा और वह उसकी प्रतीक्षा करने लगी। परंतु उसके लौटने से पहले डिब्बे चल पड़े। ये देख उसका चेहरा फिर उतरने लगा, परंतु राजन उसकी इस हार पर प्रसन्न था, बोला-
‘क्यों चाँद नहीं मिला?’
‘इसमें मजाक कैसा? क्या तुम्हें लैंप की कोई आवश्यकता ही नहीं?’
‘बिलकुल नहीं, मैं तो उजाले की अपेक्षा अंधेरे को अधिक चाहता हूँ।’
‘वह क्यों?’
‘इसलिए कि चाँद हम दोनों को साथ देखकर जलता है।’
‘और अंधेरा...?’
‘हमें यूँ देखकर अपनी काली चादर में हमें छिपा लेता है, ताकि किसी की बुरी दृष्टि हम दोनों पर न पड़ जाए।’
‘फिर भी चाँदनी अंधेरे से अच्छी है।’
‘सो कैसे?’
‘अंधेरे में मनुष्य जलता है, परंतु चाँदनी सदा ही शीतलता और चैन पहुँचाती है।’
‘जलन मनुष्य को ऊपर उठाने में सहारा देती है, परंतु ठंडक तथा चैन मनुष्य को कायर बनाते हैं।’
‘तो फिर खूब जलों, तुम्हें भी ऊपर उठने का अवसर मिल जाएगा।’
‘और तुम...?’
‘हम कायर या डरपोक ही भले।’
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