RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
बाबा ने जब पार्वती को देखा तो पहले घबराए और दोनों को खूब डाँटा, परंतु जब वृत्तांत सुना तो उन्हें कुछ धीरज हुआ। जब उन्होंने यह सुना कि गुरुदेव ने स्वयं अपने हाथों से दवा-दारू किया तो प्रसन्न हुए कि चलो इसी बहाने पार्वती ने एक महापुरुष से सेवा का दान लिया।
बाबा ने गर्म दूध मंगवाकर पार्वती को पिलाया और उसके पास बैठ उसे प्यार से सुलाने लगे। बाहर बादलों की गड़गड़ाहट ने राजन को चौंका दिया। अब तक वह सामने खड़ा पार्वती की ओर देख रहा था। उसने अपना ‘मिंटो वायलन’ उठाया और बाबा को नमस्कार कर एक दृष्टि पार्वती पर फेरता हुआ कमरे से बाहर हो लिया। सफेद बादलों ने अब काली का रूप धारण कर लिया था और धीमी-धीमी बूँदें पड़ रही थीं। राजन जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता अपने घर की ओर जा रहा था, परंतु उसकी आँखों के सामने अब भी पार्वती की मुस्कुराती सूरत घूम रही थी।
चार
आज छुट्टी का अलार्म समय से पहले ही बज गया, कंपनी का गेट खुलते ही मजदूर अपने-अपने घरों की ओर जल्दी-जल्दी जाने लगे। आज ठंड अधिक थी। ‘सीतलवादी’ की ऊँची-ऊँची चट्टानें बर्फ से ढकी हुई थीं। सुबह की सुनहरी किरणें सफेद बर्फ को मानो चूम रही थीं और इस चुंबन के प्रभाव से बर्फ हुई जा रही थीं। धूप निकलने से हवा और ठण्डी लगती थी, जो सीतलवादियों को कंपाए जा रही थी। सर्दी से बचने के लिए लोगों ने मोटे-मोटे गर्म कोट पहन रखे थे।
मजदूरों की भीड़ को चीरता हुआ राजन भी शीघ्रता से अपने घर की ओर जा रहा था। परंतु लगता था, जैसे वह सबसे कुछ भिन्न है। प्रतिदिन की तरह आज भी वह एक कमीज में था, मानो सर्दी का कोई भी प्रभाव उस पर न हो रहा हो। समाधिस्थ-सा वह चला जा रहा था।
जब राजन ने अपने घर का द्वार खोला तो सामने खाट पर माधो को देख आश्चर्य में पड़ गया। आज माधो पहली बार उसके घर पर आया था। उसे चुप तथा आश्चर्य में देख माधो खाट से उठा और कहने लगा-‘क्यों राजन जाड़ा कैसा है?’
‘मजेदार, यह बर्फीली चट्टान, यह सुंदर दृश्य। परंतु आप इस समय।’
‘मैंने सोचा... आज खुली हवा की बजाए बंद कमरे में ही हिसाब हो जाए तो कैसा रहे।’
‘अच्छा-परंतु काम तो आज कुछ हुआ ही नहीं-फिर हिसाब कैसा?’
‘बस घबरा उठे-मैं तो मज़ाक में कह रहा था। परंतु यह समझ में नहीं आता कि तुम काम से इस प्रकार घबराते क्यों हो?’
‘मैं और काम से-नहीं दादा, मैं काम से घबराने वाला नहीं।’
‘बस, छुट्टी के बाद जब हिसाब के लिए जाना होता है-तभी तुम्हें जल्दी मचती है-क्यों कहीं जाना होता है?’
‘हाँ दादा! हर साँझ, मेरा मतलब साँझ की सैर मेरे जीवन का ऐसा अंग है, जिसे मैं सहज ही छोड़ नहीं पाता।’
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