RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
दूसरी साँझ ठाकुर बाबा पार्वती को साथ लिए ठीक समय पर हरीश के घर पहुँच गए, पार्वती आज भी अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहने थी। हरीश व माधो पहले से ही उसकी प्रतीक्षा में थे और उन्हें देख अत्यंत प्रसन्न हुए। इनके अतिरिक्त दो व्यक्ति वहाँ और बैठे थे, जो वादी में किसी खोज के बारे में आए थे। उनका विचार था कि इन पहाड़ियों में कहीं-न-कहीं तेल है, परंतु बहुत खोज के बाद उनको कोई चिह्न अभी तक न मिला था। हरीश ने दोनों का परिचय बाबा और पार्वती से कराया। इनमें से एक तो पार्वती के पिता के गहरे मित्र थे। अतः चाय के साथ-साथ बहुत देर तक उनकी ही बातें होती रहीं।
चाय के बाद बाबा उन दो अतिथियों को ले बाहर गैलरी में जा बैठे और दूर से पहाड़ी की चोटी पर जमी बर्फ को देखने लगे। पार्वती कुर्सी छोड़ दूसरे कमरे में चली गई और दीवार पर लगे चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने लगी। सामने मेज़ पर सजे फूलदान को देख वह रुकी व अपने कोमल हाथों से फूलों को छूने लगी। ज्यों ही उसने उसमें लगे लाल गुलाब को छुआ तो उसके कानों में किसी का स्वर सुनाई पड़ा।
‘शायद तुम्हें फूलों से बहुत प्रेम है?’ पार्वती चौंक उठी। घूमकर देखा तो हरीश खड़ा था। पार्वती ने अपनी साड़ी को सामने से ठीक करते हुए उत्तर दिया-‘जी।’ और अपनी उंगलियाँ फूलों से हटा मेज़ के किनारे रख लीं। हरीश ने लाल फूल फूलदान से तोड़ा और मुस्कराते हुए पार्वती को भेंट किया। पार्वती ने एक बार हरीश को देखा। हरीश ने कांपते हाथों से फूल खींचते हुए कहा, ‘ठहरो मैं स्वयं लगा देता हूँ।’ ज्यों ही उसने फूल पार्वती के बालों में लगाया कि मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। पार्वती काँप उठी। फूल बालों से निकलकर धरती पर आ गिरा। हरीश ने झुककर फूल उठा लिया और बोला-
‘क्यों क्या हुआ?’
‘यूँ ही देवता का स्मरण हो आया।’
‘जी, साँझ की पूजा। मैंने समझा शायद मेरे फूल लगाने...।’
‘नहीं तो!’ और पार्वती ने मुस्कराते हुए हरीश के हाथ से फूल ले लिया और दोनों गैलरी में जा ठहरे। पार्वती के कानों में मंदिर की घंटियों के शब्द गूंज रहे थे और मन में राजन का ध्यान।
अतिथियों को विदा करने के बाद हरीश प्रसन्नतापूर्वक वापस अपने कमरे में जा पहुँचा और सामने रखी कुर्सी पर बैठ मन-ही-मन मुस्कराने लगा। आज वह प्रसन्न था। बार-बार उसके सामने पार्वती की सूरत घूम रही थी। अगर वह जानता कि वे लोग इतने दिलचस्प हैं तो वह इतना समय इनसे दूर क्यों रहता। दिन-रात कंपनी के काम के सिवाय कुछ सूझता ही न था, परंतु आज उसे नीरस जीवन में एक आशा की झलक दीख पड़ी। वह सोच ही रहा था कि उसकी दृष्टि फूल पर पड़ी, जो सामने धरती पर गिर पड़ा था। वही फूल उसने पार्वती के हाथों में दिया था। यह देखते ही वह कुछ निराश-सा हो गया कि यह फूल वह साथ नहीं ले गई। यह प्रश्न रह-रहकर हरीश के मस्तिष्क में चक्कर काटने लगा। दो घड़ी की प्रसन्नता के बाद वह उदास सा हो गया। क्या प्रसन्नता दो घड़ी की ही थी? क्या वह सदा यूँ प्रसन्न नहीं रह सकता? उसे ऐसा अनुभव हुआ, जैसे उसने कुछ पाकर खो दिया हो। उसी समय सामने, दरवाजे से माधो ने प्रवेश किया।
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