RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
दूसरी साँझ काम के समाप्त होते ही माधो ठाकुर बाबा के घर पहुँचा। वह बरामदे में बैठ माला के मनके फेर रहे थे। माधो को देखते ही उठ खड़े हुए और उसे कमरे में ले गए। बाहर अभी तक ठंडी हवा चल रही थी। कैसा जाड़ा था उस रोज।
‘कहिए तबियत तो अच्छी है?’ माधो ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
‘जरा सर्दी के कारण खाँसी है।’
और इसी प्रकार कुछ देर तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। ठाकुर बाबा ने पहले साँझ की चाय और दो अतिथियों की बहुत प्रशंसा की। उत्तर में माधो ने दो-चार शब्द हरीश की ओर से बाबा के कानों में डाल दिए।
बाबा ने जब चाय मंगाने को कहा तो वह उठकर बोला-
‘कष्ट न करें, बस आज्ञा...।’
‘ऐसी क्या जल्दी है?’
‘काम से सीधा इसी ओर चला आया था। जाड़ा अधिक हो रहा है। घर पर जलाने के लिए कोयला भी रास्ते से लेना है।’
‘परंतु चाय।’
‘यह तो अपना ही घर है, फिर कभी सही...’ नमस्कार करता हुआ माधो बरामदे से निकल आया। ड्योढ़ी तक छोड़ने के लिए बाबा भी साथ आए। माधो ने एक-दो बार मकान में दृष्टि घुमाई और बोला-
‘पार्वती कहाँ है?’
‘जरा मंदिर तक गई है।’
‘इस जाड़े में...?’
‘साँझ की पूजा के लिए कैसी भी मजबूरी क्यों न हो, वह अपने देवता पर फूल चढ़ाने अवश्य जाती है।’
‘लगन हो तो ऐसी, परंतु ठाकुर बाबा कहीं उसकी ‘लगन’ निश्चित भी है।’
‘पार्वती की लगन!’ बाबा ने आश्चर्यचकित हो पूछा, जैसे माधो ने कोई अनोखा प्रश्न कर दिया हो और फिर बोले-‘माधो यह तुम क्या कह रहे हो? अभी उसकी उम्र ही कितनी है?’
‘वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो जाए, आपकी आँखों में तो बच्ची ही रहेगी। परंतु अब उसके हाथ पीले कर दो, वह सयानी हो चुकी है।’
‘इतनी जल्दी क्या है और फिर उसके लिए अच्छा-सा वर भी तो देखना होगा।’
‘तो अभी से देखना शुरू करिए-तूफान और यौवन का कोई भरोसा नहीं, किसी भी समय सिर से उतर सकता है।’
‘ठाकुर को किसी भी तूफान का भय नहीं।’
‘अनजान मनुष्य को अवसर बीतते पछताना पड़ता है।’
‘आखिर ऐसा तर्क तुम क्यों कर रहे हो?’
‘ठाकुर बाबा, आप यह तो अच्छी प्रकार जानते हैं कि मैं एक सच बोलने वाला मनुष्य हूँ, जो सोचता हूँ मुँह पर कह देता हूँ।’
‘तो अब कहना क्या चाहते हो?’
‘यही कि पार्वती का यूँ अकेले साँझ को मंदिर जाना ठीक नहीं।’
‘इसमें बुरा ही क्या है?’
‘आपको यकीन है कि पार्वती मंदिर में है।’
‘तुम पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो, साफ-साफ कहो न।’
‘आजकल पार्वती के फूल देवता पर नहीं मनुष्य पर भेंट होते हैं।’
‘नामुमकिन-और देखो माधो! मैं पार्वती को तुमसे अधिक समझता हूँ। उसके बारे में अशुभ विचार सोचना भी पाप है, समझे।’ कहते-कहते बाबा आवेश में आ गए। उनकी साँस तेजी से चलने लगी।
‘आप तो यूँ ही बिगड़ गए, बातों में बात बढ़ गई। मुझे क्या लेना इन बातों से। अच्छा नमस्कार।’ और माधो ड्यौढ़ी से बाहर निकल गया।
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