RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘मुझे केवल इतना ही कहना है कि कल शाम को पूजा घर पर ही होगी।’
और यह कहकर वह दूसरे कमरे में चले गए। पार्वती सोच में वहीं पलंग के किनारे बैठ गई। उसकी आँखें पथरा-सी गईं। वह बाबा से यह भी न पूछ सकी कि क्यों? जैसे वह सब समझ गई हो, परंतु यह सब बाबा कैसे जान पाए। आज साँझ तक तो उनकी बातों से कुछ ऐसा आभास न होता था। उसके मन में भांति-भांति के विचार उत्पन्न हो रहे थे। जब राजन की सूरत उसके सामने आती तो वह घबराने-सी लगती और भय से काँप उठती। न जाने वह कितनी देर भयभीत और शंकित वहीं बैठी रही। कुछ देर में रामू की आवाज ने उसके विचारों का तांता भंग कर दिया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई। बाबा भोजन के लिए उसकी प्रतीक्षा में थे।
दूसरी साँझ पूजा के समय जब मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं तो पार्वती का दिल बैठने लगा। बाबा बाहर बरामदे में बैठे माला जाप कर रहे थे और पार्वती अकेले मंदिर की घंटियों का शब्द सुन रही थी। उसके हाथों में लाल गुलाब का फूल था। रह-रहकर उसे राजन की याद आ रही थी। सोचती थी शायद राजन मंदिर के आसपास उसकी प्रतीक्षा में चक्कर काट रहा होगा।
घंटियों की आवाजें धीरे-धीरे बंद हो गयी। चारों ओर अंधेरा छा गया परंतु पार्वती वहीं लेटी अपने दिल में अपनी उलझनों को सुलझाती रही।
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प्रातःकाल सूरज की पहली किरण बाबा के आँगन में उतरी तो ड्यौढ़ी का दरवाजा खुलते ही सबसे पहले राजन ने अंदर प्रवेश किया। बाबा उसे देखते ही जल उठे। बैठने का संकेत करते हुए बोले-‘कहो आज प्रातःकाल ही।’
‘सोचा कि ठाकुर बाबा के दर्शन कर आऊँ।’
‘समय मिल ही गया। सुना है, आजकल हर साँझ मंदिर में पूजा को जाते हो।’
‘जी शायद पार्वती ने कहा होगा।’
‘कुछ भी समझ लो।’
‘पार्वती तो ठीक है न?’
‘क्यों उसे क्या हुआ?’
‘मेरा मतलब है कि आज उसे मंदिर में नहीं देखा।’
‘हाँ, उसने मंदिर जाना छोड़ दिया है।’
‘वह क्यों?’ राजन ने अचंभे में पूछा।
‘इसलिए कि उन सीढ़ियों पर पार्वती के पग डगमगाने लगे हैं।’
‘तो क्या वह अब मंदिर नहीं जाएगी।’
‘कभी नहीं।’
थोड़ी देर रुककर बाबा बोले-‘राजन तुम ही सोचो, अब वह सयानी हो चुकी है और मेरी सबसे कीमती पूँजी है। उसकी देखभाल करना तो मेरा कर्त्तव्य है।’
‘ठीक है, परंतु आज से पहले तो कभी आपने।’
‘इसलिए कि आज से पहले मंदिर में लुटेरे न थे।’
बाबा का संकेत राजन समझ गया। क्रोध से मन-ही-मन जलने लगा, परंतु अपने को आपे से बाहर न होने दिया। उसका शरीर इस जाड़े में भी पसीने से तर हो गया था। वह मूर्तिवत बैठा रहा। बाबा उसके मुख की आकूति को बदलते देखने लगे।
‘क्यों यह खामोशी कैसी?’ बाबा बोले।
‘खामोशी, नहीं तो’ और कुर्सी छोड़ राजन उठ खड़ा हुआ।
‘पार्वती से नहीं मिलेंगे क्या?’
‘देर हो रही है, फिर कभी आऊँगा।’ इतना कह शीघ्रता से ड्यौढ़ी की ओर बढ़ने लगा। बाबा ने उसे गंभीर दृष्टि से देखा और फिर आँखें मूँदकर माला जपने लगे।
पार्वती, जो दरवाजे में खड़ी दोनों की बातें सुन रही थी, झट से बाबा के पास आकर बोली-
‘बाबा!’
बाबा ने आँखें खोलीं। माला पर चलते हाथ रुक गए। सामने पार्वती खड़ी उनके चेहरे की ओर देख रही थी। नेत्रों से आँसू छलक रहे थे। बाबा का दिल स्नेह से उमड़ आया। वह प्रेमपूर्वक उसे गले लगा लेना चाहते थे-परंतु उन्होंने अपने को रोका और सोच से काम लेना उचित समझा। कहीं प्रेम अपना कर्त्तव्य न भुला दे। पार्वती बोली-‘बाबा यह सब राजन से क्यों कहा आपने। वह मन में क्या सोचेगा?’
‘जो इस समय तुम सोच रही हो। आखिर मेरा भी तुम पर कोई अधिकार है।’
‘बिना आपके मेरा है ही कौन। फिर जो आपको कहना था वह मुझसे कह दिया होता, किसी दूसरे के मन को दुखाने से क्या लाभ?’
‘दूसरे ने तो मेरी इज्जत पर वार करने का प्रयत्न किया है।’
‘नहीं बाबा, वह ऐसा नहीं। किसी ने आपको संदेह में डाला है।’
‘मैं समझता हूँ, मुझे अधिक मेल-जोल पसंद नहीं।’
पार्वती ने आगे कोई बात नहीं की और निराश अपने कमरे में लौट गई। वह समझ न पाई कि आखिर किसने कहा और कहा भी तो क्या कहा?’
दिन भर उसे राजन की याद सताती रही। वह मन में क्या सोचता होगा। वह किसी आशा से सुबह ही घर में आया था और चला भी चुपचाप गया। क्यों न मिल सकी वह उसे, परंतु कोई उपाय भी तो न सूझता था। साँझ होते ही उसने बाबा से मंदिर जाने को पूछा, परंतु वह न माने और प्यार से समझाने लगे। पार्वती ने बाबा की सब बातें सुनी, पर ज्यों ही उसे राजन का ध्यान आता उसका ध्यान विचलित होने लगता।
दो दिन बीत गए, परंतु पार्वती न सो सकी और न ही भर पेट भोजन कर पाई। इस बीच में न ही राजन आया और न ही कोई समाचार मिला।
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