RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
तीन दिन बाद उसकी आँखें झपक गईं। उसने स्वप्न में राजन को रोते-कराहते देखा। भय से वह उठ खड़ी हुई। उसके मुँह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसे ऐसे सुनाई पड़ा-जैसे कोई पुकार रहा हो। वह और भी घबराई, भयभीत-सी अंधेरे की ओर इधर-उधर देखने लगी। बाहर की खिड़की खुली थी। उसे लगा, मानो लोहे की सलाखों से कोई इधर-उधर झाँक रहा है। वही पुकार सुनाई दी। आवाज कुछ पहचानी हुई मालूम हुई। पार्वती ने ध्यान से देखा, अरे यह तो राजन है। पार्वती को कुछ धीरज हुआ। वह बिस्तर से उठ दबे पाँव खिड़की की ओर बढ़ी। डर के मारे उसकी साँस अब तक फूल रही था।
‘राजन! तुम इतनी रात गए?’ पार्वती ने धीमे स्वर में पूछा।
‘क्या करूँ मन को बहुत समझाया...’
‘यदि किसी ने देख लिया तो...।’
‘धीरज से काम लो और ड्यौढ़ी तक आ जाओ।’
‘ड्यौढ़ी तक!’ पार्वती ने घबराते हुए कहा।
‘हाँ, मैं भी तो इस अंधेरे में...’
‘परंतु बाबा साथ वाले कमरे में सो रहे हैं, यदि जाग गए तो?’
‘घबराओ नहीं जल्दी करो।’ राजन का स्वर काँप रहा था। राजन फिर बोला-‘समय नष्ट न करो-साहस से काम लो।’
‘अच्छा तुम चलो, मैं आई।’
राजन नीचे उतर गया। पार्वती चुपके से दरवाजे के पास गई, जो बाबा के कमरे में खुलता था, फिर अंदर झाँकी। बाबा सो रहे थे, पार्वती ने अपनी शाल कंधे पर डाली और कमरे से बाहर हो गई।
जब उसने ड्यौढ़ी का दरवाजा खोला तो राजन लपक कर भीतर आ गया और दरवाजे को दोबारा बंद कर दिया। दोनों एक-दूसरे के अत्यंत समीप थे। उसी समय पार्वती की कोमल बांहें उठीं और राजन के गले में जा पड़ीं। दोनों के साँस तेजी से चल रहे थे और अंधेरी ड्यौढ़ी में दोनों के दिल की धड़कन एक गति से चलती हुई एक-दूसरे में समाती रही। बाहर हवा की साँय-साँय तथा भौंकते कुत्तों का शब्द आ-आकर ड्यौढ़ी के बड़े दरवाजे से टकरा रहा था।
‘इतनी सर्दी में केवल एक कुर्ता!’ पार्वती उससे अलग होते हुए धीमे स्वर में बोली।
‘तुम्हारे शरीर की गर्मी महसूस करने के लिए। क्या बाबा ने मेरे बारे में तुमसे कुछ कहा है?’
‘नहीं तो।’
‘तुम मुझसे छिपा रही हो। क्या वह यह सब जान गए?’
‘हाँ राजन, जरा धीरज से काम लेना होगा।’
‘जानती हो, इतनी रात गए मैं यहाँ क्यों आया हूँ?’
‘क्यों?’ पार्वती के स्वर में आश्चर्य था।
‘तुम्हारी आज्ञा लेने।’
‘कैसी आज्ञा?’
‘मैं साफ-साफ बाबा से कह देना चाहता हूँ कि हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।’
‘नहीं राजन, अभी तुम्हें चुप रहना होगा।’
‘तो क्या?’
‘दो-चार दिन बीतने पर मैं स्वयं बाबा से कह दूँगी।’
‘यदि वह न मानें तो?’
‘तो।’ पार्वती के मुँह से निकला ही था कि आँगन में किसी की आहट सुनाई पड़ी। किवाड़ खोल राजन तुरंत वापस चला गया। पार्वती काँपते हाथों से कुण्डा बंद कर रही थी कि दियासलाई के प्रकाश के साथ ही किसी की गरज सुनाई दी। पार्वती के हाथ से कुण्डा छूट गया। हाथ में दियासलाई लिए बाबा खड़े थे। उनके क्रोधित नेत्रों से मानो अंगारे बरस रहे थे। वह पार्वती की ओर बढ़े। पार्वती आगे से हट गई। हवा की तेजी से ड्यौढ़ी के किवाड़ खुल गए। बाबा ने बाहर झाँक कर देखा, दूर कोई शीघ्रता से जा रहा था और भौंकते कुत्ते उसका पीछा कर रहे थे।
बाबा ने किवाड़ बंद कर दिए और पलटकर पूछा-
‘कौन था?’
पार्वती ने कोई उत्तर न दिया और सिर नीचा किए चुपचाप खड़ी रही। बाबा कदम बढ़ाते कमरे में लौटने लगे, पार्वती भी सिर नीचा किए धीरे-धीरे पग बढ़ाते उनके पीछे हो ली।
जब दोनों कमरे में पहुँचे तो बाबा ने पूछा-
‘कौन था वह?’
‘राजन!’ पार्वती ने कांपते स्वर में उत्तर दिया।
‘वह तो मैं जानता हूँ, परंतु इतनी रात गए यहाँ क्या लेने आया था?’
‘मुझसे मिलने।’
बाबा ने मुँह बनाते हुए कहा और फिर क्रोध में बोले-‘क्या यह भले आदमियों का काम है।’
‘बाबा वह विवश था।’
‘पार्वती!’ बाबा जोर से गरजे और पास पड़ी कुर्सी का सहारा लेने को हाथ बढ़ाया, परंतु लड़खड़ाकर धरती पर गिर गए। पार्वती तुरंत सहारा देने बढ़ी, पर बाबा ने झटका दे दिया और दीवार का सहारा ले उठने लगे। वह अब तक क्रोध के मारे काँप रहे थे। उनसे धरती पर कदम नहीं रखा जा रहा था। कठिनाई से वह अपने बिस्तर पर पहुँचे और धड़ाम से उस पर गिर पड़े। पार्वती उनके बिस्तर के समीप जाने से घबरा रही थी। धीरे-धीरे कमरे के दरवाजे तक गई और धीरे से बाबा को पुकारा-उन्होंने कोई उत्तर न दिया। वह चुपचाप आँखें फाड़े छत की ओर टकटकी बाँधे देख रहे थे। पार्वती वहीं दहलीज पर बैठ गई। उसकी आँखों से आँसू बह-बहकर आँचल भिगो रहे थे।
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