RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
राजन जब मैनेजर के कमरे में पहुँचा तो माधो भी वहीं मौजूद था। राजन को देखते ही हरीश बोला-
‘राजन! मैंने तुम्हें एक आवश्यक काम से यहाँ बुलाया है।’
‘कहिए।’
‘दो-चार दिन के लिए तुम्हें सीतलपुर स्टेशन जाना होगा।’
‘क्या किसी काम से?’
‘वहाँ कुछ मशीनें आई हैं, उन्हें मालगाड़ी से लदवाकर यहाँ लाना है। यूँ तो माधो भी चला जाता, परंतु उसके जाने से इधर का काम रुक जाता है।’
‘कितने दिन का काम है।’
‘यूँ तो पंद्रह दिन का काम है, परंतु स्टेशन मास्टर से कहकर शीघ्र ही करवा दिया जाएगा।’
‘क्या कोई और...।’
‘क्यों?’ हरीश ने माथे पर बल चढ़ाते हुए पूछा।
‘यूँ ही... कुछ नहीं, मेरा विचार था, खैर चला जाऊँगा, जब आप आज्ञा देंगे मैं चला जाऊँगा।’
हरीश के माथे पर पड़े बल मिट गए और राजन आज्ञा लेकर बाहर चला गया। वह किसी भी दशा में पार्वती से दूर जाना न चाहता था, परंतु मन की बात किससे कहे और उसकी सुनने वाला था भी कौन?
राजन प्रतिदिन काम समाप्त होने पर पार्वती के पास जाता। मैनेजर, माधो आदि भी वहाँ मौजूद होते। उनके होते वह भी बुत-सा बना चटाई पर बैठ जाता और पार्वती से अकेले में न मिल पाता, जब वह पार्वती के उदास चेहरे को देखता तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते। फिर मन-ही-मन सोचता, अच्छा हो यह सब लोग यहाँ से चले जाएं और मैं दो घड़ी अकेले में बैठ पार्वती से एक-दो बातें कर लूँ, परंतु कोई घड़ी भी ऐसी न होती जब दो-चार लोग वहाँ मौजूद न हों।
इसी प्रकार चार दिन बीत गए। राजन न ही पार्वती को कुछ कह सका और न ही कुछ सुन सका। कितना बेबस था वह। हरीश, माधो, केशव उसे घूर-घूरकर देखते, परंतु वह उधर ध्यान न देता। जब वह पार्वती की उदासी को देखता तो व्याकुल हो उठता, सोचता कहीं नई परिस्थिति में वह बदल न जाए। ऐसे विचार उसे भयभीत कर देते, परंतु उसका हृदय न मानता।
उधर पार्वती अपनी नई परिस्थिति को देखकर चुप थी। चारों ओर तूफान था परंतु वह शांत थी। उसे किसी का कोई भय न था। हरीश, माधो, केशव और न जाने कितने ही लोग प्रतिदिन आते और चले जाते, परंतु पार्वती को किसी की जरा भी याद न थी। यहाँ तक कि राजन की उपस्थिति भी उसके विचारों को भंग न कर सकी। अब वह चलती-फिरती मूर्ति के समान थी, जिसके विचारों में हर समय एक ज्योति-सी जगमगाती हो। उसमें उसे अपने बाबा की तस्वीर दिखाई देती और वही उसे मानो खींचते-खींचते कहीं दूर ले जाती, जहाँ वह अपने देवता को प्रणाम करती और मन-ही-मन मुस्करा देती।
एक रात सोने से पहले जब वह अपने बिस्तर पर इन्हीं विचारों में खोई पड़ी थी तो किसी ने उसको थपथपाया-यह केशव था, जो मुस्कुराते हुए उसके समीप जा बैठा और कुछ फल देता हुआ बोला-
‘यह तुम्हारे लिए लाया हूँ।’
‘ओह केशव दादा! मंदिर से लौट आए?’
‘हाँ, भोजन कर चुकीं क्या?’
‘मुझे भूख नहीं दादा।’
‘देखो पार्वती-कहो तो मैं सुबह के बदले साँझ को भोजन कर लिया करूँ! दो बार तो खा नहीं सकता और तुम अकेली होने से कभी बनाती हो तथा कभी भूख न लगने का बहाना कर चूल्हा तक नहीं जलातीं।’
‘नहीं दादा, सच कहती हूँ, भूख नहीं।’
‘पार्वती! तुम तो अपनी सुध भी खो बैठी हो, लो कुछ खा लो।’
पार्वती ने केशव के हाथों से फल लिए और खाने लगी, केशव उसे स्नेह भरी दृष्टि से देखने लगा।
|