RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘पार्वती आज फिर माधो आया था।’
‘सुनो दादा! अब मैं इन सबसे दूर रहना चाहती हूँ।’
‘संसार में रहकर संसार वालों से दूर नहीं रहा जा सकता बेटी।’
‘परंतु मैं संसार में रहते हुए भी सबसे दूर रहूँगी।’
‘कैसे? और फिर बाबा को दिया हुआ वचन कैसे पूरा होगा?’
‘भगवान से लगन लगाकर। बाबा की यही इच्छा थी न दादा।’
‘हाँ तो स्त्री का भगवान उसका पति ही होता है।’
‘तो मैं अपने देवता से ब्याह करूँगी-उसके चरणों में रहकर उसके गुण गा-गाकर सबको सुनाऊँगी।’
‘पर जानती हो भगवान कभी प्रसन्न न होंगे।’
‘सो क्यों?’
‘इसलिए कि मनुष्य को सदा संसार में मनुष्य की तरह ही रहना चाहिए। मनुष्य वही है जिसके हृदय में दूसरों के लिए ममता हो।’
‘तो आप सब मुझे मनुष्यों से दूर करना चाहते हैं।’
‘ऐसा हम क्यों करने लगे?’
यह सुनते ही केशव काका चुप हो गए और पार्वती की ओर देखते रहे। पार्वती के मुख पर अजीब शांति थी, परंतु हृदय में तूफान-सा उठ खड़ा हुआ। केशव काका संभालते हुए लड़खड़ाते शब्दों में बोले-
‘पार्वती यह भी संसार की एक रीत है, जिसके अंतर्गत राजन एक मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने योग्य नहीं। रस्मों और समाज के नियमों के सामने मनुष्य को झुकना ही पड़ता है।’
‘यह नियम बनाया किसने?’
‘भगवान ने बेटी! एक-दूसरे के तुम योग्य भी नहीं हो। वह एक मजदूर और तुम एक अफसर की लड़की-वह एक अछूत और तुम ब्राह्मण-वह एक नास्तिक और तुम देवता की पुजारिन-नहीं तो बाबा ही क्यों रोकते।’
‘तो क्या मुझे अपना बलिदान देना होगा?’
‘हाँ पार्वती! इस शरीर का, जो संसार में बनाया हुआ एक भगवान का खिलौना है-वही इसे ले जा सकता है जो इसके योग्य समझा जाए।’
‘तो हृदय की लगन एक ढोंग हुई और यह सच्चे प्रेम की कहानी एक कोरा स्वप्न?’
‘दिल को वही जीत सकता है जिसकी सच्ची लगन हो और लगन केवल देवता से ही हो सकती है, मनुष्य से नहीं।’
‘वह क्यों?’
‘क्योंकि मनुष्य के हृदय में प्रेम के साथ-साथ झूठ, धोखा, प्रपंच और स्वार्थ भी बसा है।’
‘परंतु राजन ऐसा नहीं काका! वह अपने प्राण दे देगा! मेरी दी हुई आशाओं के सहारे वह जी रहा है।’
‘चकोर चाँद तक पहुँचने के लिए भले ही किरणों का सहारा ले, परंतु वह किरणें कभी उसे चाँद तक नहीं पहुँचा सकतीं।’
‘तो उसे उस चकोर की भांति फड़फड़ाते हुए प्राण देने होंगे।’
‘संसार में सदा ऐसा होता आया है। जब विवशताओं में फंस जाए तो भगवान का सहारा ले उसे हर तूफान का सामना करना पड़ता है।’
‘तो मनुष्य दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अपने अरमानों का खून कर दे?’
‘हाँ पार्वती! अपने लिए तो हर कोई जीता है, परंतु किसी दूसरे के लिए जीना ही जीवन है।’
पार्वती चुप हो गई। न जाने कितनी ही देर बैठी जीवन की उलझनों को मानो सुलझाती रही। उधर केशव दादा सोने के लिए गए। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। इस सन्नाटे में मानो आज भय के स्थान पर शांति छिपी हुई थी। बाबा के जाने के बाद वह पहली रात्रि थी, जो पार्वती को न भा रही थी। वह अपने बिस्तर से उठ, खिड़की के समीप जा खड़ी हुई और उसे खोल लिया।
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