RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
‘तुम मुझे रोक सकते हो शम्भू, परंतु मेरे अंदर उठते तूफान को कौन रोकेगा।’ यह कहकर राजन ने गहरी साँस ली और नदी की ओर चल दिया। शम्भू खड़ा देखता रहा। उसने चारों ओर घूमकर देखा-वहाँ कोई न था, जिसे वह मदद के लिए पुकारे, चारों ओर अंधकार छा रहा था। उसकी दृष्टि जब घूमकर राजन का पीछा करने लगी तो वह नजरों से ओझल हो चुका था। शम्भू राजन को पुकारते हुए उसके पीछे दौड़ने लगा।
राजन सीधा नदी के किनारे जा रुका। दूर-दूर तक जल दिखाई दे रहा था और पत्थरों से टकराते जल का भयानक शोर हो रहा था, मानो आज पत्थर भी इस तूफान की चपेट में आकर कराह रहे हों। परंतु एक तूफान था कि बढ़ता ही चला जा रहा था। ज्यों ही राजन ने किनारे रखी एक छोटी-सी नाव का रस्सा खोला, शम्भू ने पीछे से आकर उसकी कमर में हाथ डाल दिए और रोकते हुए बोला, ‘राजन बाबू! काल के मुँह में जाओगे। तुम आत्महत्या करने जा रहे हो, जो कि भारी पाप है। तुम मान जाओ! प्रातः तड़के ही...।’
राजन ने एक जोर का झटका दिया-शम्भू दूर जा गिरा।
राजन ने उसके निराश चेहरे पर एक दया भरी दृष्टि डाली और बोला-
‘शम्भू! तू मुझे काल के मुँह से बचाना चाहता है, परंतु तू क्या जाने कि मेरा वहाँ न जाना मृत्यु से भी बढ़कर है। चिता के समान भयानक और जीते जी जलने वाला काल! अच्छा शम्भू! जीवित रहा तो फिर मिलूँगा।’
राजन ने नाव जल में धकेल दी और उसमें बैठ गया। शम्भू उठा, किनारे जा खड़ा हो उसे देखने लगा। नाव लहरों के थपेड़ों से हिलती-डुलती दौड़ती जा रही थी। तूफान का जोर बढ़ रहा था। शम्भू की आँखों से आँसू बह निकले।
थोड़ी ही देर में नदी की लहरों ने नाव को कहीं-का-कहीं पहुँचा दिया। राजन नाव को किनारे-किनारे चलाने का प्रयत्न करता, परंतु पानी का बहाव बार-बार उसे मझधार की ओर ले जाता। बहाव उधर होने के कारण नाव की गति तेज हो गई और धीरे-धीरे राजन के काबू से बाहर होने लगी। राजन ने जोर से नाव का किनारा पकड़ लिया और सिर घुटनों में दबा नाव को भगवान के भरोसे छोड़ दिया। न जाने कितनी बार नाव भँवर में डगमगाई और पानी उछल-उछलकर उसके सिर से टकराया, परंतु वह नीचा सिर किए बैठा रहा।
राजन ने धीरे से जब अपना सिर उठाया तो दूर ‘वादी’ के झरोखे से प्रकाश दिखाई दे रहा था। पानी का जोर पहले से कुछ धीमा हो चुका था, परंतु नाव अब भी पूरी तरह से न संभल पाई थी। कटे हुए पेड़, जानवरों के शरीर आदि वस्तुएं नाव के दोनों ओर बहे जा रहे थे।
ज्यों-ज्यों नाव प्रकाश के समीप आने लगी, राजन के दिल की धड़कन तेज होने लगी। जब दूर आकाश में उसने आतिशबाजी फटते देखी तो उसका दिल फटने लगा। वह आहत सा उन बिखरते हुए रंगीन सितारों को देखने लगा, जो हरीश की शादी का संदेश ‘वादी’ की ऊँची चोटियों को सुना रहे थे।
अचानक नाव एक लकड़ी के तने से टकराई और उलट गई, राजन ने उछलकर तने को पकड़ लिया और तैरकर जल से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा। थोड़े ही प्रयास के बाद वह तने पर जा बैठा, जो जल में सीधा पड़ा था। राजन ने देखा कि वह तना एक किनारे के पेड़ का था, जो तूफान के जोर से गिरकर जल की लहरों में स्नान कर रहा था। राजन ने साहस से काम लिया। धीरे-धीरे उस पर चलकर किनारे पर पहुँच गया।
उसने भीगे वस्त्र निचोड़े और वादी की ओर चल दिया। रास्ता अभी तक बर्फ से ढँका हुआ था। जब वह मंदिर के पास पहुँचा तो वहाँ कोई भी न था। मंदिर के किवाड़ बंद थे। प्रकाश केवल झरोखों से बाहर आ रहा था। राजन ने एक बार हरीश के घर को देखा, जो प्रकाश से जगमगा रहा था, फिर अपने घर की ओर चल दिया।
घर का द्वार खोला तो माँ राजन को देख चौंक उठी। उसके विचारों को भाँप गई। फिर टूटे शब्दों में बोली-
‘राजी-तू... आ... गया... यह... कपड़े?’
‘माँ मेरे कपड़े निकालो, मुझे पार्वती की शादी में जाना है। यह तो भीग गए हैं।’
‘अभी तो आया है, विश्राम तो कर, अपनी जान...।’
‘नहीं माँ, मुझे जाना है। तू क्या जाने मैं किस तूफान का सामना करता आया यहाँ पहुँचा हूँ।’
‘वह तो मैं देख रही हूँ, जरा आग के पास आ जा, मैं तेरे कपड़े लाती हूँ, अभी तो शादी में देर है।’
‘जल्दी करो माँ-मुझे एक-एक पल दूभर हो रहा है’ यह कहते हुए वह जलती अंगीठी के पास जा खड़ा हुआ। माँ भय से काँपती हुई दरवाजे से बाहर आ गई और बरामदे में रखे संदूक से राजन के वस्त्रों का एक जोड़ा निकाले दबे पाँव द्वार की ओर बढ़ी। वह बार-बार मुड़कर खुले द्वार को देखती कि कहीं राजन बाहर न आ जाए। उसने शीघ्रता से बाहर का द्वार बंद कर दिया।
कुंडा लगाते ही उसके कानों में शहनाई का शब्द सुनाई पड़ा। उस शब्द के साथ ही राजन चिल्लाया-‘माँ!’
‘आई बेटा!’
उसने आँचल से हाथ बाहर निकाला और कुंडे में ताला डाल दिया। फिर शीघ्रता से पग बढ़ाती कमरे में पहुँची। राजन अपने स्थान पर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। दोनों की आँखें मिलीं, दोनों ही चुपचाप शहनाई की आवाज सुनने लगे, राजन ने कानों में उंगलियाँ देते हुए कहा-
‘सुन रही हो माँ! यह आज मेरी मृत्यु को पुकार रही है।’
‘पागल कहीं का! कुछ सोच-समझकर मुँह से शब्द निकाला कर, पहले कपडे़ बदल।’
माँ ने मुँह बनाते हुए कहा, परंतु साथ ही भय से काँप रही थी। राजन ने वस्त्र ले लिए और लटकते हुए कम्बल की ओट में बदलने लगा। माँ एक बर्तन में थोड़ा जल ले आग पर रखने लगी।
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