RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
उसके हाथ तेजी से बर्फ उठाकर किनारे पर फेंक रहे थे। जब बर्फ हटाकर उसने माँ को बाहर निकाला तो उनका शरीर बर्फ के समान ठण्डा हो रहा था। उसने माँ को हाथों से उठा लिया और उन्हीं कदमों से वापस अपने घर लौट आया। आग अब तक जल रही थी। उसने शरीर को गर्मी पहुँचाने के लिए माँ को आग के समीप लिटा दिया और उसके हाथ अपने हाथों से मलने लगा। उसने एक-दो बार माँ को पुकारा भी, परंतु वह खामोश थी। जब काफी देर तक शरीर में गर्मी न आई तो वह डरा और एकटक माँ की आँखों में देखने लगा-वे पथरा चुकी थीं। फिर अपने कान उसके दिल के समीप ले गया और ‘माँ-माँ’ पुकार उठा।
माँ तो सदा के लिए जा चुकी थी, उसकी साँस सदा के लिए बंद हो चुकी थी। कमरे की दीवारों से टकराकर यह शब्द गूँज रहे थे।
‘तुम्हारा प्रेम एक धोखा है, एक भूख है, जो तुम्हें जानवर बनने को विवश कर रहा है। लगन आत्मा से होती है, इस नश्वर शरीर से नहीं।’
वह माँ के मृत शरीर से लिपटकर रोने लगा।
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जब रात्रि के अंधियारे में वह बर्फ के सफेद फर्श पर अपनी माँ की चिता लगा रहा था-तब सारी ‘वादी’ रंगरलियों में मग्न थी। बारात के बाजे बज रहे थे और नीले आकाश पर उसके दिल के टुकड़े रंगीन सितारों के रूप में बिखर रहे थे। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। आज भी उसके हर संकट में दुःख बटाने वाला कुंदन उसका हाथ बटा रहा था। वह कभी राजन को और कभी उस जगमगाते घर की ओर देखता-जहाँ पार्वती की शादी हो रही थी।
दूसरी साँझ जब हरीश के घर के सामने पार्वती की डोली रुकी तो मजदूरों का एक जत्था नाचता-गाता पीछे आ रहा था। माधो थैली से पैसे निकाल उस समूह पर न्यौछावर करता और जब वह उन पैसों को उठाने दौड़ते तो वह फूला न समाता। प्रसन्न भी क्यों न होता-सफलता का सेहरा भी उसी के सिर पर था।
डोली का पर्दा उठा तो पार्वती बाहर आई। कुछ स्त्रियाँ, जो शायद हरीश के घर से आई हुई थीं, दुल्हन के समीप आ गईं और उसे अंदर की ओर ले जाने लगीं। माधो ने थैलियों से कुछ पैसे निकाले-कहारों की ओर हाथ बढ़ाया तो चौंक उठा-उसके मुँह से निकला-‘राजन’ और हाथ वापस लौटा लिए। डोली के सारे कहारों में राजन भी एक था, जिसके मुख पर उदासी के बादल छाए हुए थे। राजन का नाम सुनते ही हरीश मुड़ा-जाती हुई दुल्हन के कदम भी पल भर के लिए रुक गए। सबके मुख पर हवाइयाँ सी उड़ने लगीं। हरीश संभलते हुए बोला-‘आओ राजन! तुम कब आये?’
‘मैनेजर साहब-आप चाहे मुझे अपनी शादी में न बुलाते, परंतु पार्वती की शादी में मुझे आना ही था-डोली में कंधा कौन देता।’
‘हाँ, क्यों नहीं तुम्हारा अपना घर है, जब जी चाहे आओ ना। इस बस्ती में और है ही कौन, जिससे दो घड़ी बैठ अपना मन बहलाओगे।’
‘इसीलिए तो काम अधूरा छोड़कर चला गया। कहीं काका यह न कहें कि पार्वती का अपना भाई नहीं, डोली उठाने राजन भी न आया।’
भाई का नाम सुनते ही हरीश घबराकर माधो की ओर देखने लगा। माधो लज्जित-सा हो दूसरी ओर देखता हुआ बाकी कहारों को एक ओर ले जा पैसे देने लगा। ज्यों ही दुल्हन के पाँव अंदर की ओर बढ़े-हरीश राजन से बोला-‘भैया अंदर चलो।’
फिर दोनों चुपचाप दुल्हन के पीछे जाने लगे। नई दुल्हन को ऊपर वाले कमरे में ले जाया गया और हरीश राजन को साथ ले नीचे गोल कमरे में जा बैठा। उसने एक नौकर से राजन के लिए खाना लाने को कहा, परंतु राजन ने इंकार कर दिया।
‘क्यों राजन, मुँह भी मीठा नहीं करोगे?’
‘आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं मैनेजर साहब! भला मैं इस घर का कैसे खा सकता हूँ?’
‘यह तो पुराने विचार हैं, आज के जमाने में अब इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है।’
‘पुराने विचारों पर विश्वास तो मुझे भी न था, परंतु अब तो अपने आप पर भी न रहा।’
‘राजन, संसार में मनुष्य कई बाजियाँ हारकर ही जीतता है।’
‘मन को बहलाना है मैनेजर साहब-किसी तरह बहलाया जाए-वरना किसकी हार और किसकी जीत।’
इतने में माधो भी आ पहुँचा और एक तीखी दृष्टि राजन पर डालते हुए हरीश के पास जा बैठा। राजन थोड़ी देर चुप रहने के बाद उठा और हरीश से जाने की आज्ञा माँगी, परंतु वह रोकते हुए बोला-‘क्या पार्वती से नहीं मिलोगे?’
राजन ने कोई उत्तर न दिया... परंतु उसकी आँखों में छिपे आँसुओं से हरीश भाँप गया और सीढ़ियों पर खड़ी एक स्त्री को संकेत किया। राजन आश्चर्यपूर्वक हरीश को देखने लगा और फिर धीरे-धीरे पग उठाता ऊपर की ओर जाने लगा।
जब उसने दुल्हन के सुसज्जित कमरे में प्रवेश किया तो सामने सुंदर कपड़ों में पार्वती को देख उसकी आँखों में छिपे मोती छलक पड़े, जिन्हें वह पी गया और चुपचाप पार्वती को देखने लगा, जो लाज से अपना मुख घूँघट में छिपाए दूसरी ओर किए बैठी थी। वह अपने विचारों में आज इतनी डूबी बैठी थी कि उसे किसी के आने की आहट सुनाई न दी।
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