RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
राजन ने धीरे से झिझकते हुए पुकारा-‘पार्वती!’
पार्वती काँप-सी गई और मुँह पर घूँघट की ओट से राजन को एक तिरछी नजर से देखा। उसे अकेला देख उसने घूँघट चेहरे से हटाया और चुपचाप उसे देखने लगी। पार्वती दुल्हन के रूप में पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान लग रही थी। उसकी भोली और उदासी से भरी सूरत को देख राजन का दिल डूब
गया... फिर संभलते हुए बोला-
‘पार्वती तुम्हें देखने चला आया... कुछ देर से पहुँचा।’
‘देर से... कब आए?’ वह धीरे से बोली।
‘कल रात।’
‘रात को... किसी ने कहा तो नहीं।’
‘रात पहुँचा तो सही... परंतु तुम्हारे यहाँ न पहुँच सका।’
‘बाबा तो थे ही नहीं... फिर तुम्हें भी न देखा... जानते हो सारी रात फूलों के बिछौने मेरे आँसुओं ने सजाए।’
‘बजती शहनाइयाँ तो मैंने भी सुनीं और आकाश पर फटते रंगीन सितारे देख मैं तो प्रसन्नता से पागल हुआ जा रहा था... पर यह सब मैंने दूर से देखा... मुझे भी तो किसी की चिता जलानी थी।’
‘राजन!’ पार्वती के दिल में एक हूक-सी उठी।
‘हाँ... पार्वती! माँ की चिता! वह मुझे छोड़कर सदा के लिए इस संसार से चली गई है।’
‘यह सब कैसे हुआ?’
‘कई बार सोचा... एक बार तुम्हें देख लूँ... परंतु भाग्य को स्वीकार न था।’
‘मैं उनसे मिली थी राजन।’
‘कब?’
‘जिस साँझ उन्होंने तुम्हारी आरती उतारी थी।’
‘पार्वती! रात को जब मैं जलती चिता के किनारे खड़ा आकाश पर जलते सितारे देख रहा था तो मुझे वही महात्मा दिखाई पड़े... जो कहते थे... तुम्हारे प्रेम में सिवाय ‘जलन’ और ‘तड़प’ के कुछ नहीं और मैं मुस्करा दिया था।’
‘राजन! अब इन सब बातों को भूलना होगा।’
‘इसीलिए तो आज मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ।’
‘क्या?’
‘तुम्हारी इन आँखों में मान और स्नेह-जिसमें प्रेम की झलक हो... जलते हुए अंगारों को अब केवल जल की आवश्यकता है।’
‘तुम्हें भी एक वचन देना होगा।’
‘कहो।’
‘आज से इन आँखों में आँसुओं के स्थान पर मुस्कुराहट दिखाई दे।’
अभी वह बात पूरी कर भी न पाई थी कि हरीश ने अंदर प्रवेश किया... पार्वती ने झट से घूँघट ओढ़ अपना मुँह घूँघट में छिपा लिया... हरीश मुस्कराते हुए बोला-‘कहो राजन... क्या बात चल रही है? तुम्हें घर पसंद आया कि नहीं?’
‘देवता का गृह तो स्वर्ग होता है... स्वर्ग भी किसी को पसंद न हो? हाँ मैनेजर साहब... आपको इस स्वर्ग में एक बात का ध्यान रखना होगा।’
‘क्या?’
‘पार्वती उदास न होने पाए।’
यह शब्द राजन के मुँह से इस भोलेपन से निकले कि हरीश अपनी हँसी रोक न सका... राजन हाथ बाँधता बाहर को जाने लगा।
जाते-जाते बोला-‘मैनेजर साहब... हम अछूत सही... परंतु नीच नहीं... निर्धन अवश्य हैं... परंतु दिल इतना तंग नहीं रखते... जहाँ तूफान की तरह जूझना जानते हैं... वहाँ झरनों की तरह बह भी पड़ते हैं, फिर भी मनुष्य हैं और मनुष्यों से गलती होना संभव है।’
दोनों बाहर चले गए... पार्वती ने छिपी-छिपी आँखों से उस दरवाजे को
देखा... जहाँ थोड़ी देर पहले राजन खड़ा उससे बातें कर रहा था।
कंचन सामने खड़ी भाभी को देख मुस्करा रही थी। वह हरीश की छोटी बहन थी।
‘आओ कंचन!’ पार्वती ने प्यार से उसे अपने पास बुलाया।
‘मैंने सोचा सब अच्छी प्रकार से देख लें तो मैं भाभी के पास जाऊँ।’
‘तो इसलिए इतनी देर से वहीं बैठी हो।’
‘हाँ भाभी... मैं तो आनंदपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी और सोच रही थीं, कुछ नहीं।’
‘क्या सोच रही थी-अपनी भाभी से भी न कहोगी?’
‘मैं सोच रही थी भाभी! कल जब मेरी शादी होगी तो क्या मेरी ससुराल वाले भी यूँ ही प्रशंसा करेंगे?’
‘क्यों नहीं... और जरा मौका आने दो-तुम्हारे भैया से कह तुम्हारी शादी शीघ्र ही करवा दूँगी।’
‘भाभी, अभी से भैया का रौब देने लगी हो।’ और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। पार्वती लजा-सी गई। कंचन उसका मुँह ऊपर उठाती हुई बोली-‘हाँ भाभी अब भैया पर तुम्हारा ही अधिकार है-हम तो सब सेवक हैं-कहो क्या आज्ञा है?’
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