RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आहट हुई-पार्वती ने अपने आपको समेटकर घूँघट से छिपा लिया। हर स्वर पर उसका दिल काँप उठता था। ज्यों-ज्यों पैर की आहट समीप होती गई, वह अपने शरीर को सिकोड़ती गई। अचानक छत की बत्ती बुझ गई, उसके साथ ही कोने की मेज़ पर रखा ‘लैम्प’ प्रकाशित हो गया। पार्वती की जान-में-जान आई और मस्तिष्क पर रुकी पसीने की बूँदें बह पड़ीं।
‘शायद तुम डर गईं?’ हरीश का स्वर था।
थोड़ी देर रुकने के बाद वह बोला-
‘सोचा सामने की बत्ती जला दूँ, कहीं घूँघट में अंधेरा न हो।’
वह फिर भी चुपचाप रही-हरीश समीप आकर बोला-
‘क्या हमसे रूठ गई हो?’ और धीरे से पार्वती का घूँघट उठा दिया।
‘जानती हो दुल्हन जब नये घर में प्रवेश करे तो उसका नया जीवन आरंभ होता है और उसे देवता की हर बात माननी होती है।’
‘परंतु मैं आज अपने देवता के बिना पूछे ही किसी को कुछ दे बैठी।’
‘किसे?’
‘राजन को।’ वह काँपते स्वर में बोली।
‘क्या?’
‘स्नेह और मान जो सदा के लिए मेरी आँखों में होगा।’
‘तो तुमने ठीक किया-मनुष्य वही है जो डूबते को सहारा दे।’
‘तो समझूँ, आपको मुझ पर पूरा विश्वास है।’
‘विश्वास! पार्वती मन ही तो है, इसे किसी ओर न ले जाना, तुम ही नहीं, बल्कि आज मेरे दिल में भी राजन के लिए स्नेह और मान है। कभी सोचता हूँ कि मैं उसे कितना गलत समझता था।’
‘परंतु जलन में वह आनंद का अनुभव करता है-कहता था... सुख और चैन मनुष्य को निकम्मा बना देता है, ‘जलन’ और ‘तड़प’ मनुष्य को ऊँचा उठने का अवसर देते हैं।’
‘पार्वती! मैं भी आज तुम्हें वचन देता हूँ कि उसे उठाना मेरा काम ही नहीं, बल्कि मेरा कर्त्तव्य होगा।’
पार्वती ने स्नेह भरी दृष्टि से हरीश की ओर देखा-हरीश के मुख पर अजीब आभा थी। उसे लगा कि निविड़ अंधकार में प्रकाश की रेखा फूट पड़ी थी।
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आठ
राजन शीघ्रता से सीढ़ियाँ चढ़ता ऊपर वाले कमरे में जा पहुँचा। भीतर जाते ही तुरंत ही रुक गया-पार्वती सामने खड़ी मेज पर चाय के बर्तन सजा रही थी। राजन को देखते ही मुस्कुराईं और बोली-
‘आओ राजन!’
‘मैनेजर साहब कहाँ हैं?’ राजन ने पसीना पोंछते हुए पूछा।
‘आओ बैठो हम भी तो हैं, जब भी देखो मैनेजर साहब को ही पूछा जाता है।’
‘परंतु...।’
‘वह भी यहाँ हैं, क्या बहुत जल्दी है?’
‘जी वास्तव में बात यह है कि’ वह कहते-कहते चुप हो गया।
अभी वह जी भर देख न पाया था कि साथ वाले दरवाजे से हरीश ने अंदर प्रवेश किया। राजन कुर्सी छोड़ उठ खड़ा हुआ।
‘कहो राजन, सब कुशल है न?’
‘जी, परंतु वह जो कलुआ की बहू है न।’
उसी समय पार्वती सामने दरवाजे से ट्रे उठाए भीतर आई।
‘तो क्या हुआ कलुआ की बहू को!’
‘बच्चा’, और यह कहते-कहते उसने शरमाते हुए आँखें नीचे झुका लीं।
‘बच्चा? वह तो अभी चार नम्बर में कमा रही थी।’
‘जी-काम करते-करते।’
‘तो इसलिए बार-बार तुम शरमा रहे थे। मैंने सोचा न जाने क्या बात है?’ पार्वती ने हाथ बढ़ाया और चाय का प्याला हरीश के समीप ले गई। हरीश बोला, ‘पहले राजन।’
‘उसका तो यह अधिक खांड वाला है।’ और मुस्कुराते हुए दूसरा प्याला राजन की ओर बढ़ाया-राजन हिचकिचाया।
‘केवल सादी चाय, तुम्हें भाती है-फिर तुम्हें अभी बहुत काम करना है-कलुआ की बहू को अस्पताल भी पहुँचाना है।’
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