RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
सब हँस पड़े-राजन ने काँपते हाथों से प्याला पकड़ लिया और जल्दी-जल्दी चाय पीने लगा।
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आज उसे नए घर में आए तीन मास हो चुके थे-इस बीच में वह कितनी ही पहेलियाँ, चुटकुले और पुस्तकें अपने पति से सुन चुकी थी। कुछ यहाँ की और कुछ पहाड़ों के दूसरी ओर बसी हुई दुनिया की।
यह सोच पार्वती के होठों पर मुस्कान फिर नाच उठी।
अचानक वह दरवाजे पर माधो को खड़ा देख काँप गई और झट से ओढ़नी सिर पर सरकाई, वह यह जान भी नहीं पाई कि माधो कब से खड़ा उसे देख रहा था।
‘कुशल तो है पार्वती!’ वह एक अनोखी आवाज में बोला।
‘माधो काका, आओ, जरा आराम करने को बैठी थी।’
‘जरा मैनेजर साहब से मिलना था।’
‘वह तो अभी कंपनी गए हैं। राजन आया था, कलुआ की बहू की तबियत खराब हो गई थी।’
‘राजन ने मुझे कह दिया होता-उन्हें क्यों बेकार में कष्ट दिया।’
‘तो क्या हुआ-उनका भी तो कुछ कर्त्तव्य है।’
‘पार्वती बुरा न मानो तो एक बात कहूँ।’
‘क्या बात है?’ पार्वती सतर्क हो गई।
‘राजन का इस घर में अधिक आना ठीक नहीं-फिरनीच जाति का भी है।’
‘काका!’ वह चिल्लाई और क्रोध में बोली-‘काका जो कहना है उसे पहले सोच लिया करो।’
‘मैंने तो सोच-समझकर ही कहा है और कुछ अपना कर्त्तव्य समझकर-क्या करूँ, दिन-रात लोगों की बातें सुन-सुनकर पागल हुआ जाता हूँ। कहने की हद होती है-तुम्हें भी न कहूँ तो किसे कहूँ।’
‘मैनेजर साहब से, उनके होते हुए मुझे किसी की मदद की आवश्यकता नहीं।’
‘उनकी मर्यादा भी तो तुम ही हो। जब लोग तुम्हारी चर्चा करें तो उनका मान कैसा? लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि मैनेजर साहब दहेज में अपनी पत्नी के दिल बहलावे को भी साथ लाए हैं। और तो और, यहाँ तक भी कहते सुना है कि तुम अपने पति की आँखों में धूल झोंक रही हो।’
‘काका!’ पार्वती चिल्लाई।
पार्वती कुछ देर मौन रही, फिर माधो के समीप होते हुए बोली-
‘तो काका, सब लोग यही चर्चा कर रहे हैं?’
‘मुझ पर विश्वास न हो तो केशव दादा से पूछ लो, और फिर राजन का तुमसे नाता क्या है?’
‘मनुष्यता का।’
‘परंतु समाज नहीं मानता और किसी के मन में क्या छिपा है, क्या जाने?’
‘मुझसे अधिक उनके बारे में कोई क्या जानेगा?’
‘परंतु धोखा वही लोग खाते हैं, जो आवश्यकता से अधिक विश्वास रखते हैं।’ यह कहते हुए माधो चल दिया।
वह इन्हीं विचारों में डूबी साँझ तक यूँ ही बैठी रही। उधर हरीश लौटा तो उसे यूँ उदास देख असमंजस में पड़ गया, पूछने पर पार्वती ने अकेलेपन का बहाना बता बात टाल दी और मुस्कराते हुए हरीश को कोट उतारने में सहायता देने लगी।
‘तो कलुआ की घरवाली की गोद भरी है!’ वह जीभ होठों में दबाते हुए बोली।
‘हाँ, पुत्र हुआ है और आश्चर्य है कि ऐसी दशा में भी काम पर जाती है।’
‘तो आप उसे आने क्यों देते हैं?’
‘हम तो नहीं, बल्कि उसका पेट उसे ले आता है।’
‘कहीं तबियत बिगड़...।’
‘बिलकुल नहीं-वह तो यूँ लगती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं।’
‘तो अभी तक आप अस्पताल में थे?’
‘नहीं तो, वहाँ से मैं और राजन दूर पहाड़ों की ओर चले गए थे।’
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