RE: Raj Sharma Stories जलती चट्टान
पल-भर के लिए नीरवता छा गई। कोई भी मुँह नहीं खोल सका-जैसे सब उसके कहे पर अमल कर रहे हों। घर पहुँचते ही कुंदन ने राजन को बिस्तर पर लिटा दिया। फिर गर्म अंगीठी से कपड़ा गर्म कर उसके जख्मों को सेंकने लगा-राजन की आँखों में आँसू भर आए, वह बोला-
‘कुंदन शायद यह भी मेरे प्रेम की कोई परीक्षा है।’
‘तुम तो पागल हो गए हो। मेरी मानो तो यहाँ से कहीं दूर चले जाओ। जो जीवन बचा है, उसे यूँ क्यों समाप्त किए देते हो।’
‘कुंदन तू समझता है मैं शायद इन पहाड़ी बटेरों से डर गया हूँ और यह मुझे चैन से न जीने देंगे-परंतु मुझे किसी का भी डर नहीं। यह लोग मुझे चाहे जितना बुरा क्यों न समझें, परंतु पार्वती तो मुझे कभी गलत न समझेगी।’
‘राजन तुम भूल कर रहे हो-बुरा समय पड़ने पर छाया भी तो साथ नहीं देती।’
‘कुंदन, अभी तूने इस दिल को परखा नहीं। तू क्या जाने जब माधो मुझ पर बरस रहा था तो पार्वती के दिल पर क्या बीत रही थी, परंतु बेचारी समाज के ठेकेदारों के सम्मुख कुछ बोल न सकी।’
‘राजन अब तुम इस संसार को छोड़ दूसरे संसार में जा पहुँचे हो, जिसे पागलों की दुनिया कहते हैं, परंतु पागल होने से पहले थोड़ा विश्राम कर लो तो अच्छा ही होगा।’
यह कहते हुए उसने राजन पर कम्बल ओढ़ा दिया और बाहर जाने लगा। राजन उसे देखकर मुस्कराया और बोला-
‘कुंदन यदि मैं पागल हूँ तो भी बुरा नहीं।’
कुंदन ने दरवाजे के दोनों किवाड़ बंद करने को खींचे और बाहर जाने से पहले बोला-
‘भाई! मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि धरती पर रहने वाला जब पक्षियों को देख आकाश पर उड़ने का प्रयत्न करता है तो लड़खड़ाकर ऐसा गिरता है कि उसका रहना भी दूभर हो जाता है।’
उसके जाने के बाद राजन देर तक बंद दरवाजे को देखता रहा। उसके सामने बार-बार एक सूरत आती, जिसके चेहरे पर यह प्रश्न लिखा था कि अब उसका क्या होगा? फिर वह सोचने लगता कि कहीं वह भी तो मुझे गलत नहीं समझती, फिर वह पागल-सा हो उठता।
आखिर वह दोपहर को उठा और धीरे-धीरे मकान से बाहर आ हरीश के घर की ओर जाने लगा। ‘वादी’ में सिवाय बच्चों के कोई दिखाई नहीं देता था। सब अपने-अपने काम पर गए हुए थे।
जब वह पार्वती के घर पहुँचा तो घर में वह अकेली थी। उसे देखते ही वह झट से अंदर चली गई। जब वह सीढ़ियाँ चढ़ दरवाजे के समीप पहुँचा तो पार्वती ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और बेचैन हो दरवाजे का सहारा ले खड़ी हो गई।
राजन बंद दरवाजे के समीप जाकर धीरे-से बोला-
‘पार्वती! सबके सामने मैंने आना ठीक न समझा, दुर्घटना पर मुझको बहुत दुःख है।’
पार्वती चुप रही। राजन दबी आवाज में फिर बोला-
‘शायद तुम मुझसे नाराज हो-किसी ने मौका भी तो नहीं दिया कि सब कुछ तुमसे कह सकूँ।’
‘मुझे कुछ नहीं सुनना। तुम यहाँ से चले जाओ।’
यह शब्द राजन के दिल में काँटों की तरह चुभे। उसे लगा जैसे किसी ने उसके माथे पर हथौड़ा मारा हो। वह फिर बोला, ‘पार्वती! तुम भी तो कहीं दूसरों की बातों में नहीं आ गईं।’
दरवाजा खोल पार्वती आँखों में आँसू लिए खामोश-सी राजन को देखने लगी। ‘अब क्या रखा है यहाँ।’ वह टूटे हुए शब्दों में बोली-‘तुम्हारी अग्नि अभी बुझी नहीं, परंतु यहाँ तो सब राख हो चुका है।’
‘यह तुम क्या कह रही हो पार्वती?’
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