RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ७)
उस के बाद पूरे ५ दिन फिर कुछ नहीं हुआ | कोई भी संदिग्ध गतिविधि नहीं हुई | ना तो चाची के तरफ़ से और ना ही कहीं किसी और से | हालाँकि चाची थोड़ी खोयी खोयी सी लगी ज़रूर, जोकि वैसे भी वो पिछले कुछ दिनों से लग रही थी | पर आज कुछ अलग भी लग रही थी | सुबह घटी घटना के बाद से जितनी बार भी उनका चेहरा देखा, कुछ अजीब सी भावनाओं को हिलोरें मारते देखा | और अगर मैं गलत नहीं हूँ तो शायद वो अपराधबोध से ग्रस्त हो रही थी | शायद उन्हें ये भली भांति पता है की जो भी वो कर रही हैं वो सरासर गलत है, पाप है | पर जो कुछ हो रहा है और आगे जो कुछ भी होने वाला है, उसे वो चाह कर भी नहीं रोक सकतीं | चिंताएँ तो मुझे भी बहुत रही थी पर उसे भी कहीं अधिक मुझे कुछ जिज्ञासाओं ने घेर रखा था --- और जिज्ञासाएँ थीं, पिछले तीन दिन और आज चाची के साथ होने वाले घटनाक्रमों के बारे में जानने की .... और इन घटनाक्रमों के बारे में बता कर मेरी जिज्ञासाओं को शांत करने का सामर्थ्य जिसमें था वो थी मेरी चाची; जो खुद किसी दुष्चक्र में फंसी हुई सी प्रतीत हो रही थी | अब ये दुष्चक्र वाकई में इन्हें फंसाने को लेकर था या फिर इन्हीं के किन्ही कर्मो का प्रतिफल; वो या तो चाची खुद बता सकती थी या फिर आने वाला समय और फ़िलहाल ये समय चाची के साथ सवाल जवाब करने लायक तो बिल्कुल नहीं था... इसलिए आने वाले समय की प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई चारा न था अभी |
लेकिन अभी एक-दो दिन ही हुए होंगे की ,
मैं देख रहा हूँ;
कभी सुबह, कभी शाम ... तो कभी दोपहर को ...
एक न एक गाड़ी; कभी कोई वैन, कभी जीप, तो कभी कोई और चार पहिया वाहन ... जोकि बहुत संदिग्ध लगती हैं;
हमारे घर के आस पास एक राउंड लगा जा रही है...
एकाध बार तो गाड़ियों को कुछ मिनटों के लिए रुकते भी देखा ...
मैंने भी कोशिश की कि,
उन गाड़ियों को देखूँ, गाड़ी वाले को देखूँ ... चाहे दूर से संभव हो या पास से ---
पास जाने का तो कोई मौका हाथ लगा नहीं पर;
बालकनी से पौधों को पानी देने या अन्य किसी कार्य हेतु वहां आना जाना कर के कुछेक बार कोशिश किया कि पता तो चले की कहीं कुछ संदिग्ध है भी या सिर्फ़ मेरे मन का भ्रम है ----
पर असफ़लता हाथ लगी ,
एक तो गाड़ियों के खिड़की वाले सभी शीशे काले थे ;
दूजा, जब भी बालकनी पहुँच कर मुश्किल से मिनट – दो मिनट गुज़ारा होऊँगा --- मौजूद गाड़ी वहां से निकल जाती |
पर इसके बावज़ूद भी जो एक अच्छी बात हुई, वह यह कि मुझे बालकनी में पहुँचते ही उन गाड़ियों के वहाँ से निकल जाना अपने आप ही इस बात की पुष्टि करता है की जिस संदिग्धता की बात में सोच रहा था; वह कोई व्यर्थ बात नहीं थी !
हालाँकि,
कुछेक बार किसी बहाने गाड़ी के चले जाने के बाद उस स्थान पर जा कर चेक करने की भी सूझी...
किया भी,
पर सिवाय सिगरेट के एक-दो टुकड़ों के अलावा और कुछ हाथ न लगा ---
कुछ कर तो सकता नहीं ;
‘फ़िलहाल’
इसलिए थोड़ा शांत रहना ही उचित समझा ---
कहते हैं की जब मनुष्य कोई बड़ा या गंभीर अपराध या पाप कर बैठता है और फिर उसे छुपाने का भरपूर प्रयास भी करता है, तब उसके चेहरे के हाव भाव, उसका उठना बैठना, उसके शारीरिक गतिविधि इत्यादि सब कुछ उसके बारे में कोई न कोई संकेत देना प्रारंभ कर देते हैं --- और फ़िलहाल ऐसा ही कुछ हो रहा था चाची के साथ.. रात में चाचा ने अचानक पूछ ही लिया चाची के स्वास्थ्य के बारे में |
चाचा – “दीप्ति, तुम ठीक हो ना? कुछ दिन से देख रहा हूँ की तुम कुछ खोई खोई सी, उदास सी हो... कोई परेशानी है?”
चाची – “अरे नहीं .... कुछ नहीं... काम करते करते कभी कभी ऐसा हो जाता है... आप फ़िक्र मत कीजिए ... कुछ होगा तो सबसे पहले आपको ही बताउंगी...|” बड़ी ही प्यारी सी स्माइल चेहरे पे ला कर बोली | चाचा शायद पिघल गए चाची की मोहक मुस्कान देख कर ....
चाचा – “ यू श्योर ??... पक्का कुछ नहीं हुआ है?”
इसपर चाची ने चेहरे पर हल्का गुस्सा ला कर चाचा के बहुत करीब जा कर अपने वक्षों को थोड़ा ऊपर कर, चाचा के छाती से हल्का सा सटाती हुई आँखों में आँखें डाल कर बोली, “अच्छा.... तो अब आपका हम पर भरोसा भी नहीं रहा...?”
चाची की इस अदा पर चाचा तो जैसे सब भूल ही बैठे... चाची को उनके कमर से पकड़ कर अपने पास खींच उनके होंटों पर अपने होंठ ज़रा सा टच करते हुए गालों पर किस किया और बड़े प्यार और अपनेपन से कहा, “ तुमपे भरोसा ना करूं ... ऐसा कभी हो सकता है क्या भला....??”
इसके बाद दोनों ने झट से एक दूसरे को गले से लगा लिया और बहुत देर तक वैसे ही रहे | फिर एक दूसरे से अलग होकर अपने अपने काम में लग गए... मैं बहुत दूर से उन्हें देख रहा था... दोनों का आपस में प्यार देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा... पर साथ में बुरा भी... बुरा दोनों के लिए लगा... एक तो चाची के लिए... और दूसरा चाचा के लिए, कि उनकी बीवी, उनकी धर्मपत्नी उनके पीठ पीछे क्या ‘गुल खिला रही है ’ --- या फ़िलहाल के लिए यूँ कहें कि ‘गुल खिलाने की लिए विवश है ’ |
रात का खाना हम सबने साथ ही खाया.. चाचा अपने धुन में खाना सफ़ाचट कर रहे थे... और चाची बीच बीच में आँखों में उदासी लिए चाचा को देखती और आँखें नीची कर खाना खाती...| मैं सिवाए देखने के और कुछ भी नही कर सकता था...
...... कम से कम इस समय ..... |
क्रमशः
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