RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ९)
अपने सामने हथियारों का जखीरा देख कर मैं दंग था --- हाथ और होंठ काँप उठे थे ----- शरीर के सभी जोड़ जैसे ढीले पड़ने लगे ---- माथे पर पल भर में ही छलक आईं पसीने की बूँदों को हाथ से पोछा और बड़ी सावधानी से काँपते हाथों से मैंने अलमीरा के दरवाजों को लगाया | फिर वहीं पास में ही रखे एक छोटे से स्टूल पर सिर को दोनों हाथों से पकड़ कर बैठ गया | कमरे में मौजूद सभी चीज़ें जैसे जोर ज़ोर से मेरे चारों ओर चक्कर काट रहे थे | घबराहट और डर के कारण मेरा दिल किसी धौंकनी की तरह जोरो से चल रहा था | मैंने वहां अधिक समय बिताना उचित नहीं समझा, आगे का क्या सोचना है और क्या नहीं, ये सब तो यहाँ से निकल कर घर पहुँचने के बाद ही सोच पाऊंगा | फ़िलहाल इतनी बात तो मेरे को बिल्कुल अच्छे से समझ में आ गयी थी की चाची एक बहुत ही बड़ी और पेचीदे मुसिबत में फंसी है और बहुत जल्द इसकी आंच हमारे परिवार पर आने वाली थी | खास कर मैं जिस तरह से इस मुसीबत का पता करने के लिए पीछे पड़ा था, कोई शक नही की चाची के बाद अगला शख्स मैं ही होऊँगा इस भँवर में फँसने वाला .......
खुद को संभालते हुए किसी तरह खड़ा हुआ | हवाईयाँ तो अब भी चेहरे की उड़ी हुई थीं | गला भी सूख गया था | मुँह में बचे खुचे थूक को गटक कर गले को भिगाने की कोरी कोशिश करते हुए रूम से बाहर कदम रखा | जिस अदम्य साहस का परिचय देते हुए मैं यहाँ तक आया था, अब बाहर जाने के लिए वो साहस बचा नहीं | लड़खड़ाते कदमों से सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ा ही था कि तभी बाहर से किसी की आवाज़ आई --- मेरे कान खड़े हुए --- इधर उधर देखा --- छुपने का कोई जगह नहीं था --- बस ये सीढ़ी थी जो पीछे से आधी अधूरी बनी थी --- मैं जल्दी से सीढ़ी के पीछे छिप गया --- |
बाहर दुकान का गेट खुला... शायद एक से अधिक आदमी थे | कुछ बातें कर रहे जो उनके थोड़े दूर होने के कारण मुझे ठीक से सुनाई नहीं दे रहे थे | थोड़ी ही देर में लगा जैसे दो जोड़ी जूते इधर ही बढे आ रहे हैं | सीढ़ियों के कुछ पास आ कर रुक गए | आवाजों से लगा जैसे वे दोनों वहीँ सीढ़ियों के पास स्टूल या चेयर ले कर बैठ गए हैं | मेरी घबराहट और बेचैनी बढ़ी ... पता नहीं अब आगे क्या हो ? मैंने कान लगा कर उनके बातों को सुनने का कोशिश किया ... बातें सुनाई भी दे रहे थे पर समझ में बिल्कुल नहीं आ रहे थे | पता नही कौन सी भाषा थी | जो भी थी, इतना तो तय था की ये लोकल भाषा नहीं थी और हिंदी तो बिल्कुल भी नहीं |
तभी तम्बाकू सी गंध आई --- सिगरेट की नहीं थी... बीड़ी की ही होगी तब जो उन दोनों ने सुलगाई होगी --- दोनों कश लगाते हुए हँसते हुए बातें कर रहे थे ... बीच बीच में उनकी बातें कुछ अजीब सी हो जाती | समझ में तो नहीं आ रही थी पर ये अंदाज़ा लगाना आसान था की वे दोनों बीच बीच में किसी विषय पर बातें करते हुए काफ़ी उत्तेजित हो जा रहे थे | अब इतनी देर में मैं इतना ये तो समझ ही गया था की ये लोग शरीफों की श्रेणी में नहीं आते हैं, और अब चूँकि इनकी बातों को भी समझना आसान नहीं था इसलिए मैंने अच्छे से कान लगा कर उनके बातों पर गौर करने लगा | जितना संभव हो सका उतना कोशिश किया बातों को दिमाग में बैठाने का | काफ़ी देर बैठने के बाद वो दोनों उठ कर दुकान से बाहर निकले और बाहर से ताला लगा दिया |
मैंने कुछ देर और वेट किया .... बाहर से आवाज़ बिल्कुल नहीं आ रही थी ... मैंने अब अपने रिस्ट वाच पर नज़र डाला... माय गॉड .!! ढाई घंटे से ज़्यादा समय निकल गया था ! जैसे घुसा था बिल्डिंग में, वैसे ही निकला वहां से | छुपते छुपाते मोहल्ले से निकला, चाय वाले के पास पहुँचा... दो ग्लास पानी पी कर चाय मँगाई और सिगरेट सुलगा कर वहाँ पास रखे बेंच पर बैठ गया |
दो मिनट में ही चाय हाथ में था .... चुस्कियां और कश ले ले कर अभी तक घटे सभी घटनाक्रमों को सिलसिलेवार से सोचने लगा ...इस उम्मीद से की शायद कहीं से कोई सुराग मिल जाए.. | कभी कभी बहुत बारीक सी चीज़ भी कई तथ्यों और बातों पर से पर्दा उठाने के लिए काफ़ी होता है | पर आँखें सही देख पाए और अगर दिमाग सही सोच पाए तो ज़्यादा भटकना नहीं पड़ता है | सिगरेट के अंतिम कश के साथ ही मुझे एक उपाए सूझा...
चाय वाले से सिगरेट का एक खाली पैकेट और बगल में खड़े एक लड़के से पेन माँग कर; उस पैकेट को फाड़ कर, सफ़ेद वाले खुरदुरे हिस्से में अभी कुछ देर पहले उन दोनों आदमियों की सुनी बातें को याद कर कर के लिखने लगा | पांच-छ: वाक्य लिखने के बाद पैकेट को मोड़ कर पॉकेट में संभाल कर रखा और पेन उस लड़के को देते हुए अपने स्कूटर की तरफ़ आगे बढ़ गया | चार कदम चला ही था की पीछे से चाय वाले ने बुलाया ... “बाबू.. ओ बाबू...”
मैं पीछे पल्टा .. चाय वाला मुस्कुराते हुए उँगलियों से कुछ इशारे कर रहा था .... ‘ओह्ह’... कहते हुए मैं उसके तरफ़ बढ़ा ..| अपने ही बातों में उलझे रहने के कारण उसे पैसे देना भूल गया था ; जब उसे पैसे दे रहा था तब उसे देखा... वो मेरी तरफ़ ही देख रहा था .. कन्फ्यूज्ड सा.. मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और पैसे देकर स्कूटर से वापस घर आ गया |
चाची अभी भी नहीं लौटी थी ... खाना खाकर कुछ देर के लिए लेट गया --- थके होने के कारण आँख लग गई | जब खुली तो शाम के सवा पांच बज रहे थे .... हाथ मुँह धोकर खुद के लिए कॉफ़ी बनाने किचेन जाने के लिए नीचे उतरा | उतरते ही देखा की सामने ड्राइंग हॉल में टीवी चल रही है और सामने सोफे पर चाची बैठी हुई थी ! मैं हैरान होता हुआ चाची के पास गया,
“अरे चाची... आप कब आईं...??”
चाची ने मेरी ओर देख कर एक स्माइल दी और बोली,
“पंद्रह – बीस मिनट पहले.. डोर बेल बजाई थी पर तुम सो रहे थे.. इसलिए खुद ही दरवाज़ा खोल कर अन्दर आई.. एक्स्ट्रा की तो मेरे पास थी ही |”
मैंने चाची को अच्छे से देखा.. ड्रेस चेंज कर लिया था उन्होंने.. साथ ही साड़ी कुछ इस तरह से पहनी थी की लगभग सभी अंग ढके हुए थे --- बस गले के साइड में एक लाल निशान सा देखा | बिल्कुल वैसा ही मिलता जुलता निशान जो दो-तीन दिन पहले मैंने चाची की पीठ पर देखा था ...!
क्रमशः
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