RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग १८)
कुछ ही देर बाद चाची नहा धो कर बाथरूम से निकली ---
तब तक मैं अपने कमरे में पहुँच चुका था ...
अभी कुछ देर पहले जो कुछ देखा, उससे अभी भी आश्चर्य और असमंजस की स्थिति में था |
चाची का यूँ बैग छुपा कर रखना और उस बैग से ऐसे कपड़ों का मिलना चाहे और कुछ भी हो, कम से कम संयोग तो हरगिज़ नहीं हो सकता है ... तो क्या चाची इन कपड़ों को बाहर कहीं पहनती है? और अगर पहनती भी होगी तो क्यों और किसलिए?
और सबसे बड़ा प्रश्न – किसके लिए?
पौन घंटे बीता होगा कि चाची की आवाज़ आई,
“अभयssss..!! मैं मार्किट के लिए निकल रही हूँ | दरवाज़ा लगा दो.... शाम में लौटूँगी |”
मैं तो उनके निकलने के ही इंतज़ार में था ---
चाची एक गहरी नीली फ्लोरल साड़ी और मैचिंग शॉर्ट स्लीव ब्लाउज पहन कर, पिछवाड़ा मटकाते हुए घर से बाहर निकली | आज उनके स्तन युगल भी साड़ी के नीचे से थोड़े तने हुए से लग रहे थे ... उनके वक्षों के तने हुए होने की बात मैंने पिछले पाँच-छह दिनों से नोट किया था पर सही तरह से ध्यान आज दे पाया | उनके वक्ष तो सदैव ही से मुझे बेहद आकर्षक लगते रहे हैं; पर इन दिनों बात कुछ बदले – बदले से हैं .... और इतना ही नहीं, उनके चेहरे की रंगत भी कुछ खिली खिली सी लग रही है पिछले कुछ दिनों से --- चेहरे पर थकान बहुत ज़्यादा होने के कारण शायद मैंने या चाचा ने पहले नोटिस नही किया हो पर अब मैंने ये भी नोट कर लिया ... चाचा का मुझे पता नहीं |
खैर, मैं भी अगले पांच मिनट में तैयार हो कर घर का दरवाज़ा लॉक कर लपका चाची के पीछे | स्कूटर निकाल कर चाची के पीछे हो लिया | मोड़ के पास पहुँच कर देखा कि चाची एक पेड़ के नीचे खड़ी है और बार बार अपना रिस्ट वॉच देख कर सड़क के दाएँ - बाएँ देख रही है |
‘ह्म्म्म....किसी के आने का इंतज़ार हो रहा है |’ मैंने मन में सोचा ....
कुछ ही सेकंड्स के अन्दर एक काली वैन आकर चाची के सामने रुकी और चाची पलक झपकते ही उसमें बैठ गई |
‘अरे, ये तो वही वैन है |’ – सहसा मेरे मुँह से निकला .... मेरे इतना कहते कहते वैन आगे बढ़ चुकी थी --- अब और कुछ सोचने का समय न था |
पीछा करने के उद्देश्य से मैंने स्कूटर पर किक लगाया ; पर वह स्टार्ट नहीं हुआ ---
तीन – चार बार ऐसे ही किक मारा पर वह स्टार्ट न हुआ ...
झल्लाकर मैंने स्कूटर को बगल के एक दुकान के सामने खड़ी कर; दुकान वाले को उसपे ज़रा ध्यान देने को बोलकर सड़क को पार कर उसी जगह पहुँचा जहां थोड़ी देर पहले चाची थी और आने वाले हर टैक्सी को रुकने का इशारा करने लगा | तीन टैक्सी बिना रुके – देखे निकल गई और इधर मारे झुँझलाहट के मेरा पारा धीरे धीरे चढ़ने लगा था --- |
अभी एक और टैक्सी को रूकने का इशारा करता; उससे पहले ही एक नीली वैन आकर ठीक मेरे सामने रुकी | उसके शीशों पर काली फिल्म चढ़ाई हुई थी इसलिए अन्दर कौन बैठा या बैठे हैं ये जानना मुश्किल था --- अपने सामने एक अनजानी गाड़ी को अचानक से यूँ आकर खड़ी होते देखकर मुझे बेहद आश्चर्य भी हुआ और डर भी लगा ....
इससे पहले की मैं कुछ सोचता, ड्राईवर के बगल वाली सीट वाला कला शीशा नीचे हुआ......
अन्दर उस सीट पर आँखों पर काला चश्मा लगाए, होंठों में एक लम्बी सी सिगार सुलगाए एक आदमी बैठा था --- बिना कुछ बोले एक कागज़ का टुकड़ा बढ़ाया मेरी ओर उसने ---- कागज़ पर लिखे शब्दों को पढ़कर मैं आश्चर्य से उस आदमी को देखा |
जवाब में आदमी ने भावहीन चेहरा बनाए, सिर को ज़रा सा हिलाकर पीछे की ओर इशारा किया और इसके साथ ही वैन का पीछे का दरवाज़ा खुल गया --- उस कागज़ के टुकड़े को हाथ में मरोड़कर मुट्ठी में भींचते हुए मैं चुपचाप वैन के अन्दर बैठ गया --- मेरे बैठते ही वैन का दरवाज़ा बंद हुआ और वैन अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा |
(चाची कहाँ गई..? अपने मर्ज़ी से गई या किसी मजबूरी में...? वो नीला वैन किसका था और वो आदमी कौन था? कागज़ को पढ़कर अभय क्यों चौंका? वैन अभय को लेकर कहाँ गई??.................. जानने के लिए जुड़े रहिए इस कहानी के साथ |)
क्रमशः
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