Kamukta kahani अनौखा जाल
09-12-2020, 12:46 PM,
#21
RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग २१)

बहुत ही पीड़ा के साथ आँख धीरे धीरे खोल पाया मैं ... सिर के दाएँ तरफ़ अभी भी बहुत दर्द है --- और दर्द भी ऐसा के दर्द के मारे मुँह से ‘आह’ भी नहीं निकल रहा है | जहाँ पर लेटा था मैं, वहीँ से लेटे लेटे ही अपने चारों और नज़र घूमाया | आसपास के चीज़ों को देखने के बाद मैं समझ गया कि मैं इस समय एक अस्पताल में हूँ --- अस्पताल में होने का ख्याल आते ही मेरा हाथ अनायास ही सिर पर चला गया; ठीक उसी जगह जहाँ दर्द हो रहा था चोट के कारण .. हाथ लगाकर अनुभव किया की पट्टी बंधा था --- वाह! अर्थात मेरा उपचार भी हो गया ! उठने की कोशिश करने के बावजूद भी उठ न सका मैं --- बहुत कमजोर-सा फील कर रहा था --- चुपचाप लेटा रहा --- थोड़ी ही देर बाद उस रूम के दरवाज़े पर एक हलकी सी आहट हुई .. मैं पूर्ववत आँख बंद कर चुपचाप पड़ा रहा |

‘खट खट’ सी आवाज़ हुई रूम में .. चलने की आवाज़ थी और आवाज़ से ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि ये हील की आवाज़ है और रूम में एक लड़की/ औरत आई है | मेरे बगल के कुर्सी और टेबल के थोड़ा इधर उधर होने की आवाज़ आई | फ़िर, वो जो कोई भी थी; मेरे पास आ कर कुछ देर खड़ी रही | न जाने ऐसा क्यूँ लग रहा है की वो बगल में खड़ी हो कर मुझे ही देखे जा रही है | तीन-चार मिनट वहां रह कर वो वापस बेड के मेरे पैरों के पास से होते हुए मेरे दूसरे ओर आकर सिरहाने खड़ी हो गई और आसपास की चीज़ों के साथ कुछ करने लगी ; फिर प्लास्टिक फाड़ने की आवाज़ आई ---

दो सेकंड बाद ही ‘टन टन’ से एक छोटी सी शीशी के बजने की आवाज़ आई .... | थोड़ी सी शांति छाई रही | फ़िर अचानक से मुझे मेरे दाएँ बाँह पर एक बहुत तेज़ चुभन सी महसूस हुई | मुँह से कराह निकलने को रहा पर किसी तरह मुँह बंद रखने में सफल हुआ | ‘खट खट’ सी आवाज़ फिर हुई | वो जो भी थी, अब वापस जा रही थी .... इधर मेरा दिमाग धीरे धीरे सुन्न होने लगा... हाथ तो छोड़िये, अँगुलियों तक की हरकत बंद हो गयी ... मैं धीरे धीरे अपनी चेतना फिर खो बैठा... सो गया |

“कम ऑन ... पागल हो गये हो क्या... तुम्हे पता भी है की तुम क्या कह रहे हो?”

“हाँ, पता है.. पूरे होश में हूँ और इसलिए कह रहा हूँ | तुम मेरी बात समझने की कोशिश करो |”

मेरी नींद टूट चुकी थी -- मुश्किल हो रही थी आँख खोलने में अभी भी ... पर कानो को बहुत कुछ साफ़ सुनाई देने लगा था ... मैंने बिना हिले डुले कानो को उन बातों पर लगा दिया जो शायद मेरे आसपास कहीं हो रही थी ... दो आदमी बात कर रहे थे, एक बड़ा शांत था तो दूसरा बेहद उत्तेजित -- कोई ऐसा मुद्दा था जिसपे बहस चल रही थी |

“नहीं.. नहीं... बात समझने की कोशिश तुम करो.. तुम्हें पता है न बॉस का क्या हुक्म है ... साफ़ लफ़्ज़ों में कहा है उन्होंने की इस लड़के की शिनाख्त करने के बाद इसके बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी जुटाया जाए और फिर काम ख़त्म होने के बाद इसे भी सलटा दिया जाए | ”

ये बात मेरे कानों में पड़ते ही मैं चौंक सा उठा | ‘सलटा दिया जाए?!’ यानि के मुझे मार देने की योजना चल रही है ??!! ओह्ह!! हे भगवान... ये कहाँ आ फंसा मैं ?

“मुझे अच्छी तरह से याद है कि बॉस ने क्या कहा है... मैं बस एक-दो दिन इसलिए रुकने को कह रहा हूँ ताकि इसे होश आने के बाद हम इससे कुछ और जानकारियाँ निकाल सकें | ज़रा ये भी तो सोचो की जो लड़का किसी ऐसे होटल में, जहाँ हर समय बड़े बड़े माफ़ियाओं और उनके चमचों का जमावड़ा लगा रहता हो, नशीली चीज़ों का और हथियारों का स्मगलिंग होता हैं, देह व्यापार होता है... वहां सकुशल पहुँच कर हर तरफ़ जासूसी कर के वापस जा रहा था... कैसे? इतनी आसानी से कैसे... ज़रूर इसके और भी साथी होंगे... कौन होंगे वो... वगेरह वगेरह... ये सब जानना हमारे लिए बहुत ही ज़रूरी है | ”

“ह्म्म्म... तुम ठीक कहते हो... ये सब जानना भी ज़रूरी है...पर ज़्यादा दिन इसे रख नहीं सकते... एक काम करते हैं.. और तीन दिन देखते हैं.. अगर इसे होश आ गया तो ठीक है... नहीं तो इसे इसके बेहोशी में ही खत्म कर देंगे... ठीक??”

“हाँ, ठीक है...| ”

जूतों की आवाज़ हुई... जाने की...| वे दोनों वहां से जा चुके थे |

और मैं इधर चुपचाप लेटा अपने हालत के बारे में सोचने पर मजबूर था | क्या हो रहा है... क्या होगा...कौन हैं ये लोग... और मैं खुद कहाँ हूँ... कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था | मैं अपना एक हाथ अपने चेहरे पर ले गया... नकली दाढ़ी मूंछ नहीं थी ! ओफ्फ़!! चोरी पकड़ी गयी मेरी... और वो भी गलत लोगों के हाथों..!

--------------------

अगले दो दिन तक मैं लेटा लेटा, आँखें बीच बीच में खोल कर कमरे और वहां आस पास के माहौल का जाएजा लेता रहा | बहुत कुछ नहीं भी तो खुद को वहां एडजस्ट करने लायक मान ही चूका था मैं | पर अभी तक ये समझ नहीं आया था कि मैं ये कहाँ और किन लोगों के साथ हूँ | इतना तो तय था की मैं हूँ किसी अस्पताल में, पर हूँ किन लोगों के बीच??

तीसरा दिन ...

सोच ही लिया हूँ की जैसे भी हो आज तो यहाँ से भाग कर रहूँगा ही | पिछले दो दिनों में मैंने एक बात नोटिस किया कि, एक वार्ड बॉय आता है मेरे कमरे में, यहाँ वहां देख कर सब चेक करता है और मेरे पैरों से थोड़ी दूर; दरवाज़े के पास रखे एक व्हील स्ट्रेचर को निकाल कर बाहर ले जाता है | सफ़ेद व्हील स्ट्रेचर पर रखा सफ़ेद चादर इतना बड़ा/लम्बा होता है कि स्ट्रेचर का निचला हिस्सा दिखाई ही नहीं देता है | अगर मुझे यहाँ से निकलना है तो इसी स्ट्रेचर के सहारे ही संभव है -- मेरे दिमाग में तरकीब सूझी |

दोपहर बारह से दो बजे तक मेरा रूम बिल्कुल खाली रहता है ..

बारह बजे से कुछेक मिनट पहले नर्स पानी और फल वगैरह रख कर चली जाती है .. फिर साढ़े बारह बजे वार्ड बॉय फिर आता है और स्ट्रेचर लेकर चला जाता है |

मेरे ही रूम में दो और मरीज़ थे .. जो एक दिन पहले ही एक साथ ही अपने अपने परिवार वालों के साथ चले गए थे | अब उस कमरे में मैं अकेला बन्दा था अब |

बारह बजे का इंतज़ार करने लगा ...

ठीक ग्यारह बज कर पचास मिनट पर एक नर्स अन्दर दाखिल हुई | मैं अधखुली आँखों से लेटा हुआ था | अधखुली तिरछी नज़रों से नर्स पर गिद्ध की तरह नज़र जमाये था |

पानी-फल रख कर वो वहां से चली गई |

----------------------

सामने की दीवार घड़ी पर नज़र दौड़ाया...

सवा बारह बज रहे हैं |

बिल्कुल सही समय है अपनी योजना पर काम करने का |

तपाक से बेड पर से उठा ... खिड़की के पास जाकर खड़ा हुआ -- बिना ग्रिल या लोहे की छड़ों वाली खिड़की थी -- खिड़की से थोड़ी नीचे एक छज्जा सा बना हुआ है... शायद नीचे एक और खिड़की होगी -- अपने दाएँ तरफ़ देखा -- वहां एक और खिड़की है ... मैं सीधा हो कर अपने रूम के दाएँ तरफ़ देखा, बाथरूम था -- मतलब बाथरूम में भी एक अच्छा खासा बड़ा सा खिड़की है ... अमूमन ऐसा होता नहीं है ... पर....

खैर, अधिक सोचने लायक समय नहीं था मेरे पास ... पर मेरा तरकीब कहीं न कहीं काम करने वाली थी यहाँ |

मैं जल्दी से बाथरूम में घुसा ; एक बाल्टी लिया .. नल के नीचे लगाया और नल चला दिया ... पानी मध्यम गति से बाल्टी में गिरने लगा और अब बाथरूम का दरवाज़ा अन्दर से लॉक कर दिया |

बाथरूम का खिड़की खोला ..

और लपक कर खिड़की से बाहर आ गया --

किसी तरह नीचे के छज्जे पर काँपते पैरों से संतुलन बना कर खड़ा था | दीवारों पर बने उभारदार बाउंड्री को पकड़ किसी तरह आगे बढ़ने लगा .... अपने रूम की खिड़की के नीचे के छज्जे की तरफ़... कष्ट तो हुआ बहुत | हाथ भी छिल गए ..पर अभी मेरा पूरा फोकस अपनी योजना को सफल बनाने पर था |

कुछ ही मिनट में मैं अपने रूम की खिड़की के पास था | वहाँ से नीचे देखने का साहस नहीं था मुझमे | बहुत ही उंचाई पर था मैं ... ज़रा सा पैर फ़िसला... और चला जाता मैं सीधे नीचे ... एकदम नीचे ..और... और एक झटके से हमेशा हमेशा के लिए ऊपर पहुँच जाता |

खिड़की के निचले हिस्से को पकड़ कर, अपने हाथों पर बल देते हुए खुद को थोड़ा ऊपर उठाया और अपने शरीर को एक हल्का झटका देते हुए सीधे रूम के फर्श पर जा गिरा | कोहनी में हलकी चोट आई पर खुद को संभालता हुआ जल्दी से दरवाज़े के पास रखे व्हील स्ट्रेचर के पास पहुँचा और उसपर पड़े उस बड़े से सफ़ेद चादर को उठा कर व्हील स्ट्रेचर के नीचे बने जगह में खुद को एडजस्ट कर लिया --- जगह भी ऐसी थी की एक लम्बा आदमी आराम से अपने पैर पसार कर लेट जाए वहां |

अब सिर्फ सही समय की प्रतीक्षा थी ..

कुछ ही देर बाद,...

दरवाज़ा खुला...

वार्ड बॉय अन्दर आया....

अन्दर घुस कर दो – तीन कदम चलते ही ठिठका....

कुछ क्षण रुक कर लगभग दौड़ते हुए बाथरूम की ओर गया ...

मैं चादर की ओट से एक आँख से देख रहा था...

दरवाज़ा धकेला... खुला नहीं...

खटखटाया ...

कोई आवाज़ नहीं... सिवाए पानी गिरने के.....

फिर कुछ पल बाथरूम के दरवाज़े से कान लगाए खड़ा रहा |

फिर थोड़ा निश्चिंत सा प्रतीत होता हुआ वो घूमा और कमरे की कुछेक चीज़ों को ठीक कर स्ट्रेचर को ले कमरे से बाहर आ गया !

मैंने राहत की सांस ली... पर अभी मंजिल दूर था |

एक बड़े से कॉरिडोर को पार करते हुए स्ट्रेचर हल्का सा मुड़ते हुए दूसरे कॉरिडोर में आ गया ....

अभी कुछ कदम आगे बढ़ा ही था कि अचानक से एक ज़ोर का ‘धकक्क’ से आवाज़ हुआ | मैंने वार्ड बॉय के कदमों की ओर देखा... ऐसा लगा जैसे की वो पीछे की ओर खींचा चला जा रहा है , जैसे कोई उसे खींच कर ले जा रहा हो ....

मेरा मन किसी घोर आशंका से भर उठा ... थोड़ी देर के चुप्पी के पश्चात अचानक से मेरे स्ट्रेचर को धक्का लगा... कोई उसे आगे ले जा रहा था | मैं आगे देखा... और चौंका... क्योंकि अब मुझे किसी वार्ड बॉय के पैरों के स्थान पर एक लड़की के दो टांगें दिख रही थी... ड्रेस से अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं हुआ कि ये शायद कोई नर्स होगी |

पर कौन.... एक जगह रुक कर मेरे सिरहाने के तरफ़ का चादर थोड़ा उठा और एक पैकेट दिया गया... और साथ ही एक लड़की की आवाज़ आई... “जल्दी ये लगा लो... दस सेकंड में...| ”

बिना कुछ सोचे मैंने जल्दी से पैकेट खोला और खोलते ही हैरान हो गया...

उस पैकेट में नकली दाढ़ी मूंछ और एक काला चश्मा था ....!

कुछ देर बाद मैं और वो लड़की एक लिफ्ट में थे... मैं एक व्हीलचेयर में बैठा था...नकली दाढ़ी मूंछ लगाए... बदन पर एक बड़ा सा शॉल लपेटे... |

लिफ्ट से बाहर आते ही दो आदमी हमारे पास आये...

मुझे सहारा दे कर उठाया...और अस्पताल ले बाहर ले आए |

उनके बाहर आते ही एक कार आ कर रुकी...ठीक हमारे सामने...

और फ़िर उन दोनों आदमी ने मुझे उस कार में ले जाकर पीछे की सीट पर लिटा दिया |

लेटे लेटे मैंने अस्पताल के ऊपरी मंजिल की ओर देखा, लगा जैसे थोड़ी अफरा तफरी सी लगी हुई है | शायद मेरे वहां न होने का उन लोगों को पता चल गया है | मैंने सर थोड़ा उठा कर आगे की सीट पर देखा... धक् से दरवाज़ा बंद हुआ.. ड्राइविंग सीट पर एक लड़की आ कर बैठी | कार तुरंत स्टार्ट हुआ... दोनों आदमी बाहर ही रहे..|

कार पूरे फ़र्राटे से रोड पर दौड़ पड़ी...|

“धन्यवाद... पर आप कौन...?” मैंने पूछा |

“पहले मंजिल पर पहुँचने दो... सब पता चल जाएगा...|” बहुत ही भावहीन और सपाट उत्तर मिला |

पता नहीं क्यों.. पर मैंने चुप रहना ही उचित समझा...| बहुत देर बाद कार हमारे ही घर के मोड़ वाले रास्ते पर आ रुकी... मैं हैरत में डूबा उस लड़की की ओर देखने लगा ... सोच रहा था की ये कौन है जिसे मेरे घर का एड्रेस तक मालूम है.?..

“जल्दी जाओ.. मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है..”

“पर आप हैं कौन... मेरा घर कैसे जानती हैं..? और..और......”

“सुनो.....कहा ना... ज़्यादा वक़्त नहीं है मेरे पास... मुझे जल्दी जाना है... नहीं तो उन लोगों को मुझ पर शक हो जाएगा...| पर इतना ज़रूर कहूँगी कि, ये हमारी आखिरी मुलाकात नहीं है... हम फ़िर मिलेंगे...| नाओ, गुड बाय...|” – इस बार लड़की के आवाज़ में तीखापन और झुंझलाहट साफ़ था |

मैं कार से उतर गया.. पर उतरने से पहले नकली दाढ़ी मूंछ और चश्मा पिछली सीट पर रख कर, एक बार फिर उस लड़की को धन्यवाद किया |

लड़की आगे जा कर गाड़ी घुमाई और मेरे पास आकर रुक कर बोली, “हमारे मंज़िल एक हैं..पर रास्ते अलग... और अगर तुम चाहो तो हम जल्द ही मंज़िल हासिल कर सकते है... ओनली इफ़ यू वांट... अगर तुम चाहो तो.....!”

इतना कह कर लड़की गाड़ी ले कर आगे निकल गई |

और इधर मैं बेवकूफ सा खड़ा, टूटी फूटी कड़ियों को आपस में जोड़ने की नाकाम कोशिश करता; कुछ देर तक उस लड़की के गाड़ी द्वारा दूर तक छोड़े गए धूल के गुबारों को देखता रहा... फ़िर सर झटक कर घर की ओर चल दिया... दिलो-दिमाग में बहुत से उधेड़बुन लिए..................|

क्रमशः

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RE: Kamukta kahani अनौखा जाल - by desiaks - 09-12-2020, 12:46 PM

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