Kamukta kahani अनौखा जाल
09-12-2020, 12:48 PM,
#28
RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग २५)

थाने में मेरे गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने के पाँच दिन बाद मैं, चाचा और चाची के साथ थाने गया; मेरे साथ घटी घटनाओं का विवरण देने | ऑफ़ कोर्स बहुत सी बातों को मैं छुपाने वाला था ; पर इन बातों को छुपाने के चक्कर में जो बातें मैं कहने वाला था उन्हें कुछ ऐसे कहना पड़ता जिससे किसी को ये लगे नहीं कि मैं कहीं कुछ भी छुपा रहा हूँ | थाने जाने से पहले मैं बहुत घबराया हुआ था पर चाची की चेहरे की दृढ़ता और उनका विश्वास की थाने में मुझे कुछ न होगा वरन कुछ प्रश्न कर छोड़ दिया जाएगा, ने मुझमें भी काफ़ी हद तक हिम्मत बढ़ाई | चाची को इतना कन्फर्म मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था | एक तरफ़ जहां मैं अपने पास चाचा और चाची दोनों को पा कर निश्चिन्त था वहीँ दूसरी ओर मुझे किसी अनजाने डर का डर भी सता रहा था | खास कर अस्पताल में उस दिन मौजूद उन लोगों का डर |

अस्पताल की याद आते ही मुझे उस अनजान लड़की की याद आ गयी जिसने उस दिन दो-तीन लोगों की सहायता से अस्पताल से निकलने में मेरी सहायता की थी | बड़ी ही अजीब बात थी, न जान न पहचान.... फिर भी मैं तेरी कद्रदान ! क्यूँ मदद की उसने मेरी? क्या वह मेरे मकसद के बारे में कुछ जानती है? या सब कुछ जानती है ? और अगर जानती भी है तो फ़िर ‘मेरी’ मदद करने के पीछे का उसका क्या मकसद रहा होगा? नाम भी तो नहीं बताया था उसने उस दिन | और तो और , उसे मेरे घर का पता किसने बताया? अगर इस लड़की को मेरे घर का पता मालूम है तो क्या उन दूसरे खतरनाक लोगों को भी मालूम है?? हे भगवान ! कहीं वो लोग सीधे मेरे घर ही न पहुँच जाए !

थोड़ी ही देर बाद हम पुलिस स्टेशन के बाहर खड़े थे |

सभी अपने कार्यों में व्यस्त थे, किसी को किसी की सुध नहीं थी |

चाचा आगे बढ़ कर एक सिपाही से इंस्पेक्टर विनय से मिलने की बात कही |

सिपाही ने एक बार चाचा को ऊपर से नीचे तक अच्छे से देखा फिर मेरी ओर चाची की ओर एक सरसरी सी निगाह दौड़ा कर चाचा की ओर देखते हुए कहा,

“विनय साहब नहीं आये हैं, आज छुट्टी पर हैं | ”

“ओह्ह..!” चाचा ने निराशा व्यक्त की |

“क्यों, क्या काम है... अर्जेंट है क्या?” – सिपाही ने चाचा को निराश देख कर पूछा |

“जी, इंस्पेक्टर विनय ने ही बुलाया था.. एक केस के सिलसिले में...”

“कौन सा केस?” – सिपाही ने उत्सुकता में पूछा |

“मेरे भतीजे के लापता होने का केस.. लौट आया है .. इसलिए मिलना था |” चाचा ने अत्यंत संक्षेप में उत्तर दिया |

सिपाही ने मेरी ओर देखते हुए पूछा, “यही है क्या? कहाँ था इतने दिन? कहाँ चला गया था? कैसे आया?”

एक साथ प्रश्नों की बारिश सी कर दी उसने | मैं भी थोड़ा घबरा सा गया ; और चाची की ओर देखा | चाची मेरे मनोभावों को पढ़ते हुए सिपाही की ओर मुखातिब हुई और थोड़ा झिड़कते हुए बोली,

“आप इंस्पेक्टर विनय हैं क्या?”

चाची की झिड़क से सिपाही थोड़ा अकबका सा गया | खुद को तुरंत सँभालते हुए कुछ कहने जा रहा था की चाची ने फिर उसे उसी अंदाज़ में कहा,

“अगर इंस्पेक्टर साहब नहीं हैं तो उनके जगह थाना इन-चार्ज कौन हैं? जो हैं उनका नाम बताओ और अगर कोई नहीं है तो ठीक है... हम चलते हैं |”

चाची का यह रिएक्शन काफ़ी शॉकिंग था ... हमने कभी सोचा ही नहीं था कि चाची इतनी निडरता से बात कर सकती है... और तो और उस सिपाही ने भी कभी सपने में कुछ ऐसा होने के बारे में सोचा नहीं होगा -- वो बुरी तरह से हड़बड़ा गया -- चाची को अच्छे से ऊपर से नीचे तक एक बार और देखने के बाद गला साफ़ करते हुए कहा,

“खं..ख्म... हम्म... इंस्पेक्टर दत्ता साहब अंदर बैठे हैं .. इंस्पेक्टर विनय साहब की अनुपस्थिति में वही यहाँ के इन-चार्ज होते हैं..... |”

सिपाही अभी अपनी बात पूरी कर पाता, उसके पहले ही चाची ने मुझे आगे करते हुए उस सिपाही को “एक्सयूज़ मी” बोल कर कमरे में घुस गई | चाचा भी किंकर्तव्यविमूढ़ सा खुद को कुछ कहने की स्थिति में ना पाकर चुपचाप चाची को फॉलो करना ही बेहतर समझा ... अंदर घुसने के बाद हमें बगल में ही एक और कमरा मिला ... कमरे के बाहर ही बैठे एक संतरी से पूछने पर पता चला की है तो ये इंस्पेक्टर विनय का ही कमरा पर उनके छुट्टी पर होने के कारण अभी इंस्पेक्टर दत्ता यहाँ के इन चार्ज हैं और वह ही अभी कमरे में बैठे हैं -- हमारे कहने पर वो अंदर गया और इंस्पेक्टर दत्ता से मिलने की परमिशन ले कर बाहर आया,

“जाइये... साहब बुला रहे हैं |”

सुनते ही चाची कोहनी से मुझे हल्का सा मार कर इशारा करते हुए कमरे की ओर बढ़ गई, मैं उनके साथ ही घुसा जबकि चाचा थोड़ा रुक कर अंदर आए | फिर जो हुआ, उससे यह समझ में नहीं आया कि जल्दबाज़ी में हुआ या जान बुझ कर ....

हुआ यह कि, अंदर घुसते ही चाची तेज़ कदमों से चलते हुए सामने रखे चेयर तक गई पर चेयर के पिछले (पाया) पाँव से उनका पैर टकरा गया और वह गिरते गिरते बची ; पर खुद को सँभालने के क्रम में वो चेयर को पकड़े आगे की ओर झुक गई और इससे उनका पल्लू उनके कंधे पर से हट कर उनके बाँह में आ गया --

और जैसा कि मुझे पहले से ही पता है की चाची कितना लो कट ब्लाउज पहनती है, इसलिए चाची के आगे गिरते ही मैं समझ गया की इंस्पेक्टर दत्ता को दुनिया की कई लुभावनी चीज़ों में से एक के दर्शन हो रहे हैं आज -- दत्ता तो जैसे पलकें झपकाना ही भूल गया -- पलकें तो दूर की बात, उसे देख कर ऐसा लगा मानो वो उस समय साँस तक लेने भूल गया है |

चाची जल्दी से अपने आँचल को दुरुस्त करते हुए इंस्पेक्टर दत्ता को नमस्ते की...

प्रत्युत्तर में इंस्पेक्टर दत्ता ने भी किसी तरह खुद को सँभालते हुए हाथ जोड़े, लाख कोशिश करे चाची के चेहरे को देखने की पर गुस्ताख आँखें अपना रास्ता उनके वक्षों तक ढूँढ ही लेते हैं |

“ज.. जी.... आ..आप??” – हलक में फँसते शब्दों के साथ शुरुआत किया इंस्पेक्टर ने |

“जी, मेरा नाम दीप्ति है... दीप्ति रॉय, ये मेरे हस्बैंड मिस्टर आलोक रॉय हैं और ये मेरा भतीजा अभय; अभय रॉय.. दरअसल हम.............................” – और फिर चाची ने सब कुछ इंस्पेक्टर दत्ता को कह सुनाया |

मेरे गायब होने की, मेरे मिल जाने, इंस्पेक्टर विनय से हुई बातें... वगैरह वगैरह...

इंस्पेक्टर दत्ता सब कुछ बहुत शांति से और ध्यानपूर्वक सुनता रहा --

पर साथ ही मेरे पारखी नज़रों ने यह ताड़ लिया था कि दत्ता बातें सुनने के साथ ही साथ कुछ और भी करने में व्यस्त था...

वह चाची के चेहरे को एकटक निहारे जा रहा था --

होंठ, गाल, गला, भोंहें, आँखें.... सब कुछ देखे जा रहा था --

एक अजीब सा दीवानापन, अपनापन का एहसास अपने आँखों में लिए वह चाची को अपलक देखे जा रहा है --

मैं चाची की ओर देखा,

उनकी आँखें साफ़ जाहिर कर रही थी कि वह भी इंस्पेक्टर की हरेक हरकत को बखूबी समझ रही है ... पर इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ;

और कहीं न कहीं ये बात मेरे लिए राहत देने वाली बात थी... पता नहीं क्यों?

थोड़ी देर बाद,

मेज़ पर चार ग्लास चाय थे |

चाची की बातें ख़त्म हो चुकी थी ... मैं कुछ कहने की सोच रहा था और चाचा के पास कहने को कुछ ना था ...

दो सिप ले चुका था चाय का इंस्पेक्टर दत्ता ने... ग्लास के गोल मुहाने पर अपने दाएँ हाथ की तर्जनी ऊँगली को गोल गोल घूमाते हुए किसी सोच में डूबा हुआ सा लग रहा था वह ... फ़िर उसी हाथ को उठा कर दो उँगलियों को मोड़ कर अपने होंठों पर और अपनी ठोड़ी को हथेली का सहारा देते हुए बगल की खिड़की से बाहर देखने लगा --

हम तीनो चुपचाप बैठे हैं -- तीनों की ही नज़रें इंस्पेक्टर दत्ता पर जमी हुई है और किसी अप्रत्याशित प्रश्न या उत्तर की सम्भावना को ख़ारिज करने की मन ही मन उपाय और ताकत जुटा रहे हैं --

कुछ देर तक कमरे में छाई चुप्पी को भंग करते हुए इंस्पेक्टर दत्ता ने कहा,

“देखिए, मिस्टर एंड मिसेस रॉय, मैं फिलहाल कुछ ख़ास करने की स्थिति में नहीं हूँ.. दरअसल बात यह है कि इस केस को इंस्पेक्टर विनय हैंडल कर रहे थें -- वह अभी छुट्टी में हैं ; वो भी एकाएक ... उनके आने के बाद ही कोई सटीक कदम उठाने के बारे में सोचा जा सकता है ; मैं तो बस उनका रिप्लेसमेंट हूँ -- हाँ, मैं अभी के लिए आपको यह आश्वासन ज़रूर दे सकता हूँ की पुलिस की तरफ़ से आपको फुल प्रोटेक्शन और सपोर्ट है.. और आज के बाद, इन फैक्ट, आज से ही अगर आप लोगों को कहीं कुछ भी संदिग्ध सा लगे या कोई आप लोगों से किसी भी तरह कोई कांटेक्ट करने की कोशिश करे तो आप बेहिचक हमें सूचित कर सकते हैं ... -- पुलिस डिपार्टमेंट हमेशा आपके सेवा में उपस्थित है और रहेगी .. -- |”

अंतिम पंक्तियाँ – “आप बेहिचक हमें सूचित कर सकते हैं ... पुलिस डिपार्टमेंट हमेशा आपके सेवा में उपस्थित है और रहेगी ... |” कहते हुए दत्ता ने नज़रें चाची की ओर कर ली थी और बात खत्म करते करते उसकी नज़रें चाची के पारदर्शी आँचल के नीचे से नज़र आ रहे क्लीवेज पर जम गई .... |

खैर,

बाकी फॉर्मेलिटी सब पूरी करने के बाद हम तीनो उठ कर बाहर आ गए | कमरे से निकलते वक़्त मैंने सिर घूमा कर इंस्पेक्टर की ओर देखा; उसकी नज़रें चाची की बैकलेस ब्लाउज में दिख रही चिकनी बेदाग़ पीठ और उनके उभरे हुए पिछवाड़े पर टिकी हुई थी -- |

पुलिस स्टेशन से निकलने के क्रम में भूरे रंग का ओवरकोट और हैट पहना एक आदमी मुझसे जोर से टकराया और बिना कुछ कहे आगे बढ़ गया | मैं उसे कुछ कहता या टोकता पर चूँकि स्टेशन में ही थे हम लोग इसलिए मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी |

-----------------

ड्राइविंग सीट पर चाचा थे और बगल में चाची बैठी थी -- मैं पीछे परेशान सा बैठा था -- परेशानी इस बात की थी कि ये इंस्पेक्टर दत्ता किसी तरह की परेशानी न बन जाए मेरे और परिवार के लिए ...

अनायास ही मेरा हाथ मेरे पैंट के पॉकेट पर गया ... कोई कागज़ सी चीज़ अंदर थी -- पर मैंने तो ऐसा कुछ नहीं रखा था ... तो फिर ?

जल्दी से पॉकेट से वो कागज़ निकला.... किसी छोटे बच्चे के स्कूल की कॉपी के पेज की जितनी बड़ी कागज़ थी ... और उसपे साफ़ साफ़ अक्षरों में लिखा था,

“पुलिस पर ज़्यादा भरोसा करने की गलती मत करना... पुलिस भी मुजरिमों से मिली हुई हो सकती है ... पुलिस के साथ ज़्यादा घुल मिल करोगे तो लेने के देने पड़ सकते हैं .. आज संध्या साढ़े छ: बजे नीचे दिए गए पते पर मिलना ... तुम्हें तुम्हारे काम की चीज़ बतानी है -- ज़रूरी है .. इसलिए ज़रूर से आना... फ़िक्र न करो... तुम्हारा शुभ चिंतक हूँ |

पता:- **************

**************************

**************************”

सन्देश को पढ़ कर मैं गहन सोच में डूबता चला गया .. अब ये कौन ? कौन है ये अनजान मददगार..? मिस्टर एक्स? या फिर कोई और....??

क्रमशः

******************
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RE: Kamukta kahani अनौखा जाल - by desiaks - 09-12-2020, 12:48 PM

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