Kamukta kahani अनौखा जाल
09-12-2020, 12:49 PM,
#33
RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ३०)

“अभय, देखो तो.. ये रंग कैसा रहेगा...?”

“चाची... रंग तो ठीक ही है पर सिर्फ़ रंग से ही कुछ नहीं होता न.. कपड़े की क्वालिटी तो देखो.. वो भी चेक कर लो..”

“हम्म.. ठीक कह रहे हो.. (थोड़ा रुक कर) ... ओ भैया.. और भी तो दिखाओ..”

“जी मैडम”

आज चाची को लेकर मार्किट आया हूँ .... उन्हें आज ज़रुरत के कुछ सामान के साथ साथ अपनी दो लाडलियों के लिए स्कूल बैग्स भी लेने हैं --- चाचा को तीन दिन की छुट्टी मिली है .... इसलिए उन्होंने चाची को साथ ले कर उन दोनों से मिलने जाने का प्रोग्राम बनाया है --- मुझे भी कहा था साथ चलने को पर मैंने साफ़ मना कर दिया --- मना क्या किया, कोचिंग और स्टूडेंट्स का बहाना बना कर जाने में असमर्थता साफ़ साफ़ व्यक्त कर दिया --- चाचा ने अधिक ज़ोर न दिया --- शायद सफ़र के दौरान कुछ समय चाची के साथ एकांत में बिताना चाहते होंगे ---

चाची ने थोड़ा ज़ोर ज़रूर दिया था --- पर मेरे मूड को देख उन्होंने और कुछ न कहना ही बेहतर समझा |

मार्किट में कुछ और चंद ख़रीददारी कर के वापस लौट रहा था ऑटोरिक्शा में --- सामान तो हैं ही ज़्यादा --- इसलिए मुझे और चाची को बहुत सट कर बैठना पड़ा ...

इतने दिनों से घटी इतनी सारी घटनाओं ने मेरे दिमाग में चिंताओं का एक परमानेंट घर बना दिया था --- ये सब चिंताएँ वैसे भी सर दर्द से बढ़ कर हैं मेरे लिए... अभी पिछली चिंताओं में रत्ती भर की कमी आई नहीं कि जयचंद बंसल नाम के एक मर्डर केस में मैं प्राइम सस्पेक्ट बन गया ---

कानून का डर तो सब को रहता है ; पर कानून के रक्षकों में से एक अगर कोई इंस्पेक्टर दत्ता जैसा कोई हो तो डर थोड़ा और बढ़ ही जाता है --- पिछली मुलाकात में मुझे दत्ता उन पुलिसियों में से एक लगा जो एक बार किसी के पड़ जाए तो फ़िर बाल की खाल निकाले बिना तक चैन की सांस नहीं लेते --- |

उस दिन दत्ता ने मुझे जाने अवश्य दिया था, पर हर बुलावे पर थाने आ कर हाज़िरी दूँगा, मेरे इस वादे को कर लेने भर से तो वह मानने या विश्वास करने वाला नहीं लगता मुझे ---

ज़रूर मेरे लिए किसी को रखा होगा मुखबिरी करने हेतु ;

पर किसे ....

ये जानने का कोई स्रोत या उपाय पता नहीं मुझे -- |

अचानक ऑटोरिक्शा ने हिचकोला खाया, और मैं अपनी सोच की दुनिया से बाहर आया ... बाहर आते ही जिस बात का मुझे एहसास हुआ उसने मेरे पूरे शरीर में एक उत्तेजना वाली सिहरन दौड़ा दी ...

चाची मेरे बाएँ ओर साइड में बैठी थी और सामानों की कुछ अधिकता के कारण हम दोनों को ही सट कर बैठना पड़ा था ... पर अभी चाची को देख कर लग रहा था कि वह ऐसी परिस्थिति कर पूरा लाभ लेने का तय कर चुकी है --- अपनी दायीं उन्नत उरोज को मेरे बाएँ हाथ की कोहनी से एकदम कस कर दबा कर रखी है ... मेरे कोहनी तो लगभग पूरा ही विलीन हो गया था उस पुष्ट, नरम गदराए वक्ष में ! शुरू के चंद मिनट मेरे लिए दुविधा भरे रहे, कारण; कि मैं यह तय नहीं कर पाया की मुझे करना क्या चाहिए ... देखा जाए तो नारी देह मेरे लिए एक रूचियुक्त विषय होते हुए भी कोई रहस्य नहीं रह गया था --- चाची की ही मेहरबानी थी ---- जो मैं नारी देह और इससे संबंधित अन्य अनछुए पहलूओं को जान पाया |

उस नर्म, गुदाज छुअन का आनंद लेता हुआ मैं फ़िर से एक अलग ही दुनिया में पहुँच गया ... जी करने लग गया की अभी चाची से साथ जिस्मानी प्रेम के कुछ सीढ़ियाँ चढ़ जाऊँ... ऐसे अवसर बार बार तो नहीं मिलते न.. यही सोच कर,

थोड़ा सीधा हुआ...

कोहनी से थोड़ा अच्छे से रगड़ कर दबाया उस नर्म मांसल पिंड को ---- चाची की मुँह से आरामयुक्त यौनइच्छा वाली हल्की सिसकारी निकली ...लगा की जैसे थोड़ा और सट गयी मेरे से.... अब सच में और नहीं रहा गया... कुछ करने का मन कर ही गया ---- उन सामानों के बीच थोड़ा एडजस्ट हुआ और चाची की दायीं चूची को दबाने हेतु जैसे ही अपना दायाँ हाथ उनके वक्षस्थल के समीप ले गया ; ठीक उसी समय --- रास्ते पे मौजूद खड्ड के कारण ऑटो एकबार फ़िर हिचकोला खाया... अब तक मेरे कंधे पर सर रख कर ऊँघ रही चाची इस हिचकोले से उठ गयी और सीधी होकर ख़ुद को व्यवस्थित करने लगी --- |

मन ही मन किस्मत और प्रशासन को गाली देने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहा मेरे पास........

ऑटो से बाहर देखने लगा ---- और ठीक से २ मिनट भी न गुज़रे होंगे की सड़क के दूसरी ओर एक पहचाना सा चेहरा दिखा... चेहरा पहचाना सा तो लगा ही ; साथ ही न जाने क्यों मुझे उस चेहरे के बारे में सोचने पर विवश कर दिया .....

आँखें बंद कर अभी अभी उस देखे हुए चेहरे पर पूरे मनोयोग से याद कर दिमाग पर ज़ोर देने लगा...

यहाँ मैं ‘ईश्वर’ को धन्यवाद करना चाहूँगा , कि उनकी ही विशेष ‘ईश्वरीय’ कृपा बचपन से मुझ पर ऐसी है कि दो-एक मामलों में मैं स्वतः ही बहुत निपुण हूँ ... जैसे की अगर आँख बंद कर किसी वस्तु, व्यक्ति या विषय को लेकर थोड़ी चिंतन करूँ या दिमाग पर ज़ोर दूँ तो उस वस्तु, व्यक्ति या विषय से संबंधित बहुत सी बातें मुझे स्मरण हो आती हैं ; बशर्ते, मैं स्वयं उस वस्तु, व्यक्ति या विषय का प्रत्यक्ष साक्षी होऊँ ----

यही अब मैं कर रहा था... उस पहचाने हुए चेहरे को सोच सोच कर दिमाग पर ज़ोर देने लगा ... और चंद पलों में ही मुझे बहुत कुछ स्मरण हो आया... मैं चौंक उठा और,

“अरे साला...!!” .... मेरे मुँह से अनायास ही निकला ----

मेरे अचानक से ऐसा करने से आँखों में जिज्ञासा वाले भाव ले चाची मेरी ओर देखने लगी ---

मैं शांत बैठा रहा ... सोच रहा था की क्या करूँ .... मेरी ओर से वाँछित प्रतिक्रिया न पा कर चाची आख़िर पूछ ही बैठी,

“क्या हुआ अभय... कुछ छूट गया क्या...??”

“नहीं चाची... छूटा नहीं.... पर यदि शीघ्र कुछ न किया तो अवश्य ही छूट जाएगा..... |”

“क्या छूट जाएगा?”

“अं....म्मम्मम... क..कुछ नहीं...” चिंतित स्वर में बोला |

क्षण भर का भी समय न गवांते हुए बोला,

“भैया... ज़रा ऑटो को साइड करना..”

मेरे इतना कहते ही चाची हैरानी से मेरी ओर देखी ---- मैंने धीरे से उन्हें कहा,

“एक बहुत ही ज़रूरी काम आन पड़ा है... मुझे अभी जाना होगा... आप प्लीज़ बुरा मत मानना...”

कहते हुए चाची का दायाँ हाथ धीरे से दबा दिया.. प्रत्युत्तर में चाची भी धीरे से “हाँ” कहते हुए सहमति में अपना सर हिलाई....

ऑटोवाला अब तक ऑटो सड़क के किनारे साइड करके रोक चुका था ...

मैं लगभग छलांग सा लगाता हुआ ऑटो से उतरा और हाथ हिला कर चाची को बाय बोल कर दौड़ते हुए सड़क के दूसरी ओर चला गया ---- और फ़िर तेज़ कदमों से चलता हुआ उस पान दुकान को ढूँढने लगा जिसके सामने उस चेहरे के मालिक को कुछ मिनट पहले देखा था ---- ज़्यादा देर न लगा दोनों को ढूँढने में – पान दुकान और उस चेहरे के मालिक को ....

“हाँ... यही है वो...”

दरअसल ये वही लड़का है जो आज से प्रायः महीने भर पहले हमारे घर के पीछे चाची के उन्नत गदराए वक्षों को जी भर कर मसला था और जिसका मैंने कुछ दूरी तक पीछा भी किया था .....

उस पान दुकान से परे हट कर एक और पान दुकान थी... यही कुछ सात-आठ क़दमों के फासले पर ... वहां गया और एक सिगरेट ले कर सुलगाया... ध्यान उसी लड़के पर था... वह इधर उधर की बातें किए जा रहा था... पर ज़्यादा देर खड़े रहने की ज़रुरत नहीं हुई --- दस मिनट बाद ही वह वहां से चल दिया..

काफ़ी दूर तक यूँही पैदल चलता रहा वो...

मैं भी पूरी सतर्कता के साथ उसके पीछे लगा रहा --- पर यहाँ मुझे जो एक अजीब सा एहसास हुआ; वह यह की आस पास के कुछ दुकान और बिल्डिंग्स को देख कर ऐसा लगा मानो मैं इस जगह पर शायद पहले भी आ चुका हूँ --- इस बारे में सोचता हुआ मैं आगे बढ़ता, उसका पीछा करता रहा --- थोड़े ही देर में एक चाय दुकान को पार कर आगे एक टूटे फूटे झोपड़े से मकान के पास जा कर रुका... वह लड़का आगे जा कर एक छोटा रास्ता पार किया और सामने एक बिल्डिंग की ओर बढ़ गया ...

बिल्डिंग की ओर अच्छे से देखते ही मेरा दिमाग ठनका;

‘अरे! ये तो वही बिल्डिंग हैं न, जहाँ चाची को पहली बार देखा था .... उन संदिग्ध लोगों के साथ --- लाल वैन में --- बुर्के में --- अंदर से एकदम नंगी!!’

लड़का अंदर बिल्डिंग में घुसा... नीचे वाले हिस्से में (ग्राउंड फ्लोर) दर्जी का दुकान खुला था --- लड़का पहले दुकान में घुसा ... दुकान में एक बूढ़ा था --- पकी हुई लंबी सी दाढ़ी --- गले से लटकता हुआ सीने पर तार वाला चश्मा --- दोनों में कुछ बातें हुईं ... अगले ही मिनट में वह लड़का दुकान से निकल कर बगल में मौजूद सीढ़ियों के रास्ते ऊपर के फ्लोर में चला गया --- मैं उस लड़के के पीछे जाने का उपक्रम करने ही वाला था की सोचा उस बूढ़े को भी ज़रा देख लूँ ; कि वह क्या करता है....

लड़के के ऊपर गए शायद ५ मिनट भी न हुए होंगे; देखा, बूढ़ा सिलाई मशीन वाले टेबल पर से उठा, ४-६ कदम चल कर दुकान के दरवाज़े तक आया --- सामने सड़क की ओर ज़रा सा झुक कर दाएँ बाएँ देखा और फ़िर झट से दुकान का शटर गिरा दिया !

मैंने अपनी रिस्ट वाच पर नज़र डाला ....

दोपहर के १:३० (डेढ) बज रहे हैं !

लंच टाइम... !

ये तो समझ गया की बुड्ढे का दुकान का शटर गिराना और लड़के का सीढ़ियों के रास्ते ऊपर जाना; दोनों ही बातें आपस में जुड़ी हुई हैं ....

अतएव,

मैंने भी यह निश्चय कर लिया कि मुझे भी किसी भी प्रकार से उस बिल्डिंग में दाख़िल होना है .... पिछली बार कैसे गया था, इस बात को जानने के लिए सिगरेट फूंकते हुए एकाग्र होकर दिमाग पे ज़ोर दिया --- एकदम से तो नहीं पर धीरे धीरे सब याद आता गया ......

कुछ ही क्षणों में याद आ गया की पिछली बार कैसे अंदर घुसा था ---

अधजले सिगरेट को फ़ेंक कर आगे बढ़ा;

पिछली बार की ही तरह उस बिल्डिंग में घुसा... इसबार पहले से भी कहीं अधिक सतर्कता के साथ .... और ये सब संभव हो रहा था मोना और उसके आदमियों से मिली ट्रेनिंग की बदौलत .....|

गलियारे से होते हुए दूर एक कमरे से आवाजें आ रही थीं ... सधे व दबे क़दमों से उस ओर बढ़ा --- गलियारे में दाएँ बाएँ दोनों तरफ़ ५ - ५ कमरे हैं --- बाएँ वाले ५ में से ३ कमरों के दरवाज़ों पर ताले लगे हैं --- और दाएँ तरफ़ के ५ में से ४ कमरे खुले हैं... बाएँ तरफ़ के २ कमरों और दाएँ तरफ़ वाले ३ कमरों में बड़े बड़े कार्टन और लकड़ी के बक्से रखे देखा... सभी अच्छे से बंद --- पर जहाँ से आवाजें आ रही हैं ; वो है दायीं ओर की ही गलियारे में स्थित पांचवा, अर्थात अंतिम कमरा --- उस कमरे के पास पहुँचने में अधिक विलंब नहीं किया --- एक बात जो काबिले गौर है; वह ये की पिछली बार मुझे कमरे जितनी बुरे और टूटे फूटे हालत में मिलते थे, इस बार इनकी स्थिति कुछ सुधरी हुई है .... |

दरवाज़ा पल्ले से भिड़काया हुआ था --- साथ ही पास में थोड़ी जगह ऐसी है कि किसी के अचानक वहाँ आने पर वहां उस जगह में छुपा जा सकता है --- अंदर से आती आवाजों की ओर ध्यान दिया --- उनकी बातों से अंदाज़ा लगाया की अंदर मुश्किल से तीन या चार लोग होंगे --- ठहाकों के साथ कुछ दिलचस्प बातें हो रही हैं अंदर;

“......... वही तो , पर और कुछ भी कहो रहमत भाई, अपने गफूर चचा पचहत्तर के उम्र में भी मस्ती करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते... हा हा हा ...“

“हाँ ... हो हो हो.... अपने गफूर चचा हैं बड़े रंगीन मिज़ाज के आदमी... शौक बड़े बड़े हैं इनके... हा हा हा..”

“अरे क्यों न होऊं भई... मेरी कौन सी उम्र जा रही है...” एक आदमी की नाराज़गी भरी आवाज़ आई |

“अच्छा छोड़ो उस औरत की बातें, चचा... और आलोक, तुम.... ये बताओ की अगला कन्साइनमेंट कब तक आ जाएगा... कोई पक्की ख़बर?”

“ख़बर तो है कि परसों को पहुँचेगा ...”

“ह्म्म्म.. अच्छी बात है... पर ख्याल रहे की किसी को भी कानो कान इन सब बातों की भनक तक नहीं लगनी चाहिए......”

“अरे आप बेफ़िक्र रहो रहमत भाई... इतने सारे माल पहुँच गए... ज़रा सा भी कहीं कोई दिक्कत हुआ क्या...? ये वाला भी आ जाएगा --- अच्छा, एक बात बताइए.. ये जो कन्साइनमेंट आने वाला है, इसमें भी वही माल है न जो बाकी यहाँ रखें पेटियों में हैं...??”

“हाँ, वही है... और बाकियों की तरह ही बेशकीमती है... |” अबकी बार इस आदमी की आवाज़ में गम्भीरता का पुट था |

उसकी इस बात ने मेरे दिमाग के बचे खुचे सुस्त पड़े तंत्रिकाओं को भी सचेत कर सुपर सक्रीय कर दिया.... ‘माल’ ... ‘कैसा माल’ .. “क्या और कैसा कन्साइनमेंट?” “पेटियाँ!!” .... मेरी नज़रें अपने आप ही पीछे के कमरों की तरफ़ गई... इस रूम तक आते समय जिन कमरों में पेटियाँ रखीं देखा, क्या उनमें भी ‘माल’ हैं----??

फ़िर आवाज़ आई,

“गफूर चचा, पहली खेप की जानकारी तो वही.. उसी तरीके से ही उन लोगों तक पहुँचाई जाएगी...?” लड़का बोला ...

“हाँ, और नहीं तो क्या... इस तरह से तो कोई हम पे शक भी नहीं करता है.. या यूँ कहो कि शक करने या होने का सवाल ही पैदा नहीं होता --- हा हा हा --- वो ‘छमिया’ एकदम पेरफ़ेक्ट है ऐसे कामों के लिए ... उससे ज़्यादा भी करवा लो तो कोई दिक्कत नहीं... डिकोस्टा साहब तो ख़ुद ही कह रहे थे कि उस छमिया को बस गर्म भर कर देने की देर है, फ़िर तो जो करती है... खी खी खी.... और कह रहे थे की उस दिन तो वो उछल उछल कर ली थी ...|”

गफूर की बात खत्म होते ही वह कमरा दोबारा ठहाकों से गूँज उठा...

फ़िर,

“चलो चलो ; अब निकलते हैं... आज इतना ही... चचा .. आप जा कर दुकान खोल लो.. आलोक, तुम तो अभी अपने गिफ्ट शॉप में जाओगे ...सीधे वहीँ जाना .. मैं ज़रा चाँद मियाँ से मिल के आऊँ... डिकोस्टा साहब से भी बात करनी है... उफ़. बहुत काम है.. |”

इसके बाद कमरे से कुछ खटपट की आवाजें आने लगीं.. समय नहीं था मेरे पास.. दबे पाँव जल्दी पीछे हटा और खुले हुए एक कमरे में घुस कर एक के ऊपर एक रखी हुईं पेटियों के पीछे जा छुपा ---

पेटियों के पीछे से ही उन तीनो को जाते हुए देखा.. तीनो बेपरवाह से चलते चले गए ... कमरे की तरफ़ ज़रा सा भी देखा तक नहीं... काफ़ी समय तक यूँ ही बैठा रहा.. जब मन आश्वस्त हुआ की अब कोई नहीं आने वाला है तो अपने जगह से उठा .. पास ही रखी एक पेटी को ठोक-बजा कर, हिला कर देखा.. पॉकेट से पेन नाइफ निकाला.. ट्रेनिंग के समय मोना ने ही ये सख्त सलाह दी थी कि मैं अब कोई छोटा सा हथियार रखना शुरू करूँ ... उसने ही मुझे एक पेन दिया था, जो काम भी पेन की ही तरह करता है.. साथ ही उसी में, साइड में दो छोटे चाकू और एक छोटा सा कैंची भी घुसा कर लगाया हुआ है.. बहुत काम का है.. आज ज़रूरत भी पड़ गई... किसी तरह लकड़ियों के दो परतों के बीच में चाकू को फँसा कर पेटी के अंदर देखने लायक जगह बनाया...

और ऐसा करते ही जो कुछ नज़र आया उसकी मैंने फ़िलहाल कोई कल्पना तक नहीं की थी --- अंदर मशीन गन, रिवाल्वर जैसे विदेशी हथियार भरे हुए हैं..!! पहचानने में मुझसे कोई भूल नहीं हो रही --- शत-प्रतिशत वही है --- भला आग्नेयास्त्र पहचानने में किसी से कैसे कोई भूल हो सकती है...? जल्दी से कार्टन (कार्डबोर्ड) वाले पेटियों के पास पहुँचा .. चाकू से पेटी के ऊपर दो पल्लों को जोड़ने वाले टेप को फाड़ा --- उसमें ठसाठस ठूँस के भरे प्लास्टिक के कई छोटे छोटे पैकेट्स हैं जिन में गाढ़े कत्थे और थोड़े थोड़े काले रंग मिश्रित पाउडर जैसा कुछ भरा हुआ है... सभी पैकेट्स में ... उन पैकेट्स को देखते ही मुझे एकदम अचानक से मिस्टर एक्स की बातें याद आ गईं जो उन्होंने आज से करीब दस महीने पहले कहे थे... एक अधूरे भेंट के दौरान.. अधुरा इसलिए क्योंकि मैं उसका चेहरा नहीं देख पाया था ... खैर, उन्होंने कहा था कि कुछ लोग, सीधे अंडरवर्ल्ड से जुड़े लोग हमारे इस शहर में अवैध कार्यों में लिप्त हैं और अवैध हथियारों के साथ साथ चरस, कोकेन और गाँजा का व्यापार कर रहे हैं ... तो क्या अभी मैं जिन चीज़ों को देख रहा हूँ... ये वही हैं??

रिस्ट वाच पर अनायास ही नज़र गई.. ३ बजने में पन्द्रह मिनट रह गए हैं --- उफ़.. बहुत देर हो गई --- चलना होगा... पैकेट्स को अन्दर रख कर, उस कार्टन पर जल्दी से दूसरे कुछ कार्टन को रख कर मैं जल्दी से कमरे से बाहर निकला और जल्द ही बिल्डिंग से बाहर आ गया --- बिल्डिंग से बाहर आने के लिए मैंने दूसरा रास्ता चुन लिया था ... दूसरे रास्ते से निकलने से मेरे घर की ओर जाने वाला रास्ता थोड़ा दूर पड़ गया पर इतना मेहनत मेरे को स्वीकार है इस समय...

मेन रोड पे पहुँचते ही एक ऑटो कर लिया और रवाना हुआ घर की ओर...

मन में कई प्रश्न लिए...

ये लोग एक्साक्ट्ली कौन हैं...?

बक्सों, पेटियों में जो भी सामान हैं, क्या सब अवैध हैं? ---- निश्चय ही होंगे, अवैध ही हैं... पर यहाँ क्यों है?

किस ‘माल’ --- ‘छमिया’ की बात कर रहे थे वो लोग ?

और सबसे बड़ा प्रश्न....

ये साला मिस्टर एक्स कहाँ गया..? दस महीने से ऊपर हो गया अभी तक उसकी तरफ़ से मुझे कांटेक्ट क्यों नहीं किया गया??

क्रमशः

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RE: Kamukta kahani अनौखा जाल - by desiaks - 09-12-2020, 12:49 PM

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