RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ३९)
आलोक और मनसुख दोनों पूर्ववत सिर से सिर सटा कर आपस में फुसफुसा कर बतियाने लगे.
मैं और मोना भी धीमे स्वर में बात करने लगे पर ध्यान हमारा उधर ही था हालाँकि फ़ायदा कुछ था नहीं क्योंकि उन दोनों की फुसफुसाहट हमारे कानों तक नहीं पहुँच रही थी |
उन दोनों की बातचीत लगभग आधे घंटे तक चली.
और हम दोनों भी आधे घंटे तक आपस में गर्लफ्रेंड – बॉयफ्रेंड वाली रंग बिरंगी बातें करते रहें ताकि उन्हें कोई शक न हो.
आधे घंटे बाद मनसुख अपने जगह से उठा और आलोक को अलविदा कह कर बाहर की भारी कदमों से चल दिया.
दरवाज़े के पास पहुँच कर उसने दाएँ तरफ़ देख कर किसी को आवाज़ दी.
मिनट दो मिनट में ही उसकी एम्बेसडर धीरे धीरे पीछे होते हुए मनसुख के निकट आ कर खड़ी हुई. अपने लंबे कुरते के पॉकेट से एक मुड़ी हुई पान का पत्ता निकाला, खोला और उसमें से पान निकाल कर अपने मुँह में भर लिया. फ़िर, बड़े इत्मीनान से अपने एम्बेसडर का पीछे वाला दरवाज़ा खोल कर उसमें जा बैठा. उसके बैठते ही कार अपने आगे निकल गई.
हम दोनों, मतलब मैं और मोना, दोनों ने ही पूरा घटनाक्रम बहुत अच्छे से देखा पर दाद देनी होगी मोना की भी कि इस दौरान उसने अपनी बातों को बहुत अच्छे से जारी रखी.
थोड़ी ही देर बाद आलोक भी उठा और काउंटर पर पेमेंट कर के चला गया |
जाने से पहले एक बार उसने पलट कर मोना को देखने की कोशिश की पर चंद सेकंड पहले ही मोना अपना सिर झुका कर , थोड़ा तीरछा कर के मेरी ओर घूमा ली थी.. इसलिए बेचारा आलोक मोना के चेहरे को देख नहीं पाया..
और इस कारण उसके ख़ुद के चेहरे पर जो अफ़सोस वाले भाव आए; उन्हें देख कर मुझे हंसी आ गई.
काउंटर पर रखे प्लेट पर से थोड़े सौंफ़ उठाया, मुँह में रखा और चबाते हुए निकल गया दरवाज़े से बाहर.
उसके बाहर निकलते ही मोना ने जल्दी से उस छोटे से उपकरण को उठाया और उसके स्विच को घूमा कर अपने पर्स में रख ली.
रखने के बाद मेरी ओर देख कर बोली,
“अब आगे क्या करना है?”
“पहले ये तो बताओ की ये डिवाइस है क्या?”
“बताऊँगी.. पर यहाँ नहीं.. कार में.”
“हम्म.. यही सही रहेगा.”
“वैसे, तुम्हें वो मोटा आदमी कैसा लगता है...?”
“मतलब?”
“मतलब उसका पेशा क्या हो सकता है?”
“अम्मम्म... मुझे तो कोई बड़ा सेठ टाइप का आदमी लगता है. एक्साक्ट्ली क्या करता है ये कहना तो मुश्किल है पर इतना तय है कि ये एक बिज़नेसमैन है. तुम्हें क्या लगता है?”
“हरामी..”
“अरे?!” मैं थोड़ा चौंका.. ऐसे किसी जवाब के बारे में उम्मीद नहीं किया था.
“ओफ़्फ़ो.. तुम्हें नहीं.. उस आदमी को कह रही हूँ.”
मोना हँसते हुए बोली.
क़रीब १० मिनट तक हम दोनों वहीँ बैठे रहे.
और जब लगा की हमें निकलना चाहिए तब काउंटर पर पेमेंट कर के वहाँ से निकल कर सीधे मोना के कार तक पहुंचे और जल्दी से अंदर बैठने के बाद मोना ने पर्स से वह उपकरण निकाला और २-३ बटन दबाई.
ऐसा करते ही उस छोटे से डिवाइस में ‘क्लिक’ की आवाज़ हुई और उसमें से आवाजें आने लगीं, जो संभवतः उसी रेस्टोरेंट की थी...
शुरुआत में ‘घिच्च – खीच्च’ की आवाजें आती रही --- फ़िर धीरे धीरे क्लियर हो गया.
दो लोगों की आवाजें सुनाई दी..
एक भारी आवाज़ दूसरा थोड़ा हल्का... पतला..
पहचानने में कोई दिक्कत न हुई की ये इन स्वरों के मालिक कौन हैं ---
मनसुख और आलोक!
वाह.. तो मोना ने रिकॉर्ड किया है उनके आपसी बातचीत को ... मन ही मन दाद दिया उसके दिमाग को ... वाकई बहुत , बहुत काम की और अकलमंद लड़की है.
अधिक दाद देने का समय न मिला..
उस डिवाइस में से आती आवाज --- बातचीत के वह अंश --- जो आलोक और मनसुख भाई के बीच हुए थे --- ने बरबस ही मेरा ध्यान अपने ओर खींच लिया.
बातचीत कुछ यूँ थी...
“मनसुख जी...”
“अरे यार... कितनी बार कहा है की या तो मुझे मनसुख ‘भाई’ ही बोला करो या फ़िर मनसुख ‘जी’ ... तुम कभी भाई , कभी जी बोल कर यार मेरे दिमाग की कुल्फी जमा देते हो.. हाहाहा...”
“अब क्या बताऊँ, आपके लिए पर्सनली मेरे दिल में जो सम्मान के भाव हैं, वही वजह है की आपके लिए कभी भाई तो कभी जी निकल जाता है.. अच्छा ठीक है, आज से .. बल्कि अभी से ही मैं आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ मनसुख ‘जी’ कह कर बुला और बोला करूँगा.. ओके? ...”
“हाँ भई, ये ठीक रहेगा... हाहा..”
“वैसे मनसुख जी..”
“हाँ कहो..”
“दिमाग का कुल्फी जमना नहीं... दही जमना कहते हैं...”
“हैं?!.. ऐसा...??”
“जी... कुल्फी तो कहीं और जमती है...”
“कहाँ भई...?”
“वहाँ..”
“वहाँ कहाँ...?”
“वहाँ... “
“कहाँ???”
“ओफ्फ्फ़... मनसुख जी.. आँखों के इशारों को तो समझो...”
“ओह... ओ... वो... वहाँ..?”
“हाँ. जी..”
“हाहाहाहा..”
“हाहाहाहाहाहा”
अगले दो तीन मिनट तक सिर्फ़ हँसने की ही आवाज़ आती रही.
पर मोना और मैं, दोनों को ही उनके मज़ाक और हंसी नहीं, बल्कि आगे होने वाली बातचीत में इंटरेस्ट है.. और पूरा ध्यान वहीँ है.
“अच्छा भई, अब जल्दी से उस ज़रूरी काम के बारे में कुछ उचरो जिसके लिए तुमने मेरे को इतना अर्जेंटली बुलाया है मिलने को.”
“मनसुख जी.. मैं वही बात करने आया हूँ... उसी के बारे में.. क्या सोचा है आपने.. आपने तो कहा था की सोच कर अपना निर्णय सुनाओगे.”
“ओ. वह.. अरे नहीं... अभी तक सोचने का टाइम ही नहीं मिला....”
“मनसुख जी.....” आलोक का शिकायती स्वर ...
“अरे सच में.. आजकल बिज़नेस आसान नहीं रह गया है.. हमेशा उसमें लगे रहना पड़ता है न ...”
“किसी भी तरह का बिज़नेस कभी भी आसान नहीं था मनसुख जी.. न है और न रहेगा.. पर मैं जो डील के बारे में आपसे बात कर रहा हूँ.. ये जो प्रस्ताव है.. ये क्या किसी भी नज़रिए से कम है?”
“नहीं .. कम तो नहीं.. पर...” आवाज़ से लगा मानो मनसुख कुछ स्वीकार करने में हिचकिचा रहा था..
“पर??”
“अब क्या बताऊँ... डील है तो....”
“मनसुख जी... ज़रा ठन्डे दिमाग और एक बिज़नेसमैन के दृष्टिकोण से सोचिये... क्या पचास लाख रुपए कम होते हैं?”
“सोचना क्या है इसमें... बिल्कुल कम नहीं होते...”
“तो फ़िर समस्या क्या है?”
“समस्या यही है की मन नहीं मान रहा है.” ये आवाज़ काफ़ी सपाट सा आया. शायद मनसुख ने भी ऐसे ही सपाट तरीके से ही बोला हो वहाँ.
“अरे! अब ये क्या बात हुई मनसुख जी.. प्रस्ताव पर विचार करने का इरादा है.. विचार कर भी रहे हैं.. पर साथ ही कहते हैं की मन नहीं मान रहा है.?! ऐसे कैसे चलेगा.. और तो और आप स्वयं ये मान रहे हैं कि पचास लाख रुपया कम नहीं होते ... कुछ तो विचार क्लियर रखिए मालिक!”
काफ़ी शिकायती लहजा था ये आलोक की तरफ़ से.
बिल्कुल की छोटे से बच्चे की तरह.
मैं और मोना दोनों इसे सुनकर एक दूसरे की ओर देखते हुए हँस दिए.
“हाँ भई, मैं भी मानता हूँ की निर्णय लेने में थोड़ा विलम्ब हो रहा है मेरी ओर से ...”
“विलम्ब का कारण? .... अब ये फ़िर न कहना की मन नहीं मान रहा है.”
मनसुख की बात को बीच में ही काटते हुए आलोक पूछ बैठा..
“कारण ये है कि ये जो अमाउंट... पचास लाख की बात कर रहे हो... इसकी सिर्फ़ पेशकश हुई है.”
“तो?”
“तो ये.. की ये सिर्फ़ पेशकश है.. हासिल की क्या गारंटी है...?”
“हासिल की??!”
“हाँ भई.. देखो .. साफ़ बात कहता हूँ.. मैं एक बिज़नेसमैन हूँ .. बचपन से ही अपनी पूरी फैमिली को बिज़नेस करते देखा है.. और एक बात मोटे तौर पर सीखी है की बिज़नेस में डील के समय और ख़ुद डील में; हमेशा --- हमेशा पारदर्शिता होनी चाहिए. साथ ही दम होनी चाहिए.”
“ओके.. तो इस डील में ...?”
“इस डील में वैसा दम नहीं ... और अगर मान भी लूँ की दम है.. तो इतनी तो पक्की दिख ही रही है कि इसमें पारदर्शिता नहीं है.”
“क्या बात कर रहे हो मालिक...!”
“सही बात कर रहा हूँ बच्चे.”
मनसुख के इसबार के वाक्य में अत्यंत ही गम्भीरता का पुट था..
कुछ सेकंड्स की शांति छा गई..
शायद आलोक ने मनसुख की तरफ़ से ऐसी गम्भीरता का कल्पना नहीं किया था इसलिए शायद सहम गया था उन सेकंड्स भर के लिए.
डिवाइस से दोबारा आवाज़ आई,
“मनसुख जी... हासिल की पूरी गारंटी है..”
“कहाँ है गारंटी ... किस तरह का गारंटी...?”
“अरे मालिक... मेरा विश्वास कीजिए.. हासिल की पूरी गारंटी है.. फूलप्रूफ़ प्लान है... फ़ेल होने का सवाल ही नहीं है.”
“हाहाहा ...”
“क्या हुआ ... हँस क्यों रहे हो आप?”
“बताता हूँ.. पहले ये बताओ.. कभी जेल गए हो?”
“नहीं ... अभी तक ऐसा दुर्भाग्य नहीं हुआ है. वैसा भी नया हूँ धंधे में.. अधिक दिन नहीं हुआ है.. पर क्यों पूछा आपने ऐसा?”
“न जाने कितने ही जेल भरे पड़े हैं तुम्हारे जैसे लोगों से जो कभी समझते थे की उनका प्लान पूरा टाइट है .. फूलप्रूफ़ है.. जो कभी फ़ेल नहीं हो सकती!”
“अरे बकलोल रहे होंगे ऐसे लोग...”
“जो की तुम नहीं हो..”
“ना.. कोई सवाल ही नही इसमें.”
“क्या प्रूफ है भई इसका?”
“प्रूफ तो मैं खुद हूँ.. क्या आपको ऐसा लगता है कि मैं किसी ऐसी प्लान का हिस्सा बनूँगा जिससे मुझे जेल जाना पड़े?”
“जितना तुम्हें जान पाया हूँ; उसके आधार पर तो नहीं लगते हो.”
“तो फ़िर.. ?”
“अरे यार... समझो बात को.. पेशकश तुम्हारे हवाले से आया है. जो मास्टरमाइंड है मैं उसे नहीं जानता.. सामने अभी तक आया नहीं.. ऊपर से इतना रिस्की प्लान.. अब तुम्हीं बताओ की मैं कैसे किसी आदमी की कोई ऐसी पेशकश को स्वीकार करूँ जिसे मैं जानता तक नहीं और जो सामने नहीं आता ... यहाँ तक की फ़ोन तक पर वह बात नहीं कर सकता.”
“ओह.. तो ये बात है..”
“हाँ भई... यही बात है.”
“मैं आपको प्लान और नाम .. दोनों बताऊंगा.. पर शर्त यही एक है...”
“क्या शर्त है...?”
“मैं आपको प्लान और नाम दोनों बताऊंगा पर तभी जब आप हामी भरेंगे.”
“हाहाहा... बहुत मजाकिया हो यार.. ख़ुद सोचो.. मेरे हामी भर लेने से अगर तुम मुझे अपना प्लान और नाम --- दोनों बताओगे.. तो कहीं मुसीबत में नहीं फंस जाओगे?”
“वह कैसे?”
“अरे भई... मेरे हामी पर भारत सरकार का मुहर तो नहीं लगा होगा न...? हामी भर के बाद में मैं मुकर गया तो..? और अगर तुम्हारे प्लान के बारे में पुलिस में खबर कर दिया तो??”
“नहीं.. आप ऐसा नहीं करेंगे..”
“हैं??”
“जी.. बल्कि स्पष्ट रूप से कहूँ तो आप ऐसा कर ही नहीं सकते..”
“अच्छा..!! ऐसा कैसे... कौन रोकेगा मुझे?”
“है एक आदमी.”
“कौन.. तुम्हारा वो मास्टरमाइंड?”
“जी.”
“नाम क्या है उसका?”
“इस प्रस्ताव के लिए हामी भर रहे हैं आप?”
“अहहम्म....”
“सोच लीजिए... मैं अपनी तरफ़ से आपको एक सप्ताह और देता हूँ.. एक सप्ताह बाद हम यहीं मिलेंगे..ओके..?”
“और अगर मैं हामी न भरा तो?”
“तो कोई बात नहीं.. आप अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते...”
“और तुम्हारा वो मास्टरमाइंड?”
“वो भी अपने रास्ते.”
“पक्का ना? बाद में मुझे फ़ोर्स तो नहीं किया जाएगा.... अगर मैं मुकर गया तो..?”
“बिल्कुल पक्का... प्रॉमिस.”
“ठीक है भई... तब ठीक एक सप्ताह बाद यहीं मिलते हैं.”
“ओके.. पहले आप.”
“मतलब?”
“पहले आप ..”
“ओह समझा... मतलब मैं पहले जाऊँ?”
“जी.”
“ठीक है.. विदा!”
“जी.. विदा...”
फ़िर..
कुछ खिसकने की आवाज़ आई... चेयर होगा. फ़िर, चलने की आवाज़ और फ़िर थोड़ी निस्तब्धता..
फ़िर चेयर खिसकने की आवाज़...
फ़िर चुप्पी.
इतने पर मोना ने डिवाइस के स्विच को ऑफ कर दिया. मेरी ओर देखी.. मैं आलरेडी गहरी सोच में डूब गया था.
“क्या सोच रहे हो?”
“बहुत कुछ.”
“क्या लगता है तुम्हें .. कौन हो सकता है इनका मास्टर माइंड? और प्लान क्या हो सकता है?”
“प्लान का तो पता नहीं.. वह तो समय आने पर ही पता चलेगा.. पर...”
“पर क्या?”
“पता नहीं मुझे न जाने ऐसा क्यों लग रहा है की जैसे मैं इनके इस.. इस मास्टर माइंड को जानता हूँ.”
“क्या.. सच में?”
“नहीं.. सच में नहीं.. आई मीन, अंदाज़ा है... बल्कि.. अंदाज़ा लगा रहा हूँ...”
“तो.. तुम्हारे अंदाज़े से ऐसा कौन हो सकता है?”
मोना के इस प्रश्न का मैंने कोई उत्तर देने के जगह एक ‘कास्टर’ सुलगा लिया.
क्रमशः
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