Kamukta kahani अनौखा जाल
09-12-2020, 01:07 PM,
#46
RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ४३)

“क्या... क्या कहा तुमने??”

शंकर एकदम से हड़बड़ा गया.

खाना खाते खाते एकदम से रुक गया और आश्चर्य से आँखें बड़ी बड़ी कर मेरी ओर देखने लगा.

रविवार का दिन है और आज हम दोनों लज़ीज़ नाम के एक बार - कम – रेस्टोरेंट में बैठे खाना खा रहे हैं.

शंकर अपने पुराने काम का रिपोर्ट दे रहा था .... कि तभी मैंने टोकते हुए उसे ऐसी बात बताई की उसका खाना कुछ सेकंड्स के लिए गले में ही अटका रह गया.

ग्लास में से पानी गटक के दुबारा पूछा,

“क्या कह रहे हो तुम...?”

मैं बिल्कुल शांतचित सा बैठा, एक बड़े चम्मच से बिरयानी अपने मुँह में डालते हुए बोला,

“वही जो तुमने अभी अभी सुना.”

“तुम वहाँ जाना चाहते हो..?”

“हाँ..”

“पर क्यों?”

“देखना चाहता हूँ... ख़ुद.”

“मुझ पर भरोसा नहीं?”

“है.. पर अपनी आँखों देखी से तसल्ली होने में एक अलग बात है.”

“पर... एक्साक्ट्ली क्या देखना चाहते हो?”

“देखना उन्ही सामानों को चाहता हूँ जिनके बारे में तुम बता रहे थे उस दिन.”

“कोई विशेष कारण?”

इतनी देर में मेरे दिमाग में आज से कुछ समय पहले उस पुराने बिल्डिंग में मेरे ही द्वारा देखे गए उन पेटियों में बंद हथियार और ड्रग्स के सामान वाला सीन चलने लगा था.

दोनों जगह .. दो अलग जगह ... में मौजूद हथियार और ड्रग्स का आपस में कोई लिंक है भी या नहीं; इस बात को जाने बिना मैं शंकर को फ़िलहाल ज़्यादा कुछ बताने के मूड में नहीं था.

इसलिए जवाब कुछ वैसा ही दिया,

“कारण तो उन सामानों को देखने के बाद ही बता पाऊँगा और रही बात विशेष की... तो ये भी उन सामानों पर निर्भर करता है.”

मेरे इस तरह गोल मोल जवाब देने से शंकर समझ गया कि मैं तुरंत कुछ कहना सुनना नहीं चाहता. अतः वो भी चुपचाप मेरे साथ ही खाने लगा.

----

रात डेढ़ बजे हम दोनों मिले.. मनोरम पार्क के कुछ पहले.

शंकर के साथ उसके दो आदमी भी थे.

उन दोनों को शंकर ने अलग अलग जगह तैनात होने का निर्देश दिया और फ़िर मुझे साथ लेकर उस तरफ़ चल दिया जहाँ उस रद्दी वाले की दुकान है.

ताला खोलना शंकर के बाएँ हाथ का काम लगा. दो ही सेकंड में ताला और दरवाज़ा दोनों खुला.

दोनों साथ ही भीतर दाख़िल हुए.

घुप्प अँधेरा छाया हुआ है ... हाथ को हाथ नहीं सूझता...

हम दोनों ने अपना अपना पॉकेट टॉर्च निकाला और बड़ी सावधानी से अंदर चलते चले गए.

जल्द ही हम अंदर के एक कमरे में घुसे जहाँ अखबारों को एक के ऊपर एक रख कर करीब करीब ५ – ६ फ़ीट के आठ आदमकद बंडल बना कर रस्सियों से बाँध कर एक लाइन से आपस में सटा कर खड़ा कर के रखा गया है.

शंकर दो बंडलों को हटाने लगा... मैंने भी उसकी सहायता में हाथ लगाया..

उन खड़े बंडलों के हटते ही एक छोटा दरवाज़ा नज़र आया. ताला लगा था. शंकर ने फ़िर अपना कमाल दिखाया. ताला खोल कर अंदर घुसे.

शंकर ने स्विच बोर्ड दिखाया..

मैंने कुछ स्विच को ट्राई किया पर बत्ती जली नहीं.

अंततः हमें अपने टॉर्च पर ही भरोसा करना पड़ा.

टॉर्च की रोशनी जितनी दूर जा सकती है उतनी दूर तक देखने का प्रयास किया.

रूम बहुत बड़ा है ... और चारों तरफ़ पेटियाँ ही पेटियाँ.

शंकर ने तीन चार पेटियों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया.

उसी ने अपने पैंट के एक पॉकेट से चाकू निकाला और एक पेटी के बाजू से घुसा कर थोड़ा खोला .. दोनों की इकट्ठी टॉर्च की रोशनी में साफ़ नज़र आया की उसमें मशीन गन रखी हुई है.. एक नहीं.. पाँच!!

इसी तरह दो और पेटियाँ खोला हमने और पहले वाले पेटी की तरह ही बाकी दोनों में भी अत्याधुनिक हथियार रखे हुए थे.

फ़िर शंकर मुझे दूसरी तरफ़ ले गया ..

वहाँ रखे पेटियों को भी उसने उसी तरीके से खोला ... यहाँ इन पेटियों में छोटे छोटे पैकेट्स हैं जिनमें भूरे रंग के थोड़े थोड़े परिमाण में कोई पदार्थ भरा हुआ है.

मैंने शंकर को चार पेटियों को खोले रखने को कहा और हर पेटी में से चार से पाँच पैकेट निकाल कर बड़े ध्यान से देखता और नाक के क़रीब ला कर सूँघता.. फ़िर उन पैकेट्स को पेटियों में रख कर पेटियों को पूर्ववत बंद कर दिया.

शंकर को ले कर मैं उसी दिशा में आखिर के पेटियों के पास पहुँचा और उन्हीं में से चार पेटियों को खोल कर पैकेट्स निकाल कर गौर से देखा और सूंघा...

यही काम मैंने बीच के पेटियों में भरे पैकेट्स के साथ भी किया.

शंकर को पूछने को हुआ पर मैंने इशारे से उसे पहले बाहर चलने को बोला ...

उस कमरे से बाहर निकल कर दरवाज़े पर ताला लगाया..

अखबारों के उन बंडल को पूर्ववत अपने स्थान पर रखा.

फ़िर उस कमरे से निकल कर हम सधे क़दमों से बाहर के कमरे में पहुंचे .. उस कमरे के चारों ओर टॉर्च की रोशनी से अच्छे से देखा. साधारण कमरा था.. और थोड़ी गंदगी भी थी.

बगल में ही एक मध्यम आकार का पाँच दराजों वाला टेबल था .. जिसमें दो दराज खुले पड़े थे.. अंदर कुछ नहीं था.

बाकी के तीन दराज लॉक्ड थे.

दोनों बाहर निकले.

मेन दरवाज़े पर ताला लगाया शंकर ने.

मेरी ओर मुड़ा.. कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उसके शर्ट के अंदर के पॉकेट में कोई चीज़ एक धीमी बीप की आवाज़ के साथ जल उठी. हम दोनों ही हड़बड़ा गए. शंकर ने अंदर हाथ डाल कर बाहर निकाला तो देखा कि वह एक छोटा सा गोल आकार का कोई खिलौना है. मेरे चेहरे पर थोड़ा झुँझलाहट उभर आया पर साथ ही एक मुस्कान भी.

“खिलौना रखने लगे?” व्यंग्य करता हुआ बोला.

पर देखा की शंकर बड़े आश्चर्य से उस खिलौने को देखता हुआ अपने पीछे के रोड की ओर देख रहा है.

“क्या हुआ?”

मैंने बड़ी तत्परता से उससे पूछा.

“सुनो, जल्दी कहीं छुप जाते हैं.”

शंकर गजब के तरीके से हड़बड़ा कर बोला.

मेरे कुछ पूछने या सोचने से पहले ही वो मुझे दुकान के चंद कदमों की दूरी पर मौजूद झाड़ियों के पीछे ले गया.

“हुआ क्या?”

काफ़ी सशंकित लहजे में पूछा मैं. घबराहट भी होने लगी थोड़ी बहुत.

झाड़ियों के पीछे छुपते हुए शंकर बोला,

“कोई इसी ओर आ रहा है.”

“तो?”

“खतरा है.”

“किससे? ज़रूरी थोड़े है कि जो कोई भी इस ओर आ रहा है; वो हमारे जान पहचान का होगा या फ़िर...”

“या फ़िर..?”

“या फ़िर ‘हमारी ही’ ओर आ रहा है?”

“वो पता नहीं.. पर रिस्क कौन ले?”

“हूं.”

शंकर की इस बात में दम है.. मैंने भी फिलहाल के लिए शांत रहना उचित समझा.

हालाँकि मेरा दिल इस बात का ज़ोर ज़ोर से चेतावनी देने लगा था कि आने वाला हो न हो, ज़रूर उस दुकान से वास्ता रखने वाला ही कोई हो सकता है.

अगले दो मिनट में ही हम दोनों का आशंका सही सिद्ध हुआ.

तीन कार आ कर रुकी.

तीनों की तीनों काली फ़िएट... लंबी..

कुछ लोग उतरे ..

अँधेरे में किसी का भी चेहरा पहचान पाना बहुत मुश्किल था.

दो आदमी सीधे दुकान की ओर गए.. दरवाज़ा खोला और अंदर घुस गए.

मैं और शंकर दोनों ही दम साधे चुप उन झाड़ियों के पीछे खुद को छुपाए बैठे तो हैं पर मच्छरों के आक्रमण और उनके डंक से खुद को संभाल या बचाए रख पाना बहुत मुश्किल हो रहा था.

कुछ ही देर में दुकान के अंदर गए दोनों आदमी बाहर निकले.

उनमें से एक आदमी बीच वाले कार के पिछले दरवाज़े के खिड़की के पास थोड़ा झुककर बोला,

“अंदर सब माल चौकस है...........”

यहीं पर मुझे कुछ ऐसा सुनाई दिया जिससे की मेरा माथा ठनका.

‘अंदर सब माल चौकस है.....’ इतने से वाक्य के अंत में उस आदमी ने कुछ ऐसा कहा जिससे की मेरे कान खड़े हो गए. अंतिम उस शब्द ने मुझे हैरत में डाल दिया पर तुरंत ही मैंने इसे अपना भ्रम माना और ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया.

इसी बीच मैंने शंकर की ओर देखा..

वो मेरी ओर एक नज़र देख कर दुबारा उस तरफ़ देखने लगा.

मेरी ही तरह वो काफ़ी चौकन्ना था.

उस पर से मैं नज़रें हटाने ही वाला था कि अचानक से मेरा ध्यान शंकर के दाएँ हाथ की तरफ़ गई... और इसी के साथ ही मानो मेरे पूरे शरीर में करंट सा दौड़ गया. आँखें आश्चर्य से बाहर निकलने को हो आईं.

हो भी क्यों न ...

शंकर के दाएँ हाथ में एक रिवाल्वर थी!

रेडी टू बी फायर अपॉन!!

रिवाल्वर मेरे लिए कोई नई बात बिल्कुल नहीं थी पर ये मैंने उम्मीद ही नहीं किया था की शंकर आज अपने साथ कोई रिवाल्वर ले आएगा. सच कहूं तो अपने साथ किसी तरह का कोई हथियार लाने का विचार तो मेरे दिमाग में आया ही नहीं था. वो तो बस आदतनुसार हमेशा की तरह एक पॉकेट नाइफ ही है आज मेरे पास.

और एक पॉकेट टॉर्च!

“पर इतना तो तय है कि मुखबीर हमारे गैंग में से ही कोई है.”

इस आवाज़ पर मेरा ध्यान फ़िर उन लोगों की ओर गया.

वे लोग आपस में ही बातें कर रहे थे....

“पर अंदर माल तो चौकस है जी...”

“हाँ .. है... पर अभी के लिए..”

“तो क्या किया जाए.. आपका क्या आदेश है... और पीछे उसका क्या करना है?”

“उसे बाहर निकालो और यहाँ मेरे सामने ले आओ.”

बीच वाले कार में बैठे शख्स ने बाहर खिड़की के सामने खड़े आदमी को आदेश दिया जिसका उसने और उसके दो और साथियों ने बड़ी मुस्तैदी से पालन किया.

पीछे वाले कार का पिछला दरवाज़ा खोल कर उसके अंदर से एक आदमी को लगभग खींचते – घसीटते हुए निकाला गया.

और बीच वाले कार के पिछले दरवाज़े के ठीक सामने चंद क़दमों के फासले पर ला कर उसके टांगो पर लात मार कर उसे घुटने के बल बैठाया.

“लाइट्स !”

दूसरा आदेश आया...

इसका भी फ़ौरन पालन हुआ.

तीन आदमियों ने तीन टॉर्च... शायद बड़ी वाली टॉर्च होगी... ज़्यादा पॉवर वाली.. उस बैठे हुए आदमी के चेहरे पर फोकस करके जलाया.. आदमी की आँखें चौंधिया गई.

वहाँ से दूर बैठे शंकर और मुझे अब कुछ स्पष्ट दिखने लगा.

उस आदमी के दोनों हाथ पीछे की ओर बंधे हुए थे और मुँह में एक कपड़ा ठूँस कर ऊपर से एक और कपड़ा बाँध दिया गया था जिससे वो लाख़ चाह कर भी चीख न सके.

उस बीच वाले कार का पिछला दरवाज़ा खुला...

एक शख्स बाहर निकला..

सधे कदमों से चलता हुआ उस आदमी के कुछ निकट पहुँचा ..

टॉर्च की रोशनी में भी उस आदमी का चेहरा डर से थर्राया हुआ था.. पूरा बदन काँप रहा था.. बोल न पाने की सूरत में बंधे मुँह से ही ‘घ... घं..’ करके कुछ बोल पाने का व्यर्थ प्रयास कर रहा था.

“इतना जो डर रहे हो... ये डर उस समय लगना चाहिए था जब तुम हमारे खिलाफ़ मुखबिरी के लिए तैयार हुए थे...”

इतना कहने के साथ ही सामने खड़े उस शख्स ने अपना हाथ उस आदमी की ओर सीधा किया ... टॉर्च की रोशनी में हाथ में थामा हुआ रिवाल्वर चमक सा उठा..

नाल की सीध उस आदमी के आँखों के ठीक बीचों बीच थी..

एक हल्की आवाज़ हुई...

“च्यूम!!!”

और इसी के साथ वह वहीँ धराशायी हो गया....

वो शख्स मुड़ा और जा कर कार में बैठ गया.

“अब इस बॉडी का क्या करना है?”

“करना क्या है.. ले जा कर उसी ठिकाने में जा कर फेंक आओ जहाँ यह सुबह शाम पैग पे पैग लगाता है.”

“जी, ठीक है.”

“चलो .. जल्दी करो... अब जल्दी निकलो सब यहाँ से..”

उस मरे हुए को पीछे के कार में लाद दिया गया ...

पहली वाली और बीच वाली कार एक साथ स्टार्ट हो कर बैक हो कर एक ओर निकल गई और तीसरी कार दूसरी ओर घूम कर चली गई.

उन लोगों के चले जाने के काफ़ी देर बाद हम दोनों को ख़ुद के वहाँ होने का एकाएक अहसास हुआ.

“ठीक हो?” शंकर ने पूछा...

“हाँ.. तुम?”

“हम्म.. मैं भी..चलो निकल चलते हैं यहाँ से.”

“हाँ .. जल्दी चलो.”

शंकर ने अपने शर्ट के अंदर हाथ डाल कर वही खिलौना नुमा चीज़ निकाला और ख़ास तरीके से तीन बार दबाया... इस बार आवाज़ नहीं हुआ पर वह हल्की नीली और हरी रोशनी से जल उठा.

थोड़ी ही देर... अंदाजन दस – बारह मिनट में एक एम्बेसडर आ कर दुकान के सामने रुकी.

फ़ौरन शंकर के हाथ में मौजूद वह खिलौना तीन बार धीमी ‘बीप’ के आवाज़ के साथ जल उठी.

शंकर ने मुझे चलने का इशारा किया.

दोनों झाड़ियों से निकले और एम्बेसडर की ओर बढ़ गए.

हमारे बैठते ही एम्बेसडर एक ओर चल दिया.

शंकर और मैं पीछे बैठे थे. गाड़ी शंकर का ही आदमी चला रहा था और ड्राइविंग सीट के बगल में ही शंकर का दूसरा आदमी बैठा था.

खिड़की से बाहर देखते हुए मैं रह रह के बार बार उस बीच वाले कार में बैठे शख्स और उसकी आवाज़ के बारे में सोच रहा था. बल्कि सच कहूं तो सोचने के लिए विवश हुआ जा रहा था. ऐसा होने का कारण फिलहाल मेरे लिए थोड़ा अस्पष्ट है. तह तक पहुँचने में समय लगेगा.

मैंने सिर दायीं ओर घूमा कर शंकर को देखा.

वह भी मेरी ही तरह खिड़की से बाहर देख रहा था.

साथ ही किसी चिंता में था.

उन लोगों के जाने के बाद से ही शंकर तनिक विचलित सा उठा था. चिंतित था. ऐसा लग रहा था मानो वो दिमाग पर ज़ोर दे कर कुछ सोच या समझ पाने का भरपूर प्रयास कर रहा हो.

मैंने भी उसे कह तो दिया था कि मैं ठीक हूँ पर सच कहूं तो पहली बार सामने से किसी का खून होते देख कर मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो गए थे.

आसमान बादलों से भर जाने के कारण तारे अब दिखाई नहीं दे रहे थे.

तेज़ हवा भी चलने लगी थी अब तक.

खिड़की पर अपना हाथ रख कर ठोढ़ी रखते हुए आँखें बंद कर लिया मैंने.

अब इतना तो तय था की आने वाले दिनों में बहुत कुछ होने वाला है.....

मेरा खुद का जीवन भी अब एक नई करवट लेगा और इसका ज़िम्मेवार भी मैं ही होऊँगा.

क्रमशः

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RE: Kamukta kahani अनौखा जाल - by desiaks - 09-12-2020, 01:07 PM

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