Kamukta kahani अनौखा जाल
09-12-2020, 01:07 PM,
#48
RE: Kamukta kahani अनौखा जाल
भाग ४५)

अखबार को पढ़ने के कुछ देर बाद मैं घर से निकल कर ‘नशा’ बार में पहुँचा जहाँ शंकर के होने की बात थी.

बार में शंकर मुझे बियर पीटा हुआ मिला.

मेरे बैठते ही एक मेरे लिए भी मँगवाया...

कुछ देर बियर की चुस्कियों के बाद जब दिमाग थोड़ा स्थिर हुआ तो बात बढ़ाने का दायित्व मैंने ही लिया,

“कुछ पढ़ा – सुना तुमने?”

शंकर – “हाँ”

“क्या लगता है?”

“किस बारे में?”

“अख़बार में छपी ख़बर के बारे में... उस हत्या के बारे में”

मेरे इस प्रश्न के साथ ही शंकर का चेहरा थोड़ा बुझ सा गया, चेहरे पर ऐसे भाव आए मानो खुद को किसी बात के लिए दोषी ठहराने का उसका जी कर रहा हो.

थोड़ा दुखी स्वर में बोला,

“मैं उसे जानता था.”

मैं – “किसे? वह आदमी जिसकी हत्या हुई?”

“हाँ”

सुनते ही मैं चौंकते हुए पूछा,

“क्या कह रहे हो?”

शंकर ने पूर्ववत दुखी स्वर में कहा,

“सच कह रहा हूँ.”

“कैसे जानते थे उसे?”

“अपने ही कम के लिए मैंने उसे नियुक्त किया था.. जासूसी के लिए.”

“किसकी जासूसी?”

“इंस्पेक्टर दत्ता की.”

अब तक दिमाग में जो नशा छाना शुरू हुआ था... शंकर के इस एक उत्तर ने एक झटके में सब धुआं बना कर हवा में उड़ा दिया...

अबकी बार तो और भी बुरी तरह से चौंक गया और ऊँची आवाज़ में बोल पड़ा,

“क्या?? इंस्पेक्टर दत्ता की?!!”

शंकर – “अरे आराम से भाई... मरवाओगे क्या?”

मैं अपलक शंकर की ओर देखने लगा..

बियर का एक अच्छा सा घूँट लेते हुए शंकर ने सिर्फ़ सहमति में अपना सिर हिलाया.

मुझे तो अभी भी अपने कानों पर यकीं नहीं हो रहा था.. खुद को संयत करता हुआ हुआ बोला,

“थोड़ा ठीक से बताओ मामला क्या है?”

बियर के ग्लास को दाएँ तरफ़ थोड़ा परे रख कर एक सिगरेट सुलगाया शंकर ने;

फ़िर,

“मैंने उसे महीने भर पहले नियुक्त किया था.. शहर में हो रहे आपराधिक घटनाओं और उनमें संलिप्त अपराधियों का यूँ बच कर निकल जाना कहीं न कहीं मेरे दिमाग में यह संदेह बैठा रहे थे कि हो न हो इन घटनाओं के बारे में जानकारी पूर्व ही किसी दूसरे पार्टी को मिल जा रही है और वह पार्टी निश्चय ही एक खास पॉवर रखती जो ऐसी घटनाओं में संलिप्त लोगों को सुरक्षित बचा ले जाती है. तुम्हारे कहे अनुसार मैंने बहुत जाँच की.. ख़ोज की पर सफलता हाथ न लगी. तब मैंने अपनी ओर से एक चाल चलने की सोची.

जितने भी पुलसिये ख़बरी/मुखबीर थे; सबके बारे में पता लगाने के लिए अपने आदमी फ़िट कर दिया. परिणाम जल्द ही मंगरू के रूप में मिला, उसे पैसे की सख्त ज़रुरत थी और उससे भी बड़ी बात यह कि वो किसी समय इंस्पेक्टर विनय का ख़बरी हुआ करता था. विनय के अचानक गायब हो जाने के बाद से बहारे की कमाई पर प्रभाव पड़ा था . मैंने अपने आदमियों के द्वारा मंगरू से बात की.. हमारे साथ काम करने के लिए मनाया. वो राज़ी हुआ और लगा हमारे लिए काम करने .. पर .. सिर्फ़ दो महीने ही काम कर सका.. पर इन दो महीनों में उसने बहुत सारे कमाल की ख़बरें ला कर दी. उसे ने ये ख़बर भी दी थी की पुलिस महकमा हर संभव प्रयास करने के बाद जब इंस्पेक्टर विनय को खोजने में नाकाम रही तब यह निर्णय लिया जाने लगा था कि विनय के केस को बंद कर दिया जाए..

पर पुलिस कमिश्नर निरंजन बोस , एसीपी आदित्य तिवारी और ख़ुद इंस्पेक्टर दत्ता ने एक कोशिश और करने का सोचा है. इन तीनो का कहना है कि अंतिम बार एक वृहद् और गहन छानबीन पर शायद इंस्पेक्टर विनय का कुछ पता चल सकता है. ख़ुद मंगरू का मानना है कि इंस्पेक्टर विनय को किसी ने गायब नहीं किया है.. बल्कि वह ख़ुद गायब हुआ है. हालाँकि उसका ऐसा मानने का कोई पुख्ता कारण उसके पास भी नहीं था.

और भी कई ख़बर मिलने की उम्मीद थी उससे... पर.....”

चेहरे पर अफ़सोस वाले भाव लिए शंकर ने सिर हिलाया .. फ़िर पास रखे बोतल को उठा कर अपने और मेरे ग्लास में परोसा ... और फ़िर बियर और सिगरेट दोनों बारी बारी से पीने लगा...

मंगरू के इस तरह से मर जाने का अफ़सोस अब मुझे भी होने लगा..

अपने हिस्से का बियर पीते हुए बोला,

“ज़रूर उसके बारे में किसी ने ख़बर लीक कर दिया था.”

शंकर – “तुम्हें ऐसा लगता है?”

“बिल्कुल.. तुम्हीं सोचो.. उसके बारे में तो सिर्फ़ तुम और तुम्हारे आदमी जानते थे... और शायद पुलिस महकमे में इंस्पेक्टर विनय के अलावा १-२ पुलिस वाले जानते होंगे. वो भेदिया जो कोई भी है.. इन्हीं लोगों में से कोई एक होगा...”

कहते हुए अपना ग्लास खाली किया और तुरंत ही एक सिगरेट सुलगा कर धुआँ छोड़ता हुआ बोला,

“पर एक बात समझ में नहीं आई.”

“वो क्या?”

“जिन लोगों ने उस रात मंगरू की हत्या की... उस दुकान के सामने ला कर क्यों की...? .. वो तो उसे कहीं और भी मार सकते थे... तो फ़िर.......”

“उस दुकान.....की ख़बर मंगरू ने ही दी थी.”

मेरी बात को बीच में काटते हुए शंकर बोला.

सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ मुझे.. क्योंकि अब तक मुझे थोड़ा थोड़ा अंदाज़ा हो गया था..

थोड़ा रुक कर बोला,

“ओह.. तभी उन में से दो आदमी उस दुकान में जाकर कुछ चेक किया और आ कर कहा की सब ठीक है... अगर कुछ ठीक नहीं होता या गायब होता तो वे लोग मंगरू से वहीँ सब कुछ उगलवाने की कोशिश करते .”

“हम्म.. ऐसा ही होता शायद. और वो दुकान तो नहीं.. गोदाम बोलना ही बेहतर है.”

“हाँ .. सही कहा तुमने.. अच्छा एक बात बताओ.. कोई भी गुप्त ख़बर देना जब देना होता था तो तुम्हें कैसे देता था..?”

“कौन...? मंगरू??”

“हाँ..”

“मैंने ख़ुद उसे एक बिल्डिंग के बारे में बताया था .. वह बिल्डिंग मेरे ही एक दोस्त का है जो अब यहाँ नहीं रहता.. वो बिल्डिंग.. जोकि एक घर है.. उसमें जाने के लिए एक बड़ा सा लोहे का गेट के अंदर से होकर घुसना पड़ता है.. घुसने के बाद घर तक जाने के लिए थोड़ी दूर चलना पड़ता है.. उससे पहले गेट से अंदर की ओर दस कदम चलने पर दाएँ साइड पेड़ - पौधों के झुरमुठ में एक लैटर बॉक्स / मेल बॉक्स है जो लकड़ी के तीन मोटे डालों के सहारे एक छोटा घर नुमा आकार में टिका हुआ है... ये मेल बॉक्स हमेशा एक स्पेशल ताले से बंद रहता है और खुलता भी है तो स्पेशल चाबी से ही.. ये स्पेशल ताला और चाबी मैंने खुद ही बनाया था... बॉक्स स्टील का है और चिट्ठी डालने के लिए ऊपरी हिस्से में एक पतला सा गैप है. मंगरू के लिए मेरा निर्देश यही था कि उसे जब भी कोई विशेष या कोई गुप्त बात बतानी हो तो एक कागज़ में लिख कर उसी मेल बॉक्स में डाल डाल दे. सप्ताह के सातों दिन मैं ख़ुद वहाँ जा कर उस मेल बॉक्स को चेक करता था. बहुत बार उसमें से मंगरू के लिखे कई कागज़ मिले जिनमें अक्सर दूसरे कई और चिट्ठीयों के अलावा मंगरू के भी लिखे कागज़ होते थे..”

“हम्म.. तो .. उस दुकान .. या गोदाम.. जो भी कहो... उसके बारे में मंगरू ने तुम्हें तुम्हारे इसी बताए तरीके से ख़बर दिया था?”

“हाँ.. पहले तो उसकी इस ख़बर में मुझे कुछ झोल लगा था.. इसलिए मैंने अपने आदमी भेजा और इसको अपने सामने उपस्थित किया.. फ़िर आराम से पूछा.. उसने मुझे बताया की उसे शक है कि एक दुकान में कुछ बहुत ही गलत काम हो रहा है.. क्या गलत काम हो रहा है ...यह वो बता न पाया.. लेकिन अपने शक पर उसे इस कदर भरोसा था कि यहाँ तक कह दिया था की अगर वहाँ कुछ न मिले तो मैं चाहूँ तो उसे फ़ौरन मरवा दूँ.. और देखो.. मिलने को तो बहुत कुछ मिला पर फ़िर भी वो मारा गया.”

निराशा के भाव एक बार फ़िर उसके चेहरे पर दिखाई देने लगे.

“लगता है तुम्हारा ख़ास आदमी बन गया था वह..”

“ख़ास का तो पता नहीं.. पर ऐसे आदमी.. इतने काम के आदमी हमेशा मिला नहीं करते.”

“मंगरू ने कुछ बताया था तुम्हें... की उसे उस दुकान पर कैसे शक हुआ था...?”

“हाँ.. मैंने भी यही पूछा था.. तो उसने बताया था की पिछले २-३ महीने से कुछेक इलाकों के घरों पर उसे अनायास ही संदेह हुआ था.. उसका मानना था की इन घरों में कुछ ऐसा था जिसका सम्बन्ध उस दुकान से था ...और वो भी गैर कानूनी रूप से. इससे ज़्यादा कुछ न बोला वो.”

“तुम्हें चेहरे से पहचानता था वो?”

“नहीं... मैं जल्द अपने किसी भी आदमी के सामने ऐसे ही नहीं आता.. सिर्फ़ दो ने ही मुझे देखा है और काफ़ी भरोसे के हैं.. मंगरू से मैं हमेशा अँधेरे की ओट में बात करता... चाहे कुछ भी हो जाए.. अपने चेहरे पर रोशनी नहीं पड़ने देता और आवाज़ भी बदल कर बात करता...”

“हम्म.. ठीक है..”

“अभय.. अब तुम एक बात बताओ.. आख़िर क्या बात है की तुम उस रात उस दुकान... सॉरी.. गोदाम में .. एक एक कर कई साड़ी पेटियों को खोल खोल कर देख रहे थे... और कुछ पेटियों में से तुमने पैकेट्स निकाल कर सूंघा भी था... क्यों?”

“हाहा.. क्यों.. तुम्हें नहीं सूझी उन पैकेट्स को सूँघने की?”

“सूझी थी.. पर ज़रूरी नहीं समझा..”

“अगर सूँघते तब पता लगता..”

“ठीक है.. अब तुम्हीं बता दो.”

“शुरू के और अंत के पेटियों में जो पैकेट्स थे उनमें वाकई ड्रग्स थे और असली थे... पर बीच के पेटियों में........”

“बीच के पेटियों में??”

“बीच के पेटियों में जो पैकेट्स थे वो ड्रग्स के नहीं थे.. ड्रग्स जैसे दिखने में ज़रूर थे ... मगर ड्रग्स नहीं थे...”

“व्हाट?!!” अविश्वास से शंकर की आँखें चौड़ी हो गईं.. कुछ इस तरह से चौंका था वो कि कुछ पलों के लिए उसे ये समझ ही नहीं आया की अब आगे क्या बोले..

मैंने बात जारी रखा,

“इतना ही नहीं.. वहाँ कई पेटियाँ ऐसी भी थीं जिनमें अत्याधुनिक हथियार रखे हुए थे.. राईट?”

“हाँ..”

“वेल,... कुछ पेटियों में नकली ड्रग्स की तरह ही नकली हथियार रखे हुए थे..”

मेरी इस बात को सुन कर शंकर मेरी ओर एकटक देखता रहा.. शायद वो अपने हिसाब से ड्रग्स और हथियारों के नकली होने के गणित को सुलझाने लगा होगा या फ़िर नकली ड्रग्स वाली बात के जैसा ही नकली हथियारों के बारे में सुन कर उसे दोबारा अपने कानों पर विश्वास न हो रहा हो..

किसी तरह उसके मुँह से निकला,

“इन सबका मतलब क्या हुआ?”

“मतलब यही हुआ की कोई इन नकली सामानों के साथ असली सामानों की अदला बदली करना चाहता है.. ऐसा मेरा अंदाज़ा है...”

“सच बताओ.. ऐसा तुम्हारा अंदाज़ा है या तुम कुछ जानते हो इस मामले में और मुझे बताना नहीं चाहते.. ? क्योंकि जब से तुम्हारे साथ हूँ... आज तक तो तुम्हारा कोई अंदाज़ा गलत नहीं हुआ.”

“ऊपरवाले की दया है.”

“चलो ड्रग्स का तो मान लिया की वो नकली थे.. लेकिन.. ये तुम कैसे कह सकते हो कि हथियार भी नकली थे..?”

“बैरल से ..”

“ओह... ह्म्म्म”

फ़िर जैसे अचानक से शंकर को कुछ याद आया; तपाक से बोला,

“अरे.. देखो... एक और खास बात तो मैं तुम्हें बताने ही भूल गया था...”

“ठीक है.. अब याद आ गया है तो बोल दो.”

“मुझे अपने एक और काबिल ख़बरी से पता चला है की इस शहर में अवैध हथियारों का धंधा कोई अगर कर सकता है तो वो है डिकोस्टा .. हालाँकि और भी कई ऐसे हैं जो ये धंधा यहाँ कर सकते हैं पर डिकोस्टा के जैसा नहीं.”

डिकोस्टा!

ये नाम मेरे कानों में पड़ते ही मेरे शरीर में जैसे करंट सा लगा..

तुरंत ही याद आ गया की ये नाम मैंने उस दिन उस टूटे से मकान के ऊपरी तल्ले पर वहाँ मौजूद कुछ लोगों के मुँह से सुना था..

अनभिज्ञ बनता हुआ बोला,

“अब भई.. ये डिकोस्टा कौन है?”

“क्राइम की दुनिया में एक उभरता और चमकता नाम है.. नाम क्या सितारा बोलो सितारा... ऐसे ऐसे कारनामों को अंजाम दिया है इसने की क्या बताऊँ... इस देश के लगभग आधे से ज़्यादा शहरों में इसके ठिकाने हैं और उतने ही पुलिस थानों में इसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज है. तुमने कभी सुना नहीं इसके बारे में ? ... कमाल है.”

“सुना हूँ... पर कभी ज़्यादा जानने को न अवसर मिला और न दिल किया.”

“हम्म.. ओके.. एक खास बात और है..”

“वो क्या?”

“उसके क्राइम और फाइनेंस .... साथ ही जीवन से जुड़ी कई बातें एक फ़ाइल में कलमबद्ध है और हमारे ही शहर के इसी पुलिस थाने में रखा हुआ है. अगर वो किसी को मिल जाए तो समझो एक तरह से डिकोस्टा का कच्चा चिट्ठा हाथ लग गया.”

मैंने तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया. सिर्फ़ उसकी बातों को सुनता रहा.

थोड़ी देर बाद शंकर उठता हुआ बोला,

“अच्छा.. चलता हूँ.. कोई और ख़िदमत हो तो याद करना.”

“हाँ.. ठीक है...”

“घर में सब कैसे हैं...?”

“ठीक ही हैं... चाचा तो दो हफ्ते के लिए बाहर गए हुए हैं... घर पर मैं और चाची ही हैं बस.”

चाची की बात करते ही मुझे पिछले तीन चार दिनों से मेरा उनके साथ लगातार हो रहे संसर्ग याद आ गए..

“ओके.. अच्छे से रहना... निकलता हूँ अब.”

“हम्म.. ओके. टेक केयर.”

शंकर के जाने के बीस मिनट बाद मैं भी वहाँ से निकल कर सीधे घर पहुँचा.

और वहाँ से बगल में ही स्थित अपने इंस्टिट्यूट में गया.

वहाँ मेरे एक स्टाफ़ ने बताया कि किसी मोना नाम की लड़की का पिछले आधे घंटे में तीन बार फ़ोन आ चुका है और कहा है की मैं इंस्टिट्यूट आते ही उसे फ़ोन करूँ.

मैंने तुरंत मोना को फ़ोन लगाया.. उसने कहा की कुछ ज़रूरी बात करनी है इसलिए मैं फ़ौरन इंस्टिट्यूट से निकलूँ और हम लोगों के पसंदीदा कैफ़े में पहुँचू जल्द से जल्द..

उठ कर निकलने ही वाला था कि फ़ोन फ़िर घनघना उठा..

रिसीवर उठाया.. गोविंद था दूसरी ओर.

उसे भी कुछ इम्पोर्टेन्ट बात करनी है .. कहा की मिलना ज़रूरी है..

मैंने उसे उसी कैफ़े का नाम और एड्रेस दिया और जल्द पहुँचने को बोल कर वहाँ से निकल गया.

------

कैफ़े में बने एक अलग केबिन में मैं कॉफ़ी और सिगरेट लिए था और मोना एक कोल्डड्रिंक बोतल लिए बैठे थी..

५ मिनट पहले ही मैंने उसे कबाड़ीवाले, रद्दी कागज़, अख़बार और उस रात घटी घटनाओं के बारे में सब खुल कर बताया ... पर नकली ड्रग्स और हथियार के बारे में कुछ नहीं बताया.

अगले कुछ मिनटों तक वो कोल्ड ड्रिंक पीती रही और मैं भी धुआँ उड़ाता रहा.

फ़िर एकाएक पूछी,

“तुम्हें क्या सच में ऐसा लगता है कि तुम उस आवाज़ को पहचानते हो?”

“हाँ .. बिल्कुल.”

“कैसे भला..”

“क्योंकि उस आवाज़ को मैं हमेशा ही सुनता रहता हूँ.”

ये वाक्य बोलते बोलते मैं एकदम से सीरियस हो गया.. आँखें और और भवें सिकुड़ कर ऐसे हो गए जैसे कुछ सोच रहा हूँ और जो कुछ भी मैं सोच रहा हूँ ; उसपे मेरा पूरा भरोसा है.

मेरे इस तरह के गोल मोल बातों से मोना थोड़ा खीझ उठी,

“ओफ़्फ़ो... अरे साफ़ साफ़ बोलो न की अगर तुम उसे जानते या पहचानते हो तो आखिर वो है कौन?”

“दीप्ति!”

“अं..? क..कौन....?”

“दीप्ति..”

“कौन दीप्ति...”

मैं धीरे से मुस्कराया... मोना की ओर देखा और धीरे से ही पूछा,

“तुम नहीं जानती??”

मोना मेरी ओर विस्मय से अपलक देखती रही.. मुँह खुला ही रह गया.. पलकें झपकाना जैसे भूल ही गई..

बड़ी मुश्किल से उसके गले से आवाज़ निकली,

“स.. सच....?”

“हाँ.. सच...”

“कोई मजाक तो नहीं ना?”

“बिल्कुल नहीं.”

“ओह माई गॉड!! ... आई कैन नॉट बिलीव दिस..!!”

खुद को कुर्सी पर फैला कर पसरते हुए बोला,

”या.. मी टू.”

“आर यू श्योर??!!!... व ... वो .... नहीं नहीं... तुमसे कोई बहुत बड़ी गलती हो रही है.. ये वो नहीं हो सकती यार..”

“विश्वास करना बहुत ही कठिन है ये मैं जानता हूँ.. पर जो सच है उसे मैं बदल तो नहीं सकता न...”

मोना अपने सिर पर हाथ रख टेबल से कोहनी टिका कर बैठ गई..

अविश्वास और आश्चर्य से उसकी आँखें अभी भी बाहर की ओर निकली जा रही थीं.

तभी गोविंद केबिन में घुसा.

मैंने पहले ही काउंटर/रिसेप्शन में बोल रखा था की अगर कोई मुझे यानि अभय को खोजता हुआ आए तो उसे प्लीज़ मेरे केबिन में भेज दे.

गोविंद के साथ ही उस कैफ़े में काम करने वाला एक लड़का भी आया था.. इस बात को जाँच लेने की ये मुझे ही ढूँढ रहा था.

मेरे सिर हिला का सहमति देते ही वह लड़का वहाँ से चला गया.

गोविंद मेरे सामने की एक कुर्सी पर बैठ गया ... बैठते हुए आश्चर्य से मोना की ओर देखा और फ़िर मेरी ओर.

“मेरी पहचान की है..तुम बोलो.. क्यों मिलना चाह रहे थे.?”

“अम्म... कुछ.. कहना है.. “

“क्या कहना है..?”

गोविंद मोना की ओर देखा.. मानो समझ नहीं पा रहा हो कि इसके सामने कहना ठीक होगा या नहीं..

“कोई दिक्कत नहीं.. तुम इसके सामने बेहिचक सब कुछ कह सकते हो.”

मेरे इतना कहते ही गोविंद; बन्दूक की नली से निकली गोली की तरह बोल पड़ा,

“पुलिस को एक ख़ास बात पता चली है... पर पूरी तरह नहीं....”

बोलते बोलते वो हांफने लगा इसलिए उसे बीच में ही रोकते हुए पानी दिया.

पानी पिया.. थोड़ा शांत हुआ वो.

थोड़ा रुक कर बोलना शुरू किया उसने,

“पुलिस को ये बात पता चली है कि शहर में दो ख़ास जगह अवैध हथियारों और ड्रग्स की नई खेप आई है.. भारी मात्रा में.. और हाल फिलहाल नहीं तो भी कुछ दिनों या महीनों के अंदर शायद इस शहर में कुछ बड़ा होने वाला है. इन्हीं हथियारों में कुछ बम इतने ख़तरनाक हैं की उनमें से अगर दस भी फट जाएँ... शहर के अलग अलग जगहों में तो पूरा शहर पलक झपकते ही राख के ढेर में बदल सकता है.”

“हम्म.. ये तो वाकई बहुत परेशान और चिंता करने वाली बात है....”

“हाँ है तो सही.. पूरा पुलिस महकमे में इसी एक बात से हड़कंप मचा हुआ है. अगले दो तीन दिनों के अंदर अंदर ही पूरे शहर भर में तलाशी ली जाएगी. कोना कोना छाना जाएगा.”

“ह्म्म्म.. ठीक है... और दूसरी बात..?”

“कौन सी दूसरी बात?”

“तुमने आते ही कहा था न कि पुलिस को एक ख़ास बात पता चली है... पर पूरी तरह नहीं ... क्या पता नहीं चला है उन्हें पूरी तरह..?”

“ओह हाँ... वो ... पुलिस को अवैध हथियारों के बारे में तो पता चल गया है.. ये भी पता चला है की ऐसे अवैध माल दो जगहों पर मौजूद हैं... पर हैं कहाँ... ये पता नहीं चल पाया है... और इसलिए शायद पुलिस दो तीन दिन का टाइम ले रही है.”

“पुलिस अपनी जगह सही है.. पर मुझे कुछ और पता चला है और ख़बर पूरी तरह से सही है.”

“कैसी ख़बर?”

मैंने गोविंद को भी उस दुकान / गोदाम के बारे में सब कह सुनाया पर कुछ परिवर्तनों के साथ.. परिवर्तन बस इतना ही था की :-

पहला, उस दुकान की गतिविधियाँ संदिग्ध हैं और अवैध हथियारों की खेप अभी तक आया नहीं हैं ... वो आएगा आज से एक सप्ताह के बाद.

दूसरा, उस दरजी वाले दुकान के ऊपरी मंजिल पर अवैध हथियारों के कई खेप का आना जाना पिछले ५ महीनों से चल रहा है.

तीसरा, हमारे ही पुलिस थाने में माफ़िया डिकोस्टा से संबंधित एक फ़ाइल है जिसमें उसके बहुत से काले कारनामों और उसके पिछले कुछ सालों में पकड़ाए अवैध माल और उनसे संबंधित लेन – देन का पूरा ब्यौरा है. अगर उस फ़ाइल को स्टडी किया जाए तो डिकोस्टा के बारे में हमें या पुलिस को गौर करने लायक कुछ मिल सकता है.

जैसे मैंने शंकर की बातें सुनने के बाद तुरंत ही कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया था.. वैसे ही मेरी बातें सुनने के बाद गोविंद और मोना में से किसी ने भी तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया. पर एक बात मैंने नोटिस की और उसी से तनिक अचंभित भी हुआ.

हम तीनों के लिए ही एक एक बोतल कोल्डड्रिंक मँगवाया..

कोल्डड्रिंक पीते पीते ही मैंने अचानक ऐसा कुछ कहा की मोना और गोविंद; दोनों के ही होश उड़ गए.

साफ़ था, दोनों ने ही ऐसा कुछ एक्स्पेक्ट नहीं किया था.

“मोना.. गोविंद.. अब मैं जो बात कहने जा रहा हूँ.. उसे अच्छे से सुनो.. कान से सुनो और दिमाग में बैठा लो. एक सप्ताह बाद जब वो हथियारों का माल आएगा... तब उसके दो दिन बाद ही हमें वहाँ से उन हथियारों को हटाना होगा. किसी भी कीमत पर वे हथियार उन लोगों के किसी भी काम में नहीं आने चाहिए.”

गोविंद घबरा उठा.. हकलाते हुए कहा,

“म...म...मतलब...”

“मतलब की हमें माल गायब करना होगा.” मैंने निर्णायक स्वर में कहा.

“ठीक है.. पर होगा कैसे.. कोई तरकीब सोची है तुमने?” मोना पूछी.

मेरे कहने से पहले गोविंद बोल उठा,

“पर हम पुलिस को भी तो इन्फॉर्म कर सकते हैं...और क्या पता तुम्हारा ये तरकीब काम करेगा या नहीं?”

“हाँ .. तरकीब काम भी ज़रूर करेगा. पुलिस को बिना बताए करना होगा.. अगर बता दिया तो बहुत बड़ा रिस्क हो जाएगा... कैसे बताएँगे कि हमें ऐसी ख़बरें कहाँ से या कैसे मिली... मेरा ये तरकीब काम तो ज़रूर करेगा पर यहाँ थोड़ा खतरा है. हमें दो अलग दिन दो जगहों से दो चीज़ें गायब करनी है... एक तो हथियारों का वो माल और दूसरा................”

धीरे धीरे मैं दोनों को अपना प्लान समझाने लगा.

समझाते हुए मैंने देखा की गोविंद जहाँ घबरा रहा था.. मोना उतनी ही दृढ़ता से मेरी बातों को सुन व समझ रही थी.

करीब आधे घंटे के बाद प्लान समझाने के साथ साथ कोल्ड ड्रिंक भी ख़त्म हुआ.... इतनी देर में दो राउंड और कोल्ड ड्रिंक मंगवा लिया था मैंने.

अपने हिस्से की कोल्डड्रिंक खत्म करता हुआ गोविंद उठा,

“अच्छा, अब मैं चलता हूँ.. कुछ और भी काम हैं..”

“क्या काम है?”

“घर के ही काम हैं.”

“प्लान से संबंधित कुछ पूछना है?” मैंने दोनों की ओर देखा... दोनों ने ही ना में सिर हिलाया.. तब मैं गोविंद की ओर देखता हुआ बोला,

“अच्छा ठीक है.. तुम जाओ... पर जब कॉल करूँ तो मिलना...”

“हाँ .. बिल्कुल..”

चेहरे पर हंसी लिए गोविंद वहाँ से निकल गया.. मैं ऐसी हंसी को बहुत अच्छे से पहचानता हूँ.. बनावटी हंसी थी वो.. हँस कर कुछ छुपाने की कोशिश करना चाह रहा था. जाने से पहले कोल्डड्रिंक के पैसे देना चाहा पर मेरे मना करने पर सीधे ही निकल लिया.

मैं उठ कर केबिन से बाहर निकला और कैफ़े के मेन दरवाज़े; जो मोटे लकड़ियों से बना हुआ था...उसका ओट ले कर सामने... बाहर सड़क को पार कर दूसरी तरफ़ जाते गोविंद को देखने लगा..

गोविंद सड़क पार कर सामने के कई दुकानों में से एक के बाजू में गया.. वहाँ एक पीसीओ है.. लाल रंग का.. उसके सामने पहुँचा.. दरवाज़ा खोला.. एक कदम अंदर रखा... तनिक रुका... लगा की जैसे कुछ सोच रहा है... फ़िर पलट कर कैफ़े की ओर देखा... मैं तुरंत दरवाज़े की ओट में पूरी तरह आ गया.. दो मिनट रुक कर सिर को ज़रा सा बाहर निकालते हुए सड़क के उस पार देखा.. पीसीओ बंद था.. अंदर कोई नहीं था.. आश्चर्य.. कहाँ गया...

कैफ़े से बाहर निकल कर स्कूटर की ओर गया... उसको बस ऐसे ही इधर उधर देखते हुए चोर नज़रों से सड़क के दोनों ओर देखा.. गोविंद कहीं नहीं दिखा.

वापस कैफ़े में घुसा और केबिन की ओर बढ़ा..

केबिन के पास पहुँच कर अंदर घुसने ही वाला था कि मुझे याद आया,

‘जब गोविंद मुझे बता रहा था की पुलिस को शहर में दो जगह अवैध हथियारों का जखीरा होने का पता चला है और जब मैं भी उसे दो जगहों का पता बता रहा था तब मोना के चेहरे पर बेचैनी वाले भाव उभर आए थे.. और जैसे ही मैंने यह कहा कि थाने में डिकोस्टा से संबंधित फ़ाइल है जो उसका पूरा कच्चा चिट्ठा खोल सकते हैं तो उस समय मोना की आँखों में एक चमक थी.... मेरे प्लान को सुनते समझते हुए गोविंद जितना घबरा रहा था ; मोना लेकिन उतनी ही तत्पर और दृढ़ दिख रही थी.’

चक्कर क्या है....

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RE: Kamukta kahani अनौखा जाल - by desiaks - 09-12-2020, 01:07 PM

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