RE: DesiMasalaBoard साहस रोमांच और उत्तेजना के वो दिन
बेचारी को क्या पता था की वह सपना नहीं असलियत थी? जब धीरे धीरे सुनीता की तंद्रा टूटी तो उसने वास्तव में पाया की वह सचमुच में ही जस्सूजी की बाँहों और टाँगों के बिच में फँसी हुई थी। जस्सूजी का मोटा और लम्बा लण्ड उसकी गाँड़ की दरार को टोंच रहा था। हालांकि उसकी गाँड़ नंगी नहीं थी। बिच में साडी, घाघरा और पेंटी थी, वरना शायद जस्सूजी का लण्ड उसकी गाँड़ में या तो चूत में चला ही जाता। शायद सुनीता की गाँड़ में तो जस्सूजी का मोटा लण्ड घुस नहीं पाता पर चूत में तो जरूर वह चला ही जाता।
सुनीता ने यह भी अनुभव किया की वास्तव में ही जस्सूजी उसके दोनों स्तनों को बड़े प्यार से तो कभी बड़ी बेरहमी से दबाते, मसलते और कुचलते थे। वह इस अद्भुत अनुभव का कुछ देर तक आनंद लेती रही। वह यह सुनहरा मौक़ा गँवा देना नहीं चाहती थी। ऐसे ही थोड़ी देर पड़े रहने के बाद उसने सोचा की यदि वह ऐसे ही पड़ी रही तो शायद जस्सूजी उसे स्वीकृति मानकर उसकी साडी, घाघरा ऊपर कर देंगे और उसकी पेंटी को हटा कर उसको चोदने के लिए उस के ऊपर चढ़ जाएंगे और तब सुनीता उन्हें रोक नहीं पाएगी।
सुनीता ने धीरे से अपने स्तनों को सहलाते और दबाते हुए जस्सूजी के दोनों हाथ अपने हाथ में पकडे। जस्सूजी का विरोध ना करते हुए सुनीता ने उन्हें अपने स्तनोँ के ऊपर से नहीं हटाया। बस जस्सूजी के हाथों को अपने हाथों में प्यार से थामे रक्खा। जस्सूजी फिर भी बड़े प्यार से सुनीता के स्तनों को दबाते और सँवारते रहे। सुनीता ने जस्सूजी के हाथों को दबा कर यह संकेत दिया की वह जाग गयी थी। सुनीता ने फिर जस्सूजी के हाथों को ऊपर उठा कर अपने होठों से लगाया और दोनों हाथों को धीरे से बड़े प्यार से चूमा। फिर अपना सर घुमा कर सुनीता ने जस्सूजी की और देखा और मुस्काई।
हालांकि सुनीता जस्सूजी को आगे बढ़ने से रोकना जरूर चाहती थी पर उन्हें कोई सदमा भी नहीं देना चाहती थी। सुनीता खुद जस्सूजी से चुदवाना चाहती थी। पर उसे अपनी मर्यादा का पालन भी करना था। सुनीता ने धीरे से करवट बदली और जस्सूजी के हाथों और टाँगों की पकड़ को थोड़ा ढीले करते हुए वह पलटी और जस्सूजी के सामने चेहरे से चेहरा कर प्रस्तुत हुई।
सुनीता ने जस्सूजी जी की आँखों से आँखें मिलाई और हल्का सा मुस्कुराते हुए जस्सूजी को धीरे से कहा, "जस्सूजी, मैं आपके मन के भाव समझती हूँ। मैं जानती हूँ की आप क्या चाहते हैं। मेरे मन के भाव भी अलग नहीं हैं। जो आप चाहते हैं, वह मैं भी चाहती हूँ। जस्सूजी आप मुझे अपनी बनाना चाहते हो, तो मैं भी आपकी बनना चाहती हूँ। आप मेरे बदन की जंखना करते हो तो मैं भी आपके बदन से अपने बदन को पूरी तरह मिलाना चाहती हूँ। पर इसमें मुझे मेरी माँ को दिया हुआ वचन रोकता है।
मैं आपको इतना ही कहना चाहती हूँ की आप मेरे हो या नहीं यह मैं नहीं जानती, पर मैं आपको कहती हूँ की मैं मन कर्म और वचन से आपकी हूँ और रहूंगी। बस यह तन मैं आपको पूरी तरह से इस लिए नहीं सौंप सकती क्यूंकि मैं वचन से बंधी हूँ। इसके अलावा मैं पूरी तरह से आपकी ही हूँ। यदि आप मुझे आधा अधूरा स्वीकार कर सकते हो तो मुझे अपनी बाँहों में ही रहने दो और मुझे स्वीकार करो। बोलो क्या आप मुझे आधा अधूरा स्वीकार करने के लिए तैयार हो?"
यह सुनकर कर्नल साहब की आँखों में आँसू भर आये। उन्होंने कभी सोचा नहीं था की वास्तव में कोई उनसे इतना प्रेम कर सकता है। उन्होंने सुनीता को अपनी बाँहों में कस के जकड़ा और बोले, "सुनीता, मैं तुम्हें कोई भी रूप में कैसे भी अपनी ही मानता हूँ।"
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