RE: RajSharma Stories आई लव यू
"शीतल, शायद तुमने जल्दबाजी कर दी शादी में।"
"पता नहीं राज ... जो भी था, पर मैंने बहुत कुछ झेला है; अब मैं अपनी जिंदगी में मालविका के साथ खुश हूँ।"
उन्होंने ये भी बताया था
“राज, मेरे ससुराल के लोगों का मेरे साथ इतना बुरा बर्ताव था, कि तुम सोच भी नहीं सकते। मेरे हाथ पर ये जो जलने का निशान है, ये उन्होंने ही हमें दिया है। जिस शख्म से मैंने प्यार किया, वो मुझे मारता था, पीटता था, गंदी-गंदी गालियाँ देता था... लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता था कि वो शख्म मुझे कुछ कह भी सकता है। वो शराब पीते थे। तबियत खराब होती थी, तो मैं रात में अस्पताल लेकर जाती थी। उसी अस्पताल में मैं इवेंट मैनेजर की नौकरी करती थी, तो वहाँ के डॉक्टर मेरे लिए तुरंत तैयार खड़े रहते थे। घर आकर वो शख्म हमें गाली देता था और कहता था कि तेरे लिए अस्पताल में सब खड़े रहते हैं: तेरे और उन डॉक्टरों के बीच कुछ चक्कर होगा। मैं सोच नहीं सकती थी कि कोई कैसे मेरे बारे में इतनी गंदी चीजें सोच सकता है। मैं घर में अपने कमरे में होती थी और ससुराल के सारे लोग एक बंद कमरे में पता नहीं क्या बातें करते थे। मुझे उस घर में डर लगने लगा था। और जब मैंने अपनी आवाज उठानी शुरू की, तो मुझे मारा-पीटा गया। लेकिन वो सब भुलाकर मैं आज छोटी-छोटी खुशियों में जी रही हूँ।"
शीतल की इन बातों ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था। उनके बारे में जानकर मेरे मन में उनका सम्मान और बढ़ गया था। मैं चाहता था कि उनका हाथ पकड़कर गले से लगा न; लेकिन इतना आसान नहीं था ये सब। मैं उनसे यह भी नहीं कह सकता था कि मैं उन्हें पसंद करने लगा है, क्योंकि उन्होंने कहा था, "अब में किसी से प्यार नहीं कर सकती है। मेरे पास किसी को करने के लिए प्यार बचा ही नहीं है।"
शाम के आठ बज चुके थे। हम दोनों कमरे में एक साथ बैठे थे। काम के साथ-साथ एक दूसरे के साथ इधर-उधर की ढेर सारी बातें जरूर हो रहीं थीं, लेकिन हर बात शीतल की जिंदगी के आस-पास ही घूम रही थीं। अपनी जिंदगी की इतनी कठिनाइयों को भी वो ऐसे बयां कर रही थीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो। सच में, बहुत स्ट्रॉन्ग हैं वो। मैंने ये तो सोच लिया था कि चंडीगढ़ से लौटने पर हमारी दोस्ती का चैप्टर खत्म तो नहीं होगा। मैंने उनका एक अच्छा दोस्त बनने और उन्हें हर पल खुश रखने का इरादा अपने मन में कर लिया था।
मैं बच्चा नहीं था कि उनके दिल में जो चल रहा था, बो न समझ पाऊँ। मैं जान गया था कि उन्हें मेरे साथ बैठना, बातें करना, हंसना-खिलखिलाना अच्छा लग रहा था। एक पल के लिए भी मेरे बिना उस कमरे में रहना उनके लिए मुमकिन नहीं था। तभी तो मैं अपना कमराठोड़कर उनके साथ ही बैठा था।
शायद साढ़े नौ बजे होंगे। हमने खाना ऑर्डर किया। बड़े मजे से खाना खाया।
"बॉक पर चलेंगे? तुम्हें मीठा पान खिलाएंगे।'' मैंने पूछा।
"अरे वाह! चलिए।"
चंडीगढ़ में अगर कोई सबसे खूबसूरत जगह है, तो वो है रोज गार्डन। गजब का सुकून मिलता है वहाँ। रोज गार्डन में वाहनों का शोर लगभग थम ही चुका था। कुछ लोग सड़क किनारे घूम रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी। मैंने अपने हाथ पीछे की तरफ पकड़े हुए थे और शीतल के हाथ स्वेटशर्ट की जेबों में थे। ठंड तो लग रही थी उन्हें । मैं समझ भी सकता था... लेकिन उनका हाथ थामने की हिम्मत जुटाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था। अपनी बातों से ही मैं माहौल को गर्म रखने की कोशिश कर रहा था। शीतल मुझे पसंद करने लगी थीं। वो मेरे घर, मेरी गर्लफ्रेंड और मेरे अतीत के बारे में जानने को बेताब थीं। इन सब बातों में कब रोज गार्डन का चक्कर पूरा हो गया, पता ही नहीं चला। चाय और पान की दुकान पर लोगों की भीड़ देखकर उस सर्द मौसम में गर्माहट का छौंक जरूर लगा। अपने हाथों से मैंने उन्हें पान पेश जरूर किया था। शायद इस बॉक के चंद हसीन पलों में एक पल यह भी था।
दोस्ती और प्यार में एक फर्क तो है जनाब। दोस्ती में आप उस शख्स के सामने होते हैं, तो वो आपके लिए सब-कुछ होता है... लेकिन उस शख्स से दूर होने के बाद आप उसके बारे में हर पल नहीं सोच पाते हैं। लेकिन अगर आप किसी से प्यार करते हैं, तो वो शख्म आपके सामने हो या न हो, आप हर पल उसके बारे में सोचते हैं।
होटल आकर हम अलग-अलग कमरों में जरूर थे; लेकिन एक-दूसरे का खयाल हम दोनों के दिमाग में चल रहा था।
इस सबके साथ तीन दिन की यात्रा के दो दिन अब पूरे हो चुके थे। हम दोनों एक-दूसरे के लिए महत्व रखने लगे थे, लेकिन यह पल हमारे हाथों से रेत की तरह फिसल रहे थे। एक दिन बाद वापस दिल्ली लौट आना था, इस खयाल से हम दोनों ही डरे हुए थे। चंडीगढ़ की तीन दिन की इस यात्रा को मैं खत्म होने नहीं देना चाहता था। भगवान से माँगा था कि अगर मुझे कुछ देना चाहते हो, तो इन तीन दिनों को और लंबा कर दो। मैं चंडीगढ़ से लौटना नहीं चाहता था। मैं शीतल का साथ छोड़ना नहीं चाहता था। मैं बस उनके साथ, उनके सामने बैठना, और देखते रहना चाहता था...तब तक, जब तक वो मेरी आँखों पर अपनी नाजुक हथेलियाँ रखकर न कह दें- “राज, बस करिए: ऐसे देखोगे तो मैं तुम्हारे अंदर समा जाऊँगी।"
ठीक उसी तरह, जैसे ये दिन भी चाँद की रोशनी में समा चुका था।
दो साल पहले चंडीगढ़ में मैंने लगभग छह महीने बिताए थे। चंडीगढ़ ऑफिस के लोगों के अलावा वहाँ मेरे कई और भी दोस्त थे, जिनसे प्रोग्राम में आने से पहले यह वादा किया था कि मिलेंगे और मस्ती करेंगे। पहले दिन चंडीगढ़ ऑफिस में कुछ लोगों से मिलना हुआ और इसी दिन शाम को समीर, होटल में मिलने जरूर आया था।
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