RE: RajSharma Stories आई लव यू
"ठंड लग रही है शीतल?"- मैंने पूछा।
"हाँ...मेरे हाथ बहुत ठंडे हो गए हैं।"
"छकर दिखाओ, कितने ठंडे हैं हाथ।" मेरे तो दोनों हाथ ट्राउजर की पॉकट में थे। सिर्फ मेरे गाल थे, जिन्हें शीतल छ सकती थीं।
"अरे, बड़े चालू हो राज ।" शीतल ने कहा।
बो जानती थीं कि अगर मैंने राज को छुआ, तो गाल पर छना पड़ेगा। मैं भी यही चाहता था कि वो मेरे गालों को अपने ठंडे हाथों से छाएँ। शीतल और मैं इतने पास बैठे थे, कि पंद्रह डिग्री तापमान में हम दोनों को ठंड नहीं लग रही थी। ये छोटे-छोटे पल बेशकीमती हीरे-जवाहरातों से कम नहीं थे लेकिन एक डर मेरे मन में था। कल सुबह हम वापस दिल्ली चले जाएंगे और यह खूबसूरत यात्रा खत्म हो जाएगी। मैं इन तीन दिनों से बाहर निकलना नहीं चाहता था। मैं दिल्ली वापस नहीं आना चाहता था। मैं चाहता था कि ये तीन दिन वापस से शुरू हो जाएँ और तब तक रिवाइंड होते रहें, जब तक मेरे शरीर में एक भी साँस बचे।
"चलिए खाना खाते हैं। मैंने कहा। "हाँ, बहुत भूख लगी हैं हम ता।" उन्होंने उठते हुए कहा। हम दोनों खाने के स्टॉल की तरफ बढ़ रहे थे। प्लेट बिलकुल मेरे सामने रखी थीं। शीतल, पास खड़े टीम के कुछ लोगों से बात करने लगी। इसी बीच ऑफिस के एक सीनियर ने मुझे प्लेट ऑफर की।
प्यार में छोटी-छोटी चीजें बहुत मायने रखती हैं। एक-दूसरे का खयाल रखना, हर कदम एक-दूसरे के साथ चलना। वायदा किया था शीतल से कि अब तुम्हें एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ेंगे, तो उनसे पहले प्लेट में खाना कैसे ले सकता था। तभी तो काफी देर तक प्लेट लेकर उनका इंतजार करता रहा। जब उनकी बात खत्म हुई,तभी हमने साथ खाना लगाया और ओपन स्पेस से दूर जाकर सोफे पर बैठ गए। इस पल को साथ बिताने की खुशी और कल सुबह सब-कुछ खत्म हो जाने का दर्द हम दोनों के चेहरे पर साफ झलक रहा था। मैं शीतल से बहुत छोटा था... तो मैं उन्हें अपने दिल की बात नहीं बता सकता था। अपने अतीत की बात बताते वक्त उन्होंने कहा था कि हम अब किसी और को प्यार नहीं कर पाएंगे... शायद इसलिए भी उनसे अपने दिल की बात करने का खयाल अपने दिल और दिमाग से निकाल दिया था। बस मैं तो उन पलों को जी रहा था ,जो हम साथ बिता रहे थे।
प्रोग्राम तो खत्म हो चुका था, लेकिन हम दोनों ही वहाँ से जाना नहीं चाहते थे। फिर एक बार हम उसी मोड़ पर थे, जहाँ शीतल को बस से होटल लौटना था और मुझे कार से। होटल से वेन्यू तक आने और वेन्यू से होटल वापस जाने में बहुत कुछ बदल चुका था। अब हम दोनों एक सेकेंड भी अकेले नहीं रह सकते थे, शायद आसान नहीं था अब एक पल रहना एक-दूसरे के बिना। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। अगर कार और बस से जाना मैंने तय किया होता, तो इरादा बदल देता, लेकिन यह सब पहले से तय था। लेकिन वो कहते हैं न कि प्यार में इंसान दिमाग से नहीं, दिल से सोचता है, इसलिए मैंने ठान लिया कि बम से ही जाऊँगा। वेन्यू से बस की तरफ बढ़ते हुए हमारे कदम पीछे खिंच रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे हम अधूरे से वापस जा रहे हैं। सच्चाई भी थी... शीतल से दिल की बात किए बिना ये सब खत्म जो हो रहा था। "ठंड लग रही है?" मैंने रास्ते में पूछा था। "हाँ, बहुत।" शीतल ने जवाब दिया। मैं कर भी क्या सकता था? मुझे नहीं पता था कि उनके दिल में मेरे लिए क्या है। मुझे अब तक नहीं पता था कि वो क्या सोच रही हैं मेरे बारे में। मैं चाहकर भी उन्हें अपनी बाँहों में नहीं भर सकता था, मैं चाहकर भी उन्हें अपने सीने की गर्माहट नहीं दे सकता था। बस, बेबस की तरह बस के पास जाकर फुटपाथ पर बैठ गया। प्रोग्राम के लिए आए लोग एक-एक कर बस में चढ़ते जा रहे थे। शीतल भी मेरे पास फुटपाथ पर बैठ गई। शायद वो कुछ कहना चाहती थीं। कार छोड़कर उनके साथ बस में सफर करने का निर्णय तो हमने ले लिया था, लेकिन इसकी कोई बजह मेरे पास नहीं थी। मैं और शीतल बस की आखिरी सीट पर साथ-साथ बैठ गए थे। एक बार तो मेरे मन में आया कि दूसरी सीट पर बैठ जाऊँ, लेकिन खुद को उनके पास बैठने से रोक नहीं पाया।
बस चल पड़ी थी। मैं शीतल के साथ बैठा जरूर था लेकिन एक दूरी बनाकर। मैं नहीं चाहता था कि शीतल को कहीं भी ऐसा लगे कि मैं किसी तरह का चांस मार रहा हूँ उन पर।
“राज, मेरी घड़ी खोल दीजिएगा, मुझसे खुलती नहीं है ये।" "ओके, मैं खोल दूँगा।" मैंने जवाब दिया। मैं समझ ही नहीं पाया, कि जिस घड़ी को बो न जाने कब से पहन रही हैं, उनसे वो क्यों नहीं खुलती है? में ये भी नहीं समझ पा रहा था कि वो घड़ी मुझसे क्यों खुलवा रही है। उनकी नजरें बस मुझे ही देखे जा रही थीं। वो मुझे देखकर भी न देखने का बहाना कर रही थीं। बस अपनी रफ्तार में थी। होटल की दूरी भी अब ज्यादा नहीं थी। बस, जैसे-जैसे होटल की तरफ बढ़ रही थी, शीतल की माँसे घबराहट से तेज होती जा रही थीं।
शीतल बार-बार मुझसे पूछ रहीं थीं कि होटल आ गया? "अभी कितनी दूर है होटल?" लेकिन उनके इस प्रश्न में होटल पहुँचने की जल्दी नही थीं। बो बस ये जानना चाहती थीं कि हम कितनी और देर एक साथ है। शीतल ने बड़ी खोलने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था। मैंने भी उनके हाथ को ऐसे पकड़ा, कि सीधे घड़ी को ही मेरी उँगलियाँ छएँ। मैं चाहकर भी उनके इस हाथ को पकड़ नहीं सकता था। एक झटके में शीतल की वो घड़ी मैंने खोल दी, जो उनकी काफी कोशिश के बाद भी नहीं खुलती थी। अब उनको छुने के सारे बहाने धराशायी हो चुके थे। शीतल के चेहरे से भी साफ लगा रहा था, जैसे उन्होंने मुझे छने का हर मौका गंवा दिया हो।
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