RE: RajSharma Stories आई लव यू
चंडीगढ़ से लौटने के बाद अगले दिन हम ऑफिस में पहली बार मिलने वाले थे। ऑफिस में जिस शीतल से में मिलने वाला था, वो मेरा प्यार थीं और में उनका। चंडीगढ़ में हमारे दिल में एक-दूसरे के लिए प्यार था और अब हम दोनों की जुबां पर प्यार था। मैं बेसब्री से उस पल के इंतजार में था, जब ऑफिस में मेरी आँखें उन्हें देखती। ठीक 12 बजे मैं ऑफिस में था। शीतल एक प्रोग्राम में गई थीं और तकरीबन एक बजे ऑफिस आई थीं। उनके इंतजार में एक-एक पल एक-एक घंटे से कम नहीं लग रहा था। आखिरकार बो वक्त आया। लंच के बाद शीतल जब मेरे सामने आई, तो उनकी आँखें एक पल के लिए झुक गई। हाय-हलो के बाद उनकी धीरे से उठती नजरों ने मुझे इस कदर देखा था, जैसे पहाड़ से किसी नदी ने अभी बना शुरू किया हो।
जब आप किसी से प्यार करते हैं, तो चौबीस घंटे की एक-एक सेकेंड आपको बेहद खूबसूरत लगती है और हर सेकेंड आप बस उसी के बारे में सोचते हैं। मैं और शीतल एक ऑफिस में जरूर थे, लेकिन हमारे फ्लोर अलग-अलग थे। मुझे पाँचवें फ्लोर पर बैठना होता था और उनका डिपार्टमेंट टॉप फ्लोर यानि छठवें फ्लोर पर था। शीतल को ऑफिस ज्वाइन किए चार महीने ही हुए थे और मैंने इस ऑफिस में चार साल पूरे कर लिए थे।
शीतल के डिपार्टमेंट के सामने कैंटीन थी, म्बुली छत थी। जब भी काम से ब्रेक लेने का मन होता था, तो छत पर बुली हवा में घूमा करता था। लंच तो कैंटीन में होता ही था, दिन की एक चाय भी कैंटीन में ही होती थी। लेकिन इन चार सालों की नौकरी में मैं कभी इतनी बार टॉप फ्लोर पर नहीं गया, जितनी बार उस एक दिन में गया था।
शाम हो चुकी थी। शीतल के जाने का समय हो चुका था। "आई एम रेडी टू लेफ्ट'- उनका मैसेज था। "ओके, आई एम कमिंग ऑन टेरेस"- मैंने रिप्लाई किया। टॉप फ्लोर जाकर शीतल के साथ बाहर पाकिंग तक छोड़ने में काफी कुछ बदल चुका था। उन्हें ड्रॉप करने में एक जिम्मेदारी का अहसास हो रहा था। शीतल से जब भी दूर होने का जिक्र आता था, मन भर आता था।
इस देश के एक बड़े कवि हैं, डॉ. विष्णु सक्सेना। उन्होंने एक बेहद खूबसूरत लाइन लिखी है।
"जब भी कहते हो आप हमसे कि अब चलते हैं हमारी आँख से आँसू नहीं संभलते हैं अब न कहना कि संगे दिल नहीं रोते जितने दरिया हैं पहाड़ों से ही निकलते हैं।"
डॉ. विष्णु सक्सेना ने यह पंक्तियाँ शायद मेरी हालत को बयां करने को ही लिखी होंगी।
शीतल, स्कूटी से ऑफिस आती थीं। हम दोनों उनकी स्कूटी के पास खड़े होकर बात कर रहे थे। कुछ पल में वो जाने वाली थीं। धीरे-धीरे मैं अपनी बातों को खत्म करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन बातें तो बातें ही हैं, कब खत्म होती हैं।
"राज, हम लेट हो रहे हैं।"- शीतल ने कहा था।
"ओके, जाइए आप आराम से; अपना ध्यान रखना।"- मैंने मुस्कराते हुए रिप्लाई किया।
"हम्म, बाय!"- शीतल ने कहा।
“मुनिए , घर जाकर मैसेज कर दीजिएगा।"- मैंने कहा।
'हम्म' उन्होंने रिप्लाई किया।
शीतल को अपने घर पहुँचने में पैंतालीस मिनट लगते थे। ठीक छियालीस मिनट बाद मैंने उन्हें फोन किया। वो अपने घर में एंट्री ही कर रही थीं। बो ठीक से घर पहुंच चुकी हैं,
ये जानकर मैं भी ऑफिस से निकल गया था। _पूरे रास्ते मन में शीतल के साथ बिताए हर खूबसूरत पल को मैं याद कर रहा था। एक्टिवा अपने आप चल रही थी...तीन साल में शायद उसे भी मेरे घर का रास्ता याद हो गया था। अब एक्टिवा को ये बताने की जरूरत नहीं थी कि किधर जाना था। मैं शीतल के खयालों में ही घर पहुँच चुका था।
शीतल एक माँ भी थीं। दिनभर ऑफिस में उन्हें अपनी बेटी मालविका की चिंता रहती थी। एक चार-पाँच साल की नन्ही और बहुत प्यारी बच्ची उनका इंतजार कर रही होती थी। मालविका के लिए शीतल, टाइम से पहले ही ऑफिस से घर के लिए निकल जाती थीं। शीतल, घर पहुँचकर सबसे पहले उसे गोद में उठाती थीं। उसे अपने हाथों से खाना खिलाना और अपनी गोद में उसे मुलाना; घर जाकर सबसे जरूरी ये दो काम होते थे उनके।
मालविका उनकी जिंदगी थी; वो शीतल की ताकत थी, बो शीतल की शक्ति थी, वो शीतल की खुशी थी, वो उनकी साँसें थी, बो उनकी धड़कन थी... वो उनकी खुशी का कारण थी।
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