RE: RajSharma Stories आई लव यू
शीतल की इस शरारत ने मुझे पागल कर दिया था। मैं भूल गया था कि हम ऑफिस में हैं। मैं शीतल के होंठों को चूम रहा था, मैं उनकी आँखों को चूम रहा था, मैं उनकी गर्दन को चूम रहा था। कभी मैं उनके बालों को चूम रहा था। मेरे हाथ शीतल के बालों से होते हुए उनकी पीठ तक पहुंच चुके थे। शीतल का पूरा शरीर काँपने लगा था। एक झटके से शीतल मुझसे अलग हुई, तो मैं हैरान हो गया। शीतल इस कदर काँप रही थीं कि वो खड़ी भी नहीं हो पा रही थीं। बो सँभलती इससे पहले मैंने फिर उन्हें अपनी बाँहों में जकड़ लिया और फिर उनके होंठों को अपने होंठों की गिरफ्त में ले लिया। बाहर बादलों की वजह से अँधेरा हो चुका था। यही वजह थी कि डिपार्टमेंट के भीतर की दूधिया रोशनी ज्यादा निखर रही थी। प्यार में मुलगते दो शख्मों के बदन पहली बार आज मिले थे और इन अद्भुत रोमांचक पलों का गवाह बनी थी बारिश। आसमानी, बिजली की गड़गड़ाहट शीतल को डरा देती थी। शीतल के होंठ अभी भी मेरी गिरफ्त में थे। हम दोनों एक-दूसरे को भरपूर आनंद के साथ चखते जा रहे थे। शीतल शायद थक चुकी थीं।
“राज बस करिए।" उन्होंने घुटती हुई आवाज में कहा। शीतल के इतना कहने पर मैंने उनके होंठों को अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया। हम दोनों अभी भी एक-दूसरे की आँखों में देखते जा रहे थे। उनके चेहरे पर खुशी थी, लेकिन शीतल अब खड़ी नहीं हो पा रही थीं और बो सोफे पर बैठ गई थीं। उनकी धड़कनें अभी भी किसी दरेन की पटरियों की तरह धड़क रही थीं।
मैंने दो कॉफी ऑर्डर कर दी थीं। अब हम दोनों थोड़ा नार्मल हो रहे थे, पर दिमाग अभी भी काम नहीं कर रहा था। दो ही मिनट में पैंट्री ब्वाय शीतल की टेबल पर कॉफी रखकर चला गया। मैं शीतल की तरफ देखकर कॉफी का सिप ले रहा था और शीतल अपने हाथों से पकड़े हुए काफी मग में ही आँखें गड़ाए बैठी थीं। शीतल इतना शरमा रही थीं कि बो मेरी तरफ आँख उठाकर देख भी नहीं पा रही थीं। डिपार्टमेंट में सन्नाटा पसरा हुआ था। मैं जानता था, शीतल बात करने की हालत में नहीं हैं। ऐसी हालत अक्सर उनकी स्कूटी पर भी हो जाती थी, लेकिन में तब भी चुप ही रहता था।
बाहर बारिश थम चुकी थी। ऑफिस में लोग आने लगे थे। शीतल के डिपार्टमेंट के बाकी लोग भी अब आने लगे थे। कॉफी खत्म कर मैं शीतल की तरफ देखते हुए चुपचाप डिपार्टमेंट से बाहर निकल गया।
शाम के सात बजे थे अभी। तेज हवा चल रही थी और हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। मानसून से पहले की यह बारिश दिल्ली वालों को गर्मी से राहत दे रही थी। सुबह से इतनी बारिश हुई थी कि ऑफिस के आस-पास पानी भर गया था। छोटे-छोटे बच्चे बारिश के पानी में उछलकूद कर रहे थे। मैं और शीतल, ऑफिस की छत पर टहल रहे थे। चाय का कप हाथ में लेकर हम दोनों के कदम तो साथ-साथ बढ़ रहे थे, लेकिन दोनों के बीच सिर्फ सन्नाटा पसरा हुआ था। न जाने कितनी ही शामें मैंने और शीतल ने यूँ ही छत पर घूमते गुजारी थीं। शीतल, साथ टहलते-टहलते अचानक से सामने आकर कुछ बताने लगती थीं। बेफिक्र होकर उनका मुस्कराना और अपने हाथों से किसी भी भाव को समझाना मैं आज मिस कर रहा था।
“आज आप ज्यादा करीब नहीं आ गए थे हमारे?"- शीतल ने यह कहकर अपनी चुप्पी तोड़ी थी।
मेरे पास शीतल के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। नजर उठाकर देखा, तो शीतल मुस्कराकर मेरे चेहरे की तरफ देख रही थीं।
"क्या कहा आपने?"- मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा। "हमने...हमने कब कुछ कहा...कुछ भी तो नहीं।" उन्होंने जवाब दिया।
नेहा अक्सर ऐसा करती थीं। वो कुछ बोल देती थीं और फिर छोटे बच्चे की तरह कहती थीं, हमने कहाँ कुछ कहा। शीतल की इस बचकानी और बेहद प्यारी-सी हरकत के जवाब में मैं मुस्करा भर दिया।
“बताइए..आज आप ज्यादा पास नहीं आ गए थे हमारे!"- उन्होंने धीमी आवाज में फिर पूछा।
मैं एक बार फिर मुस्करा दिया था। "अगर हमारी जान अटक जाती तो? जानते हैं, हमारी जान हमारे आँखों में आ गई थी...आप हमारी आँखों में देख लेते हैं तो हम बेसुध हो जाते हैं और आज तो आपने..." इतना ही कह पाई थीं बो।
"शीतल, इस दुनिया में अगर मैं सबसे ज्यादा किसी को प्यार करता है, तो वो आप हैं और जब तक मैं आपके साथ हूँ, आपको कुछ नहीं हो सकता है; आपकी जान मैं क्या कोई नहीं ले सकता है।"
मैं जानता था कि जो दृश्य मेरे दिमाग में सुबह से चल रहा है, वही दृश्य शीतल की आँखों के सामने भी चल रहा है। तभी तो साथ होते हुए भी शीतल के पास शब्द नहीं थे। शीतल अभी भी सुबह की हसीन यादों में डूबी हुई थीं। सुबह हम दोनों के प्रेम की सीमा, दिल की परिधि से निकलकर दो शरीरों के मिलन तक जा पहुंची थी। उसका प्रभाव अभी तक हम दोनों के मन-मस्तिष्क में था। दिमाग किसी और तरफ सोचना ही नहीं चाहता था। बार-बार एक-दूसरे की बाँहों में बिताए पल सामने आ जा रहे थे।
मेरी चाय खत्म हो चुकी थी। शीतल की चाय, कप में पड़े-पड़े अपना दम तोड़ चुकी थी। कप, साइड में रख दिए गए थे। आठ बजने को थे। अँधेरा छा चुका था। हम दोनों अभी भी टहल रहे थे। शीतल की नजरें अभी भी झुकी हुई थीं। मैं समझ गया था कि शीतल को इस खुमारी से बाहर लाना जरूरी है, वरना घर जाते वक्त वो स्कूटी ड्राइव ही नहीं कर पाएंगी। चलते-चलते मैंने अपने हाथ से शीतल की उँगलियों को पकड़ लिया और सामने देखने लगा। शीतल ने अबाक होकर मेरे चेहरे की तरफ देखा, लेकिन मैं जान-बूझकर सामने ही देखता रहा।
"राज, ऑफिस है, कोई देख लेगा।" उन्होंने कहा। ___
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