RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
अनीता की मां पलंग पर लेटी दोनों की बातें सुनकर रोने लगीं। "अनीता बेटी, चल जिद्द मत कर। अब तू जल्दी से खाना बना ले, विनीत भी तो सुवह से भूखा होगा।"
"अच्छा मां।” वह सामान उठाकर खाना बनाने चली गई। खाना खाकर वह लेट गया। वह सुवह से थककर चूर हो गया था। वह कुछ भी करने की हिम्मत नहीं रखता था। पलंग पर लेटा तो पैर दर्द की बजह से सीधे भी नहीं हो रहे थे।
करवट ली तो शरीर का एक-एक हिस्सा दर्द से टूट रहा था। सारा-सारा दिन पैदल ही इधर से उधर सैकड़ों दफ्तरों, कम्पनियों के चक्कर लगाता फिरता। मगर बदले में क्या मिलती असफलता! वह रात भर कभी अनीता की शादी के विषय में, कभी मां की बीमारी के विषय में, कभी अपनी प्रेयसी प्रीति के प्रेम के विषय में सोचकर दर्द में नहा जाता। आंखें बंद करता तो प्रीति के सपने सोने न देते। दो-दो, तीन-तीन बजे तक आंखें खोले लेटा रहता, करबट बदलता रहता, कब नींद आती पता नहीं चलता।
आंख खुलती तो मन दुःखी हो जाता। जब कई हफ्तों तक यही चलता रहा तो एक दिन विनीत की मां पास बैठे विनीत से पूछ बैठीं—अब गुजारा कैसे होगा विनीत?"
“समझ नहीं आता मां, क्या करूं?" विनीत ने थके स्वर में कहा-"अब तक पचासों दफ्तरों के चक्कर लगा चुका हूं। कहीं भी नौकरी नहीं मिली! निराशा के सिवा कुछ नहीं मिलता....मां कुछ नहीं मिलता।” उसका गला भारी हो गया।
“फिर?" विनीत की मां ने पूछा।
"कुछ तो सोचना ही पड़ेगा मां। कहीं न कहीं चपरासी की ही नौकरी मिलेगी तो कर लूंगा।" विनीत मजबूर हो गया।
"लेकिन बेटा, एक हजार रुपये में होगा क्या? घर का खर्च और फिर अनीता जबान है, उसकी शादी....अब तो कोई और बिना दहेज के शादी भी नहीं करता-बो तो विशाल के घरवालों ने अनीता का हाथ यूं ही मांग लिया था। मगर हाय! हमारा भाग्य ही खराब है।" वह रो पड़ीं।
"रोओ मत मां। तुम चिन्ता मत करो। सब ठीक हो जायेगा। भगवान के पास देर है, अन्धेर नहीं। भगवान पर भरोसा रखो मां।" विनीत ने मां को तसल्ली दी। मां को बो तसल्ली दे देता मगर फिर स्वयं सोचता कि ये सब झूठी आशायें हैं। इन झूठी आशाओं पर कभी भी जीवन आधारित नहीं रह सकता। किसी भी प्रकार इस दुनिया में बिना पैसे के नहीं जिया जा सकता। आज उसके पास रिश्वत देने के लिये पैसा होता तो कब की नौकरी लग गई होती। मगर ये बात सच है कि पैसा भगवान नहीं मगर पैसा भगवान से कम भी नहीं है।' सारी मेहनत बेकार होती जा रही थी। कभी आशा की कोई किरण चमक भी जाती तो अगले दिन वह बुझ जाती। हजारों चिन्तायें उसे घेरे थीं। उसका जीबन जैसे एक बोझ बनता जा रहा था। न चैन से जी सकता था, मरना भी चाहे तो सबके विषय में सोचकर मर भी नहीं सकता था। उसका साहस जैसे टूटने को था।
जिम्मेदारी के बोझ को उठाने की शक्ति अब उसमें नहीं रही थी। मगर फिर भी एक आस उम्मीद के सहारे रोज किसी नौकरी की तलाश में घर से निकल जाता। वापस आता तो निराशा के अलावा और कुछ न मिलता।
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