RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"लेकिन विनीत , निराश होने से क्या होगा?" प्रीति ने कहा—"हिम्मत से काम लो विनीत । समय बदलने में देर नहीं लगती....समय अवश्य बदलता है। जिस प्रकार हर पतझड़ के बाद बसंत जरूर आता है, उसी प्रकार हर दुःख के बाद खुशियां भी जरूर आती हैं। बस तुम खुशियों का इन्तजार करो विनीत ।"
"खैर, प्रीति। जो भाग्य में होगा हो जायेगा।" उसने गहरी सांस ली। वह कहता भी तो क्या ?
प्रीति ने तुरन्त कहा- मेरी मानो विनीत ..."
"क्या?" उसने प्रीति की ओर देखा।
"साहस मत छोड़ो और निराश मत होओ। कभी तो अच्छे दिन आयेंगे। अनीता की शादी भी हो जायेगी। नौकरी भी मिल जायेगी। रही बात हमारी-तुम्हारी....तो क्या हम यहां से कहीं जा रहे हैं? मैं भी यहीं हूं और तुम भी यहीं हो। मेरी तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारे अलावा किसी से शादी नहीं करूंगी। मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी जब तक मेरे शरीर में एक भी सांस बाकी है।"
"नहीं प्रीति, ऐसा मत कहो। पता नहीं ये इन्तजार की घड़ियां खत्म हों या न हों। भाग्य ने मेरे साथ पता नहीं क्या खेल खेला है....समझ नहीं आता? प्रीति, मैं तो मर रहा हूं....। दर दर की ठोकरें खा-खाकर जी रहा हूं....मैं तुम्हें कोई खुशी न दे सकूँगा।"
विनीत की बात बीच में ही काटकर प्रीति ने कहा-"विनीत अगर तुम मुझे कोई खुशी नहीं दे सकते तो....तुम्हें मेरी खुशियां छीनने का भी तो अधिकार नहीं है....।" वह रो पड़ी।
“यह तभी हो सकता है तुम मेरे विषय में सोचना छोड़ दो....। मेरा साथ छोड़ दो....."
"तुम्हारा प्यार, तुम्हारा साथ ही तो मेरी खुशी है विनीत । आई लव यू विनीत ! मैं तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रह सकती। मैं मर जाऊंगी....तन्हा मर जाऊंगी।" प्रीति का स्वर भावुक हो गया। और फूट-फूटकर रोने लगी।
विनीत ने उसे चुप कराने की बहुत कोशिश की लेकिन वह कुछ समय तक रोती रही। विनीत और अधिक चिन्तित हो गया। बड़ी मुश्किल से वो चुप हुई तो विनीत भी कुछ न बोला। बातचीत का क्रम यहीं समाप्त हुआ तो वह प्रीति के साथ ही पार्क से बाहर निकल गया। दोनों अपने-अपने रास्ते चले गये।
,,,,,,,,,,,,,,,,,
विनीत धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ रहा था। वह प्रीति के विषय में सोच-सोचकर दुःखी हो रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस तरह प्रीति को समझाये....| प्रीति तो उस छोटे बच्चे की तरह जिद पर अड़ी बैठी थी जैसे वह बच्चा चांद को देखकर जिद करता है कि उसे चांद चाहिये। पर उस बच्चे को तो पता नहीं होता कि चांद को लाकर नहीं दिया जा सकता, वह तो नासमझ होता है। मगर प्रीति तो एक पढ़ी-लिखी, समझदार लड़की है, फिर वह क्यों यह सब कुछ जानते हुए भी कि ऐसी स्थिति में हमारी शादी कभी नहीं हो सकती, फिर क्यों? तभी उसकी आत्मा उससे सवाल करती है—“क्या तुम नहीं जानते क्यों?" फिर वह स्वयं ही उत्तर देती है—“वह तुम्हें चाहती है। तुम उसका पहला और आखिरी प्रेम हो। वह तुम्हें सच्चा, निश्छल प्रेम करती है। वह तुम्हारे सिवा किसी को अपना पति स्वीकार नहीं कर सकती। तुम जानकर भी अन्जान बन रहे हो विनीत । जानकर भी अन्जान।" वह बड़बड़ा उठा—"हां, तुम सच कहती हो। शायद यही सच है, वो अपनी जगह एकदम सही है-मगर मैं भी तो गलत नहीं हूं।"
और ना चाहकर भी प्रीति का ख्याल झटककर तेजी से घर की ओर चल देता है। घर पहुंचा तो मां ने फिर वही प्रश्न पूछा- क्या हुआ बेटा? कहीं नौकरी लगने की कोई बात बनी या नहीं...."
"नहीं....” विनीत ने फिर मां को बही निराशा में डूबा उत्तर दिया।
“आह....." विनीत की मां के मुंह से दुःख भरी आह निकली। मगर वह केवल आह भरकर रह गई। विनीत सब कुछ जानता था। सब कुछ समझता था। परन्तु कर भी क्या सकता था। वह कोशिश तो बार-बार कर रहा था मगर....।
|