Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 12:57 PM,
#57
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"प्रीति! तुम समझने की कोशिश करो। तुम मिडिल क्लास की फैमिली से सम्बन्ध रखती हो और मैं आज इस हालत में हं कि तुम्हें ये कहने में भी हिचकिचाहट होगी कि तुम ऐसे लड़के से प्रेम करती हो जो समाज की नजरों में नाकारा है। मैं तुम्हें कुछ भी तो नहीं दे सकता। ना दौलत मेरे पास है ना शौहरत, गरीबी ने मुझे नाकारा बना दिया है। मैं तुम्हें दुनिया की कोई खुशी नहीं दे सकता।" वह और भी बहुत कुछ कहना चाहता था मगर चुप हो गया।

"विनीत , मैं कुछ नहीं समझना चाहती, मैं सब समझती हूं...अन्जान, नासमझ बनने को तुम ही बहुत हो विनीत । तुम मेरे प्रेम को अच्छी तरह जानते हो, फिर भी ऐसी-ऐसी बातें कहते हो? कितना दिल दुःखता है मेरा, तुम नहीं जानते होंगे। मुझे कुछ नहीं चाहिये, दुनिया की कोई दौलत नहीं चाहिये! मुझे तुम्हारा प्यार, तुम्हारा साथ चाहिये विनीत । मैं भूखी, रूखी-सूखी खाकर गुजारा कर लूंगी, मैं कभी उफ तक नहीं करूंगी, मगर मुझे तुम ऐसे तन्हां मत छोड़ो....। मैं मर जाऊंगी। मैं मर जाऊंगी। तुम अगर न मिले तो ढूंढते रह जाओगे मुझे इस बेबफा दुनिया की भीड़ में....." प्रीति ने इसके बाद कुछ और कुछ नहीं कहा और उठकर लम्बे-लम्बे डग बढ़ाती हुई पार्क से बाहर चली गई।

विनीत ने भी उसे जान-बूझकर नहीं पुकारा था। प्रीति उसकी आंखों से ओझल न हो गई, तब तक वह उसे देखता रहा। काफी देर तक बैठा वह वहां प्रीति के विषय में ही सोचता रहा। उसका मन चक्कर काट रहा था। मन में अनेक प्रकार के भाव उत्पन्न हो रहे थे। उसे यह सोच-सोच कर ही अपने ऊपर गर्व हो रहा था कि—प्रीति उसे अपनी जान से भी अधिक प्रेम करती है। मगर फिर वह दुःख में डूब जाता कि मैं उसके प्रेम का बदला क्या दे रहा हूं। तभी उसके मन में ख्याल कौंधता—मैं नहीं, ये मेरे हालात हैं। मैं तो उसे वो हर खुशी देना चाहता हूं जिसे पाकर वह स्वयं को दुनिया की सबसे खुशनसीब पत्नी समझे। मगर क्या करूं? मजबूर हूं। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। वह मेरे दिल का टुकड़ा है, मैं कैसे दिल पे पत्थर रखकर स्वयं को संभाल रहा हूं....मैं तो बता भी नहीं सकता।” वह दुःखी मन से उठा और बोझल कदमों से घर की तरफ चल दिया। घर पहुंचने में आज फिर उसे काफी देर हो गई थी।

विनीत के जीवन में आने वाला एक तूफान अभी रुका हुआ ही था कि सहसा उसके जीवन में एक तूफान और आ गया। जिसने उसके जीवन की जड़ों तक को भी हिलाकर रख दिया। वह बेसहारा हो गया। उसकी बगिया में खिलने वाला एक फूल और टूटकर बिखर गया। वह अनाथ हो गया। उसकी मां की तबियत तो काफी दिनों से खराब चल ही रही थी। पिताजी की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने चारपाई पकड़ ली थी और अब तक नहीं उठी थीं। घर का काफी सामान बेच-बेचकर भी मां की दवा में लगा दिया था सारा पैसा। मगर मां की बीमारी ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उनको टी.बी. की बीमारी लग गई थी। डॉक्टर भी इलाज करके थक चुके थे। उन्होंने जवाब दे दिया था। विनीत के पास इतना पैसा न था जिससे वह अपनी मां का किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज करवा लेता....। रोग धीरे-धीरे बढ़ता रहा और आज उसने अपना विकराल रूप ले लिया था। आज वह सबेरे ऑफिस गया था तो मां की तबियत थोड़ी बिगड़ी हुई सी थी। ऐसा अक्सर हो जाता था। कभी तबियत थोड़ी खराब तो कभी थोड़ी ठीक हो जाती थी। चिन्ता जैसी कोई बात न थी। वह दफ्तर चला गया था। परन्तु शाम को जब प्रीति से मिलकर बापस आया, घर में कदम रखते ही उसके पैरों की शक्ति जैसे जवाब दे चुकी थी। घर में कुहराम मचा हुआ था। मुहल्ले वाले आंगन में खड़े थे। विनीत ने देखा, कमरे में मां की लाश पड़ी थी। दोनों वहनें मृत मां से लिपट-लिपट कर रो रही थीं। विनीत को अन्दर आता देख अनीता चीखकर खड़ी हो गई।

"भइय्या! आप कहां रह गये थे....? मां हमें छोड़कर चली गईं....जाते-जाते आपको बहुत याद कर रही थीं।" वह विनीत से चिपट गई। विनीत भी दहाड़ें मारकर रोने लगा था। तभी सुधा भी भाई के पास आकर फूट-फूट कर रोने लगी। "आपको फोन मिलाया था भइय्या....मगर आप वहां भी नहीं मिले थे....मां तुम्हारी सूरत देखने को, तसल्ली देने को तरसती हुई इस दुनियां में हमको अकेला छोड़कर चली गई।" वह सुबक-सुबककर रोने लगी।

"चुप हो जाओ सुधा।” विनीत उसको प्यार से चुप कराने लगा।

मगर सुधा तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अनीता का भी बुरा हाल था। मुहल्ले के लोग भी उन तीनों वहन-भाईयों को रोता देख ग़मगीन थे। कितना रोया था विनीत ! कितने आंसू बहाये थे उसने! आंखें सूख गई थीं उसकी। रोते-रोते बेहोश हो गया था।

उस समय के बाद वह जैसे बिल्कुल ट गया था। जीना तो था ही, परन्तु ऐसा लगता था जैसे जीवन उससे बहुत दूर चला गया हो। उसकी जिन्दगी में एक उसकी मां ही रह गई थी

और उसकी भी उसे चिता बनानी पड़ गई थी। उसकी जिन्दगी में उदासी और खामोशी ठहर गई थी। निराशा उसको खोखला बनाने पर तुली पड़ी थी। मन जैसे बिल्कुल मर गया था। जीने की लालसा खत्म हो गई थी। जिन्दा रखे थी तो उसकी वहनों की रक्षा करने की जिम्मेदारी था —बस यह सोचकर शायद वह जिन्दा था। अनीता और सुधा का उसके सिवा था ही कौन? अगर वह ऐसा कोई कदम उठा लेता तो उसकी वहनों का क्या होगा? यही सोचकर वह सिहर उठता था। "नहीं....नहीं....मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगा। मैं अनीता और सुधा को मां-बाप का प्यार दूंगा....उनकी शादी करूंगा।" यही सोचकर वह फिर से अपने काम में लग गया। दुःख-सुख तो जीवन के दो पहलू हैं। ये तो आते-जाते रहते हैं। मगर पेट तो हर समय, हर स्थिति में जीने को मांगता है। वह फिर से काम में लग गया। धीरे-धीरे सब उसका साथ छोड़ते जा रहे थे। मगर एक प्रीति ही ऐसी थी जिसने उसका साथ नहीं छोड़ा था। वह हर दुःख-दर्द में विनीत के साथ थी। प्रीति उससे बराबर मिलती रहती थी। हमेशा उसको तसल्ली देती थी। विनीत को समझाने की कोशिश करती थी। शायद प्रीति के समझाने का ही परिणाम था कि वह टूटकर भी जिन्दा था। प्रीति उससे बराबर मिलती रही थी क्योंकि विनीत ने उसके पिता की बात प्रीति से नहीं बतायी थी। प्रीति के पिता ने उसे प्रीति से मिलते हुए देखा हो अथवा नहीं, मगर वे दोबारा विनीत के पास नहीं आये थे।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 12:57 PM

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