Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:00 PM,
#68
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"ज....जी।" वह फिर हकलाया—"मैं आपके विषय में सोच रहा हूं।"

"तुम मुझे नहीं जानते।" उस व्यक्ति ने कहा- मेरा नाम किशन शर्मा है....."

"किशन शर्मा?"

"हां....तुम्हें ध्यान हो या न हो....किसी समय तुम्हारे पिता प्रभु दयाल ने सेठ रामनाथ जी से पांच हजार रुपये कर्ज लिये थे। वे मर गये परन्तु कर्ज को फिर भी न चुका पाये थे। गिरवी की मियाद खत्म होते ही सेठ जी ने अदालत का सहारा लिया और इस मकान पर उनका कब्जा हो गया। उस समय तुम जेल में थे। मैं सेठ जी का मुनीम हूं। उन्होंने यह मकान मुझे रहने के लिये दे रखा है।"

"ओह!” उसके सिर पर जैसे भारी-सा पत्थर आकर गिरा हो। उसके पीछे इतना सब हो गया और उसे पता भी न चला! किसी प्रकार अपने को संयत करके विनीत ने पूछा-“मेरी दोनों वहनें कहां हैं?"

"तुम्हारा मतलब, सुधा और अनीता?"

"हां....।"

"दोनों लड़कियां पढ़ी-लिखी जरूर थीं, परन्तु नासमझ थीं। इस मकान पर कब्जा होने के बाद भी मैंने उन्हें यहीं रोकना चाहा। मैंने उन्हें काफी हद तक समझाने की कोशिश की, परन्तु वे नहीं मानी और उसी दिन अपना सामान बटोरकर पता नहीं कहां चली गईं....।"

"लेकिन मुनीम जी....." विनीत कुछ कहता-कहता रुक गया। "

अब तुम्हीं बताओ... इसमें मैं क्या कर सकता था? मकान तो सेठजी का हो चुका था। कोई उसमें दखलही कैसे दे सकता था?"

"ठीक कहते हैं आप।" विनीत बोला-"परन्तु उन दोनों ने कुछ तो बताया होगा...वे कहां गईं....?"

"भैया, मुझे कुछ भी पता नहीं है।” मुनीम जी ने बिबशता का प्रदर्शन किया—“यदि मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताओ.....।"

"बस इतनी ही कृपा काफी है सेठ जी।" विनीत ने एक गहरी सांस लेने के बाद कहा ___“जिस मकान में मेरा बचपन बीता, आपके बच्चे उस आंगन में खेलते हैं। घर में सूनापन तो नहीं है। अच्छा मैं चलता हूं....।" किशन शर्मा ने उससे कुछ नहीं कहा।

विनीत उछा और कमरे से बाहर निकलकर मुख्य दरवाजे पर आकर रुक गया। एक बार हसरत भरी निगाहों से उन दीवारों को देखा। अनायास ही उसकी आंखें छलछला उठीं। न जाने कितना बोझ हृदय पर आकर ठहर गया। जी नहीं चाहता था कि वह यहां से चला जाये। जिस आंगन में किलकारी मारकर उसने बचपन को देखा था, यही आंगन अब उससे हमेशा-हमेशा के लिये छूट गया था। जिन दीवारों के अन्दर उसने मां, पिता और वहनों के प्यार को देखा था, आज वे ही दीवारें मौन और उदास खड़ी थीं। उन दीवारों में इतनी शक्ति भी न रही थी कि वे उसे अपनी कहानी सुना देतीं। पैर बोझिल हो गये थे। काफी देर तक वह पागलों की तरह उन दीवारों को घूर-घूरकर देखता रहा। परन्तु जाना तो था ही। यह बस्तीतो अब उसके लिए वीरान हो चुकी थी।

क्या रह गया था उसके पास? मां-बाप ने छोड़ दिया,वहनें न जाने कहां चली गयीं और अब वह अकेला था....बिल्कुल अकेला। कोई भी तो नहीं था उसका। वह चल पड़ा। उसने इधर-उधर देखा, कितनी रौनक थी लोगों के चेहरों पर! इस संसार में उनके लिये कितनी खुशियां थीं और वह....जैसे जिन्दगी में वर्षों से संजोया हुआ सब कुछ बिखर गया सब कुछ लुट चुका था!
जी में आया कि वह इस दुनिया से बहुत दूर चला जाये। आखिर क्या रह गया है उसके लिये यहां? परन्तु वह जायेगा कहां? बेमन-सा वह एक ओर को चल दिया। जेब में पैसे थे। उसने बाजार में खाना खाया और फिर एक स्थान पर बैठकर सुस्ताने लगा। मन में बार-बार यही विचार आता कि उसकी दोनों वहनें कहां होंगी? किस अवस्था में होंगी? परन्तु वह उन्हें खोजेगा भी कहां? इतनी बड़ी दुनिया में उसे कहां पता चलेगा?

वह उठा और यूंही शहर की सड़कों के चक्कर लगाने लगा। वह पास से गुजरने वाली प्रत्येक लड़की के चेहरे को ध्यान से देखता और फिर एक आह भरकर रह जाता। सहसा ही उसकी दृष्टि एक लड़की के चेहरे पर पड़ी। वर्षों गुजर गये थे फिर भी चेहरा जाना-पहचाना-सा लगता था। लड़की एक परचून की दुकान से कुछ सामान खरीद रही थी। जब वह सामान लेकर चल दी तो उसने पुकारा—“सुधा....." अपने पीछे से किसी को पुकारता देखकर लड़की रुक गयी। उसने पलटकर विनीत की ओर देखा। वह कुछ कहती इससे पहले ही विनीत ने कहा- "सुधा....मुझे भूल गयीं क्या? मैं हूं तेरा भैया विनीत ।"

"विनीत!" लड़की ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- मेरे भैया का नाम तो मुकेश है। मेरा नाम रंजना है।"

"ओह....भूल हो गयी।” उसे अपनी गलती का अहसास हुआ—"माफ करना वहन।” कहकर विनीत फिर आगे बढ़ गया। एक सड़क से दूसरी सड़क। शहर की गलियों में चक्कर काटते हुये उसे शाम हो गयी। परन्तु सुधा अथवा अनीता उसे कहीं नहीं मिलीं। रात हो गयी। मन-सा मार कर वह सड़क के किनारे बने एक पार्क में लेट गया। गर्मी का मौसम था। किसी कपड़े की भी जरूरत न पड़ी। घण्टों वह अपनी पिछली जिन्दगी के विषय में सोचता रहा। अपने-पराये, रह-रहकर सभी याद आते रहे और उसे रुलाते रहे। कुछ देर सोया भी। और जब सुवह के कोलाहल से उसकी आंखें खुली तो उसकी जेब में रखे हुए सारे रुपये गायब थे। उसे पता भी न चला था और नींद की दशा में कोई उसकी जेब साफ कर गया था।

अभी तक तो जेब में कुछ रुपये थे। कुछ समय तक वह भूखा तो नहीं रह सकता था। परन्तु आज उसे रोटी के विषय में भी कुछ सोचना पड़ेगा। इतना सब चला गया, और वह जिन्दा रहा। आज कुछ रुपये चले गये तो क्या! जीना तो पड़ेगा ही। घण्टों वह फिर इसी प्रकार बैठा रहा....सोचता रहा। शाम जान-बूझकर खाना नहीं खाया था। आज जेब में पैसे नहीं थे। भूख लगने लगी थी। वह फिर उठा और चल दिया। भूखा कब तक चलता? कब तक घूमता? उसे महसूस हुआ कि दुनिया में जीने के लिये सबसे पहले रोटी चाहिये, बाद में कुछ और। परन्तु रोटी....आकार में गोल....जैसे उसने इन्सान की जिन्दगी को ही अपने आप में समेट रखा हो, उसके लिये है कहां? कौन उसे खाना देगा? उसकी विचार तन्द्रा जब टूटी तो उसने अपने आपको एक ढाबे के सामने खड़ा पाया। अन्दर बैठे हुये लोग खाना खा रहे थे, देखकर विनीत की भूख और भी प्रबल हो गयी। दूसरे ही क्षण वह अपने को न रोक सका और उसने अपने आपको एक मेज पर बैठा पाया। ढाबे बाले का छोकरा उसके पास आया और पानी का गिलास मेज पर रखकर पूछने लगा
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:00 PM

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