Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
09-17-2020, 01:07 PM,
RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"सबाल अच्छे-बरे का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि जब बदन से जबानी फूटती है तो उसे सम्भालना बड़ा मुश्किल होता है। उस नत्थू धोबी की लड़की की बात नहीं सुनी? पिछले महीने ही वह किसी लड़के के साथ भाग गयी....।"

"चाचा जी!" वह जैसे झल्ला उठी थी— आइन्दा आप यहां आकर ऐसी बात मत कहना। मैं कोई बच्ची नहीं हूं। अपना अच्छा-बुरा सब समझती हूं। मुझे आपकी हमदर्दी की जरूरत नहीं है। आप जा सकते हैं।"
.
.
"अभी नासमझ हो।"

“कुछ भी समझ लीजिये....."

रामचरन उठकर चले गये।

उस दिन वह अन्दर ही अन्दर कांपकर रह गई थी। वह प्रायः घर से बहुत ही कम निकलती थी। फिर एक महीने बाद ही सेठ ने उनके मकान पर कब्जा कर लिया था। वह और सुधा दोनों अपने दुर्भाग्य पर बुरी तरह रो उठी थीं। उसे सहारे तो कई मिले परन्तु उन सब में भूखी दृष्टि के अलावा और कुछ न था। फिर उन्हें एक छोटा-सा कमरा किराये पर लेकर रहना पड़ा था। प्रश्न था गुजारे का। आय का साधन न हो तो खर्चे का सवाल ही पैदा नहीं होता। धीरे-धीरे घर का सभी सामान बिकना आरम्भ हो गया। दोनों कुर्सियां....मेज....बाबू जी वाला पलंग, सभी कुछ बेच देना पड़ा था। फिर नम्बर आया था बर्तनों का। केबल जरूरी चार-पांच बर्तनों को छोड़कर बाकी सभी बेच देने पड़े थे। और कोई सामान न था। फिर एक दिन.....।

घर में खाने के लिये नमक को छोड़कर और कुछ न था। इसी चिन्ता में सुवह से शाम हो गई थी कि खाने के लिये क्या किया जाये? शायद इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी भूख ही है....वह सब कुछ सहन कर लेता है परन्तु आंतों की छटपटाहट उससे सहन नहीं होती। और यदि वह इस भूख को भी सहन कर लेता है तो उसे मृत्यु की विषम पीड़ा को झेलना पड़ता

सुधा ने बड़े ही भोलेपन से पूछा था— दीदी, खाने के लिये कुछ नहीं है न?"

"हो....।" वह बड़ी मुश्किल से कह पाई थी। सुनकर बारह बर्षीय सुधा खामोश हो गयी। जैसे उसने संतोष की सांस लेकर अपने उदर में उठती भूख की लपटों को दबा लिया। उसका चेहरा पत्थर का हो गया। उसकी आंखों से एक बूंद आंसू भी निकला। "सुधा, तुझे भूख लगी है।" उसने पूछा था।

"नहीं तो....!"

"लगी तो होगी।"

"परन्तु दीदी....जब कुछ है ही नहीं....फिर......"

"पगली....अभी तो हमारे पास बहुत कुछ है।"

“और कुछ....और क्या सामान है?"

"पसीना!" उसने कहा- जो सोने से भी अधिक कीमती होता है। तू बैठ....मैं और कुछ नहीं तो शाम के खाने के लिये तो ले ही आऊंगी।"

"कैसे....?"

"अपना पसीना बेचकर।"

"परन्तु दीदी..."

“तू अभी बच्ची है।" उस शाम उसने एक घर में गेहूं बीनने तथा बर्तन साफ करने का काम किया था। बदले में उसे थोड़ा-सा आटा मिला था। उसी से उदर की ज्वाला को शांत करना पड़ा था। परन्तु अगले दिन..... वह रोजाना उसी घर में पहुंच जाती। सबेरे से शाम तक काम करती। खुद तो वहां खा ही लेती थी, साथ ही सुधा के लिये भी चार-पांच रोटियां ले आती थी। मालकिन दयालु थी। जीवन का यही एक क्रम बन गया था। एक वर्ष इसी तरह मजदूरी करके बीता। परन्तु दुनिया उसके विषय में तरह-तरह की बातें बनाने लगी। वह घर से निकलती, लोग मुंह पर ही कह डालते थे "आबारा है....."

“छुपी हुई बेश्या है।"

“पता नहीं सवेरे से शाम तक कहां रहती है....."

“जाती होगी किसी मोटी मुर्गी के पास।"

"मुहल्ले की लड़कियों पर भी तो गलत असर पड़ेगा।" वह सुनती और बुरी तरह तिलमिलाकर रह जाती। उसकी समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे? कई बार खुदकशी करने की सोची थी। परन्तु सुधा का क्या होगा, यह सोचकर उसने कभी उस ओर कदम नहीं बढ़ाया। सुनते-सुनते जैसे कान पक गये थे। सुधा भी जवान होती जा रही थी। मुहल्ले के आवारा लड़के दरवाजे के सामने चक्कर लगाने लगे थे। सुधा उस छोटे से कमरे में अकेली रहती थी।

एक दिन मकान मालिक ने आकर कहा था- "अनीता....."

“जी...."

“अब तुम कोई दूसरा मकान देख लो...."

“जी....।"

"मुझे इस कमरे की जरूरत है। चाहो तो तुम इन पन्द्रह दिनों का किराया भी मत देना।"

"लेकिन शर्मा जी....!"

"मैं मजबूर हूं अनीता।"

वह कह उठी थी—"शर्मा जी, आप साफ क्यों नहीं कहते कि......"

“जब तुम इतनी समझदार हो तो फिर मुझे कहने की क्या जरूरत है? मेरी पचास बर्ष की उम्र है, परन्तु मुहल्ले वाले तुम्हारे साथ मुझे भी....."

"शर्मा जी...'" वह जैसे चीख उठी थी।
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RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस - by desiaks - 09-17-2020, 01:07 PM

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