RE: Hindi Antarvasna - कलंकिनी /राजहंस
"कमीने....कुत्ते....!"
"खैर।" मंगल ने पता नहीं क्या सोचकर कहा- "आज तो मैं तुझे छोड़ रहा है। परन्तु देखना....मंगल तुझे अपनी बनाकर ही रहेगा।" कहकर मंगल चला गया।
सुधा ने संतोष की सांस ली। पानी से बाहर आकर वह देर तक बैठी रोती रही। अपनी मजबूरियों पर....अपने भाग्य पर। गीले कपड़े उसी प्रकार पड़े थे। उसे इस बात का भी ध्यान न रहा था कि दीदी उसकी राह देख रही होंगी। उसके मन में बार-बार यही बात आयी, काश आज के दिन विनीत भैया होते....। आहट पाकर वह चौंकी। पलटकर देखा, अनीता खड़ी थी। उसने जल्दी से अपने आंसुओं को पोंछा तथा उठकर बोली ____"दीदी! तुम....।"
"हां सुधा, मैं बाजार से लौट भी आयी। परन्तु तू....। क्या बात है, अभी तो तूने कपड़े भी नहीं धोये? त....तु रो क्यों रही है....?" अनीता ने पूछा। उसकी दृष्टि सुधा की गीली आंखों पर जमकर रह गयी थी। भावों का बांध टूट गया। सुधा अनीता से लिपटकर फफककर रो उठी। अनीता उसके रोने का कारण न समझ सकी।
"क्या बात है सुधा? बोल....मुझसे बता....."
“दीदी..."
"हो....हां....बोल....."
"मंगल मुझे तंग करने आया था....बड़ी मुश्किल से अपने आपको बचा पायी हूं। तुम्हारे आने से कुछ देर पहले ही....."
"वही बस्ती बाला?"
“हां दीदी....!"
“खैर।” अनीता ने कुछ सोचकर कहा-“मैं सब कुछ ठीक कर लूंगी। तू कपड़ों का काम खत्म कर...." दोनों वहनों ने मिलकर भीगे हुये कपड़ों को धोया और उन्हें लेकर चल दीं। रास्ते भर अनीता, सुधा के विषय में ही सोचती रही थी। उसे अपनी इतनी चिन्ता नहीं थी जितनी कि सुधा की। झोपड़ी में आकर अनीता ने कहा-"सुधा, तू कल से कहीं भी अकेली मत जाया कर।"
“परन्तु दीदी, फिर काम किस तरह चलेगा?"
"जैसे भी चलेगा, चल ही जायेगा। यहां बस्ती के कुछ आदमियों की आदत अच्छी नहीं है। समय को टाल देना ही अच्छा है।"
सुधा ने और कुछ नहीं कहा। बेमन-सी दोनों घर की झाड़-पौंछ में लग गईं। बस्ती में एक उत्साह था, लोग शाम होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन सुधा और अनीता, इन दोनों के दिन और रात में कोई भी अन्तर न था। जो जिन्दगी हर बक्त दुःखों के नीचे पिसती हो....जो जबानी केबल आह भरकर रह जाती हो....उसे दीवाली से भला क्या मिलने वाला था....| शाम हुई. झोपड़ियों के आगे टंगे हये कन्डील रोशन हो गये। चारों ओर बिखरी हुई रोशनी मुस्करा उठी। बच्चों की खिलखिलाहट.... एक ओर से दूसरी ओर तक गूंजती हुई किलकारी और उसमें पटाखों की आवाज, शहर से अलग-थलग की यह बस्ती प्रसन्नता में डूब गयी। उस कोने से तीसरी बाली झोंपड़ी....उसमें रहने वाले शायद यह नहीं जानते थे कि आज दीवाली है। लोग अपनी खुशियों की तुलना दीयों की लौ से कर रहे हैं। केबल एक दीया टिमटिमा रहा था। हवा के झोंके के साथ कभी लौ बढ़ जाती और कभी ऐसा लगता, जैसे यह दीपक हमेशा-हमेशा के लिये बुझ जायेगा। अनीता की आंख से टपककर आंसू की एक बूंद दीये में गिरी। लौ एक बार फिर कमजोर पड़ गयी।
सुधा ने करीब आकर कहा-"भइय्या के दीपक में तेल और भर दो दीदी....रात भर जलता रहेगा। नहीं तो दीवाली मां नाराज हो जायेंगी....।"
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विनीत के कदम जैना होटल की ओर बढ़ गये। सब बातों से अलग इस समय उसका मस्तिष्क केबल सुधा और अनीता के विषय में सोच रहा था। उन्होंने दो खून किये थे, पुलिस शहर के चप्पे-चप्पे में उनकी खोज कर रही थी। दोनों फरार थीं। उसके विचारानुसार उसकी वहनों ने जो कुछ किया था, वह बुरा नहीं था। एस.पी. साहब ने बताया था कि वे दोनों अक्सर जैना होटल में आती हैं। यह बात उसे तर्कसंगत नहीं लगी थी। यदि ऐसा होता तो पुलिस उन्हें कभी भी गिरफ्तार कर सकती थी। जरूर पुलिस किसी गलतफहमी में थी। परन्तु नहीं, वह अपने को नहीं रोक पा रहा था। उसके कदम तेजी से होटल की ओर बढ़ रहे थे। सहसा किसी ने उसे पुकारा। उसी का नाम था। उसने रुककर पीछे की ओर देखा, अर्चना तेजी से उसकी ही ओर चली आ रही थी। जी में आया कि चल दे। आखिर उसे अर्चना से लेना ही क्या है? परन्तु वह ऐसा न कर सका। अर्चना उसके करीब आ गयी। पैदल आने के कारण उसकी सांस फूल रही थी। उसने अपनी उखड़ी सांसों पर काबू पाते हुये कहा—"विनीत....।"
"अर्चना तुम....!"
“विनीत , क्या बास्तब में इतने निर्दयी हो तुम....?"
“यह तुमने कैसे कहा.....?"
"मझे छोड़कर जो चले आये। तुमने यह नहीं सोचा कि जो तुम पर मर मिटा है, तुम्हारे पीछे उसके दिल पर क्या गुजरेगी? आने से पहले तुम्हें कुछ तो सोच लेना चाहिये था विनीत ।"
"सोचा था अर्चना।" विनीत ने एक गहरी सांस ली—“बहुत सोचा था परन्तु....मेरे सामने भी एक दूसरी राह थी। मुझे उस पर बढ़ना था।" "क्या मैं उस राह पर तुम्हारा साथ नहीं दे सकती थी?"
"शायद नहीं।"
"क्यों....?"
"अर्चना, भाबुकता में मत डूबो। तुम स्वयं इस बात को नहीं जानती हो कि मैं बहुत ही बदकिस्मत इन्सान हूं। मैं किसी को कुछ भी नहीं दे सकता....किसी को भी अपने साथ लेकर नहीं चल सकता। ईश्वर के लिये मेरा विचार भी छोड़ दो। मैं तुम्हारे हाथों से बहुत दूर हूं। मैं तुम्हें इस जन्म में तो क्या अगले जन्म में भी नहीं मिल सकता। जाओ अर्चना....घर पर सेठजी तुम्हारा इन्तजार कर रहे होंगे.....
" नहीं विनीत ....।" अर्चना ने हठ पकड़ी।
"क्यों ....?"
"यदि तुम बहां नहीं जाओगे तो मैं भी उस कोठी में अपने कदम नहीं रचूंगी।"
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