RE: SexBaba Kahan विश्वासघात
श्रीकान्त बार-बार की नाकामियों से झुंझला जाता था। वह नहीं समझता था कि कोमल कोई आदतन हरजाई या बद्कार औरत नहीं थी, गुनाह का मजा उसके ख्यालात पर अभी इस कदर हावी नहीं हुआ था कि वह अपनी अन्तरात्मा की वह आवाज न सुन पाती जो ऐसे वक्त पर हमेशा उसके विवेक के दरवाजे पर दस्तक देने लगती थी कि पति के साथ बेवफाई करना कोई भला काम नहीं होता था। ऊपर से उसे इस बात का भय भी सताता था कि अगर उसके पति को खबर लग गई तो वह तो जरूर मार मारकर उसका दम ही निकाल देगा। भय और लालसा की उस लड़ाई में आज तक आखिरी जीत भय की ही होती आई थी। वह श्रीकान्त के साथ चोरी छुपे सिनेमा देख आने में, कभी उस प्रकार की हाथापाई कर लेने में, जैसी कि उस वक्त हो रही थी, ही सन्तुष्ट थी। लेकिन श्रीकान्त उतने से सन्तुष्ट नहीं था। वह तो कोमल के पीछे पड़ा ही उसके साथ हमबिस्तर होने की नीयत से था और यह बात उसे बहुत हलकान कर रही थी कि असली मकसद टलता चला जा रहा था।
श्रीकान्त एक सुन्दर युवक था, उसके रख-रखाव में बड़ा सलीका था और औरतों को रिझाने के सारे लटके वह जानता था। यही वजह थी कि अभी वह केवल छब्बीस साल का था, लेकिन दर्जन से ज्यादा औरतों का मानमर्दन कर चुका था। बातें वह ऐसी रसीली करना जानता था कि औरतें उसकी सूरत से ज्यादा उसकी बातों पर मुग्ध होती थीं। कोमल भी पहले उसकी वाकपटुता की वजह से ही उसकी तरफ आकर्षित हुई थी। श्रीकांत अपने मनमोहक अन्दाज में जब कोई दिलचस्प बात कहता था तो कोमल के मन में जो पहला खयाल आता था—बड़े वितृष्णापूर्ण ढंग से जो पहला खयाल आता था—वह यह होता था कि वैसी बढ़िया बातें उसके साथ रंगीला क्यों नहीं कर पाया था? उसे कोई ऐसी बात कहनी क्यों नहीं सूझती थी जिसे सुनकर औरत का दिल मर्द पर बलिहार जाने को करने लगता था।
वैसे डरता रंगीला से श्रीकान्त भी था। रंगीला श्रीकान्त को नहीं जानता था लेकिन श्रीकान्त रंगीला को खूब जानता था। वह जानता था कि अगर कभी रंगीला को पता लग गया कि श्रीकान्त का उसकी बीवी से अफेयर था तो वह श्रीकान्त के हाथ पांव तोड़े बिना नहीं मानने वाला था।
लेकिन कोमल पर वह इस कदर फिदा हो चुका था कि वह खतरा मोल लेने को वह तैयार था।
“अब मुझे जाने दो।”—कोमल हांफती हुई पता नहीं कितनवी बार बोली—“अगर रंगीला को पता लग गया कि मैं कथा में नहीं बैठी हुई थी तो वह मुझे जान से मार डालेगा।”
उसे जाने देने की जगह श्रीकान्त ने और कसकर उसे अपने साथ लिपटा लिया।
“श्रीकान्त!”—कोमल बड़े भावुक स्वर में फुसफुसाई—“तुम मुझे प्यार करते हो न?”
“दिलोजान से।”—श्रीकान्त बोला—“हद से ज्यादा।”
“मैं भी तुमसे बहुत प्यार करती हूं। तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता।”
मन ही मन वह कह रहा था—अगर लेटेगी नहीं तो छोड़ूंगा नहीं तो और क्या करूंगा। कितना तो वक्त पहले ही बरबाद कर चुका हूं।
“लेकिन हमारी यह कहानी पहुंचेगी किस अंजाम तक?”
अभी तीन दिन पहले उसने श्रीकान्त के साथ जगत के बाक्स में बैठकर जो फिल्म देखी थी, उसमें वह डायलॉग था जो कि फिल्म में रेखा ने बोला था। अपनी तरफ से कोमल ने रेखा जैसे ही खूबसूरत अन्दाज से वह बात कहने की कोशिश की थी।
“अगर हम दिल से एक दूसरे को प्यार करते हैं”—श्रीकान्त भी अपने स्वर में धर्मेन्द्र जैसी भावुकता भरता बोला—“तो हमारी कहानी किसी गलत अंजाम तक तो पहुंच नहीं सकती। देख लेना, हमारा साथ हमेशा हमेशा बना रहेगा। लेकिन, कोमल, जब तक मुझे मन वचन कर्म से मेरी नहीं बनकर दिखाओगी तब तक मुझे कैसे विश्वास होगा कि तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो जितना कि मैं तुम से करता हूं?”
“मैं हूं तो सही तुम्हारी।”
“मन से ही, वचन से हो लेकिन कर्म से नहीं हो।”
“मैं हर तरह से तुम्हारी हूं।”
“तो फिर”—श्रीकान्त और कसकर उसे अपने साथ लिपटाता हुआ बोला—“ऐतराज कैसा?”
“लेकिन कोई मौका तो लगे?”
“आज है मौका। कोमल, आज मेरी बन जाओ। आज मेरे शरीर का रोम रोम तुम्हारे सहवास के लिए तड़प रहा है। आज...”
श्रीकान्त ने ऐसी बातों के अपने स्टॉक में से और ऐसी कई चुनिंदा, लच्छेदार बातें कोमल को कहीं।
कोमल उस दिन पूरी तरह से पिघल गई।
श्रीकान्त ने भी फौरन महसूस किया कि उसका शरीर किसी समर्पिता की तरह शिथिल पड़ने लगा था। वह उसे फर्श पर लिटाने ही लगा था कि एकाएक कोमल छिटककर उससे अलग हो गई।
“क्या हुआ?”—श्रीकान्त हड़बड़ाया।
“कोई आ रहा है।”—वह त्रस्त भाव से बोली।
वासना के कुएं में गोते खाता श्रीकान्त तनिक उतराया तो उसे भी गली में पड़ते भारी कदमों की आवाज सुनाई दी।
“होगा कोई।”—वह कोमल से तनिक परे हटता बोला—“गुजर जाएगा।”
दोनों सांस रोके खड़े रहे।
कदमों की आवाज करीब आती जा रही थी।
जो आदमी गली में प्रकट हुआ, वह गुजर जाने की जगह वहीं, बनते मकान के सामने, ठिठक गया।
श्रीकान्त अन्धेरे में था, लेकिन गली में रोशनी थी। उसने देखा, वह उस इलाके का चौकीदार था।
“कौन है?”—चौकीदार तनिक उच्च स्वर में बोला।
कोमल का दम खुश्क हो गया। उसने पीछे को सरक कर सीधी खड़ी कुछ बल्लियों की ओट ले ली।
तभी चौकीदार के हाथ में थमी टॉर्च जली। उसने टॉर्च का प्रकाश भीतर की तरफ डाला और फिर पूछा—“कौन है रे भित्तर?”
अब चौकीदार से छुपा रहना असम्भव था। श्रीकान्त तुरन्त बाहर गली में आ गया।
“क्यों शोर मचा रहे हो, चौधरी?”—वह चौकीदार के पास जाकर बोला।
ऊपर से वह दिलेरी दिखा रहा था लेकिन भीतर से उसका दम निकला जा रहा था।
चौकीदार ने एक सरसरी निगाह उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों पर और फक चेहरे पर डाली, फिर कठोर स्वर में बोला—“कौन हो तुम? और भीतर क्या कर रहे थे?”
“इधर आओ।”—श्रीकान्त बोला—“बताता हूं।”
“हियां ही कह जो कहना है।”
“अरे, आओ तो।”—श्रीकान्त जेब से एक बीस का नोट निकाल कर उसे दिखाता हुआ बोला।
चौकीदार दो-चार कदम उसके साथ चला और ठिठक गया। श्रीकान्त जान बूझकर उसके सामने यूं खड़ा हुआ कि मकान की तरफ चौकीदार की पीठ हो गई।
“क्या माजरा है?”—चौकीदार बोला।
“यह तो पकड़ो।”—श्रीकान्त जबरन उसकी मुट्ठी में नोट ठूंसता हुआ बोला—“माजरा भी बताता हूं।”
तभी पीछे कोमल मकान से बाहर निकली और सिर नीचे किए तीर की तरह गली में आगे उधर बढ़ गई जिधर उसका घर था।
पीछे आहट सुनकर चौकीदार ने घूमकर देखा।
“ओहो!”—वह बोला—“इब समझा मैं माजरा।”
श्रीकान्त खिसियाई सी हंसी हंसा।
“हियां ही रहे है?”
श्रीकान्त ने सहमति में सिर हिलाया।
“कहां?”
“कूचा चेलान में।”
“ऐसी एक पर्ची और निकाल।”
“क्या?”
“सुना नहीं। जल्दी कर ले नहीं तो मैं अभी उस छोरी के पिच्छे भाज के उसे धड़ पकडूं सूं।”
श्रीकान्त ने फौरन उसे बीस का एक और नोट थमा दिया।
“भाज जा इब।”—चौकीदार सन्तुष्ट भाव से बोला—“फिर की मति न करियो ऐसी हरकत। चल फूट।”
चौकीदार गली में आगे बढ़ गया।
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