RE: SexBaba Kahan विश्वासघात
शनिवार : रात
शनिवार शाम को राजन बड़ी मुश्किल से डेजी के साथ ईवनिंग शो में पिक्चर देखने जाने का जुगाड़ कर पाया। उसकी बहुत जिद पर डेजी ने घर पर बहाना बनाया था कि उसने अपनी किसी सहेली की बर्थ-डे पार्टी पर जाना था। अभी परसों ही वह राजन के साथ ईवनिंग शो में ही पिक्चर देखने जाकर न हटी होती तो बर्थ-डे पार्टी वाले बहाने की शायद जरूरत न पड़ती। इतनी जल्दी-जल्दी रात को लेट आने का सिलसिला दो बार बन जाने की वजह से वैसा बहाना उसके लिए जरूरी हो गया था। राजन रिट्ज सिनेमा की बॉक्स की दो टिकटें पहले से लाया हुआ था। वहां ‘प्रेम रोग’ लगी हुई थी। राजन ने सुना था कि वह बड़ी ‘इश्किया’ फिल्म थी, इसलिए वह उसे डेजी के साथ ही देखना चाहता था। बॉक्स में फिल्म देखने का वैसे भी अपना अलग से मजा था। हाथापाई का खूब मौका जो मिल जाता था।
फिल्म अच्छी थी। दोनों का उसमें बहुत दिल लगा।
इण्टरवल में जब हाल की रोशनियां जलीं तो राजन को हाल में दामोदर दिखाई दिया। उसके साथ जामा मस्जिद के इलाके के कोई आधी दर्जन लड़के और थे जिनमें मदन भी था।
राजन का दिल किसी अज्ञात आशंका से डरने लगा। अगर वे लोग उसे शो शुरू होने से पहले सिनेमा के आसपास कहीं दिखाई दे गए होते तो वह डेजी के साथ हरगिज वहां कदम न रखता। अब पता नहीं हाल में से बॉक्स में बैठे लोगों की सूरतें दिखाई देती थीं या नहीं। देख तो साला उधर ही रहा था लेकिन उसके थोबड़े पर ऐसे कोई भाव तो नहीं थे जिससे लगता हो कि बॉक्स में उसने कोई परिचित सूरत देखी थी। जरूर हाल में से बॉक्स में बैठे लोगों की सूरतें पहचानी नहीं जा सकती होंगी।
तभी हाल की बत्तियां बुझ गयीं।
बाकी की फिल्म राजन ने पहले जैसे आनन्द के साथ न देखी। न ही अन्धेरे का फायदा उठाकर उसका हाथ डेजी के जिस्म पर कहीं रेंगा। डेजी ने उसकी उदासीनता की वजह भी पूछी लेकिन राजन ने किसी तरह उसे टाल दिया।
फिल्म अपने क्लाइमैक्स पर पहुंची तो एकाएक राजन डेजी के कान में बोला—“आओ, चलें।”
“अरे!”—वह हैरानी से बोली—“फिल्म खतम तो होने दो!”
“अब कुछ नहीं रखा फिल्म में। इसे खतम ही समझो। आओ, निकल ही चलते हैं।”
“खामखाह! दो मिनट और रुकने से क्या हो जाएगा? इतनी देर से नहीं बैठे हुए?”
“बाहर भीड़ हो जाएगी। सवारी नहीं मिलेगी।”
“मिल जाएगी।”
“लेकिन...”
“चुप करो।”
राजन कसमसाकर चुप हो गया।
डेजी को समझाना मुहाल था कि वह दामोदर और उसके साथियों के डर से वहां से उन लोगों से पहले निकल जाना चाहता था। दामोदर अभी परसों उससे मार खाकर और बेइज्जती करवाकर हटा था। उस वक्त वह अपने कई साथियों के साथ था। उस वक्त वह उसे वहां देखकर शेर हो सकता था और उससे अपनी बेइज्जती का बदला लेने की कोशिश कर सकता था।
फिल्म खत्म हुई।
“चलो।”—राजन उतावले स्वर में बोला।
“अभी ठहरो।”—डेजी स्क्रीन पर से निगाह हटाए बिना बोली।
“अब क्या है?”—वह झल्लाया—“फिल्म खत्म हो तो गई है!”
“जरा क्रेडिट्स पढ़ने दो।”
स्क्रीन पर फिल्म खतम हो जाने के बाद फिल्म की कास्ट और कैरेक्टर्स के नाम आ रहे थे।
“अरे, छोड़ो भी।”
“हद है तुम्हारी भी। पता नहीं एकाएक तुम्हें इतनी जल्दी क्यों पड़ गयी है?”
“अरे, दस बज गए हैं। फिर तुम्हीं कहोगी कि देर हो गई।”
दस बज गए सुनकर डेजी सकपकाई। उसने भी अपनी कलाई पर बंधी नन्ही-सी घड़ी पर निगाह डाली और फिर तत्काल उठकर खड़ी हो गई।
“जीसस!”—उसके मुंह से निकला—“दस बज गए।”
“और नहीं तो क्या?”—राजन उसके साथ बॉक्स से बाहर निकलता हुआ बोला—“इसीलिए तो कह रहा था, जल्दी चलो, जल्दी चलो।”
डेजी के साथ वह एक बगल के दरवाजे से बाहर निकला और पीछे पार्किंग की तरफ बढ़ा।
“इधर कहां जा रहे हो?”—डेजी बोली—“सड़क तो सामने है!”
राजन ने उत्तर न दिया। वह उसकी बांह थामे भीड़ में से रास्ता बनाता पिछवाड़े की तरफ बढ़ता रहा।
पीछे पार्किंग में से होकर सिनेमा की इमारत की एक तरह से परिक्रमा काट कर वे उसके दूसरे पहलू में पहुंचे। वहां से वह पिछवाड़े की सुनसान सड़क की तरफ बढ़ा।
“अब इधर कहां जा रहे हो?”—डेजी तनिक व्याकुल भाव से बोली।
“चुपचाप चली आओ।”—राजन बोला।
“बात क्या है?”
“कुछ नहीं। इधर से भी रास्ता है।”
“लेकिन इधर से बस कहां से मिलेगी?”
“रिक्शा मिल जाएगा।”
“लेकिन बताओ तो सही, बात क्या है?”
“बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी। कहना मानो। चुपचाप चलती रहो।”
“कमाल है!”
वह खिंचती सी उसके साथ चलती रही।
पिछवाड़े की सड़क उस वक्त बिल्कुल सुनसान पड़ी थी। राजन उस रास्ते से वाकिफ था। उधर से कश्मीरी गेट के बस स्टैंड पर या और आगे जीपीओ के बस स्टैंड पर या पीछे रिंग रोड पर जाया जा सकता था जहां कि थोड़ा ही आगे जमना बाजार के नुक्कड़ पर रिक्शा वालों का अड्डा था।
राजन का इरादा पिछवाड़े से चुपचाप जमना बाजार के नुक्कड़ तक पहुंचने का था।
दामोदर ने अगर उन्हें देख भी लिया था तो वह सिनेमा के सामने या बड़ी हद कश्मीरी गेट के स्टैंड तक ही उन्हें तलाश करने वाला था। राजन को पूरा भरोसा था कि उसे जमना बाजार का खयाल नहीं आने वाला था।
रह रह कर राजन की आंखों के सामने उसके साथियों के चेहरे उभर रहे थे। दामोदर और मदन को मिला कर वे कम से कम आठ जने थे—या शायद नौ थे। इतने लोगों से आमना-सामना होने के खयाल से ही उसका दम निकल रहा था।
ऊपर से उसे डेजी की फिक्र थी।
कहीं वे लोग उसके साथ भी कोई बद्तमीजी करने की कोशिश न करें।
डेजी की बांह पकड़े वह तेज कदमों से सुनसान रास्ते पर आगे बढ़ता रहा।
“राजन!”—डेजी ने कहना चाहा।
“चुप करो।”—राजन घुड़क कर बोला।
“मैं इतनी तेज नहीं चल सकती।”—वह रुआंसे स्वर में बोली—“मैं गिर जाऊंगी।”
राजन ने अपनी रफ्तार तनिक घटा दी और आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला—“बस, थोड़ा ही फासला और चलना है, फिर रिक्शा मिल जाएगा।”
“लेकिन बात क्या है? कुछ पता तो चले!”
“बताऊंगा। बात रिक्शा में बैठ कर बताऊंगा।”
वे इन्जीनियरिंग कालेज के बन्द दरवाजे के सामने पहुंचे। वहां वे बाएं मुड़ने ही लगे थे कि राजन को दाईं ओर स्थित चर्च की तरफ से आती सड़क पर आहट सुनाई दी। उसने घूम कर उधर देखा तो दामोदर का सारा गैंग उसे उस सड़क पर दिखाई दिया।
और उन्होंने उन्हें देख भी लिया था।
शायद वे समझ गए थे कि वे दोनों सिनेमा हाल से निकल कर सामने सड़क पर आने के स्थान पर पिछवाड़े के रास्ते से खिसक गए थे।
“डेजी!”—राजन दांत भींच कर बोला—“भागो!”
“क्यों?”—डेजी आतंकित भाव से बोली।
“उधर चर्च वाली गली में जो लड़के दिखाई दे रहे हैं, वे मेरे पीछे पड़े हुए हैं। इन्हीं की वजह से मैं इधर से आया था। अगर हम भाग कर मेन रोड तक पहुंच जाए तो ये हमें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकेंगे।”
“ये मुझे... मुझे कुछ कहेंगे?”
“कह सकते हैं। मुझे अपनी नहीं, तुम्हारी ही फिक्र है। भागो, डेजी।”
राजन उसकी बांह पकड़ कर सड़क पर दौड़ने लगा।
डेजी उसके साथ लगभग घिसटती चली गई।
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