RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
युवराज निश्चल खड़े रहे। केवल एक बार उन्होंने आश्चर्य एवं क्रोधपूर्ण दृष्टि पर्णिक पर डाली। 'क्या युवराज के राजप्रासाद में आमोद-प्रमोद की वस्तुओं का इतना अभाव हो गया है कि उन्हें इस भूखंड में आकर अपने मनोरंजनार्थ वन्य-पशुओं का वध करना पड़ा? क्या युवराज के हृदय में वह अन्यायपूर्ण कार्य न्यायोचित प्रतीत हुआ है?'
'क्या अब पुष्पपुर के युवराज को एक किरातकुमार से न्याय की दीक्षा लेनी पड़ेगी?' 'न्याय पर किसी का एकाधिकार नहीं युवराज...!' निर्भय उत्तर दिया पर्णिक ने।
युवराज क्रोध एवं क्षोभ से कांप उठे—'तुम्हारी बातें अभद्रोचित हैं किरातकुमार! अच्छा हो कि तुम अपने इस सुकुमार मुख से ऐसे अप्रिय वाक्य न निकालो। युवराज की सहनशीलता का सीमोल्लंघन कर रही है तुम्हारी बातें।'
'हम दरिद्र हैं। हमें भोजन के लिए कन्दमूल भी दुर्लभ है। यदि हम अपनी क्षुधा के शमनार्थ ऐसे निकृष्ट मार्ग का अवलम्बन कर, वन्य-पशुओं का वध करे तो वह क्षम्य हो सकता है मगर आप...? आपको क्षुधा लगने पर मणि-मुक्ताओं की थालियां मिल सकती हैं। निद्रा लगने पर पुष्पशैया प्रस्तुत हो सकती है, प्यास लगने पर सुधारस भी मिल सकता है—यदि आप ऐसा घृणित कार्य केवल अपने हेय मनोरंजन की पूर्ति के लिए करें तो वह क्षम्य नहीं हो सकता कभी नहीं हो सकता युवराज...।'
'युवराज नारिकेल तुम्हारी इन अभद्र एवं धृष्ट बातों का उत्तर कृपाण से देना चाहते हैं सावधान !' युवराज ने कटिप्रदेश से लटकती हुई अपनी कृपाण खींच ली।
'मैं प्रसन्न हूं...युवराज को विदित हो कि पर्णिक की माता ने उसे मरना सिखाया है, जीना नहीं...।'
दोनों विकट प्रतिद्वन्द्रियों के कृपाण झन्न से एक-दूसरे से जा टकराये। नीरव वनस्थली कृपाणों की भयावनी झंकार से झंकृत हो उठी-झन्न! ! ! पास के वृक्षों पर बैठे हुए पक्षिगण पंख फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। वायु के प्रबल वेग से कांपकर एकाएक पत्तियां निश्चल हो गयीं। दानवाकार मेघों के लुट जाने से भुवनभास्कर का देदीप्यमान मुखमंडल चमचमा उठा और वे प्रज्जवलित नेत्रों द्वारा उन दोनों समवयस्क युवकों का वह अद्भुत द्वन्द्व देखने लगे।
स्वर्णिम किरणों के पड़ने से दोनों के स्वेदाच्छन्न मुख अतीव प्रभावशाली दृष्टिगोचर हो रहे थे।
'परिहास नहीं है...पर्णिक पर विजय पाना, परिहास नहीं युवराज।' पर्णिक का कृपाण तीव्र वेग से युवराज पर प्रहार करने को लपका। युवराज ने पैंतरा बदला, जरा-सा झुके और विद्युत जैसी चपलता के साथ उन्होंने पर्णिक का बार विफल कर दिया।
"अब तुम बचना किरात युवक !' युवराज ने अपने कृपाण का भरपूर दांव पर्णिक पर चलाया, मगर आश्चर्य कि वह वीर किरात पुत्र उस अचूक लक्ष्य से परे जा रहा, केवल उसके मणिबंध पर जरा-सी खरोंच आ गई।
"तुम अद्भुत हो किरातकुमार!' युवराज आश्चर्यचकित हो उठे—'नहीं तो तुम्हारे मणिबंध पर लगा हुआ वह तनिक-सा घाव तुम्हारे वक्ष पर होता!' विकराल रूप धारण किये हुए युवराज ने पणिक के वार का प्रत्युत्तर दिया—मुझे आश्चर्य है—घोर आश्चर्य है कि इस बन्य-प्रदेश में रहते हुए, कितना अच्छा शस्त्र संचालन तुमने किस प्रकार सीखा!'
'यह मेरी माताजी की कृपा है, युवराज ! उन्होंने ही मुझे शस्त्र संचालन की शिक्षा दी है...।' 'धन्य है तुम्हारी माताजी...!' 'केवल मेरी ही माता नहीं, अवनी की माता, संसार के प्रत्येक प्राणी की माता होने योग्य हैं वे...आप अप्रतिम होते जा रहे हैं युवराज...! युद्ध में शिथिलता प्राणघातक हो सकती है।'
पर्णिक को आश्चर्य हुआ यह देखकर कि युवराज की शस्त्र-संचालन गति धीमी पड़ती जा रही है और बहुत सम्भव था कि पर्णिक का कृपाण उन पर संघातिक आक्रमण कर बैठता...कि सहसा पर्णिक की दृष्टि युवराज के मस्तक के घाव पर जा पड़ी।
इस समय भी उस घाव से रक्तस्राव हो रहा था। युवराज की शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी। क्रमश: उन पर अचैतन्यता के लक्षण स्पष्ट दीख पड़ने लगे और कुछ ही क्षणों के पश्चात् वे अर्धमूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। पर्णिक ने दौड़कर उन्हें उठाया— 'युवराज...!' और अब पर्णिक ने युवराज के मस्तक का वह भयंकर घाव देखा।
युवराज के नेत्र धीरे से खुले। मुंह से क्षीण स्वर निकला-'मेरी चिंता न करो, पर्णिक...तुम्हारी माता प्रतीक्षा कर रही होंगी। अब मैं ठीक हूं।'
'मुझे आशा है कि श्रीयुवराज मुझे अवश्य क्षमा कर देंगे।' पर्णिक ने कहा।
युवराज ने स्वीकृति में केवल अपना मस्तक हिला दिया। 'पर्णिक ! मुझे सहारा देकर घोड़े पर बैठा दो...और तब तुम जा सकते हो...।' युवराज बोले।
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