RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
पर्णिक ने सहारा देकर युवराज को उठाया। बोला—'मस्तक का घाव भयानक है युवराज। कहिए तो इसको धोकर बूटी बांध दूं...?'
युवराज ने क्षण-भर सोचा, पुन: स्वीकारात्मक रूप से सिर हिला दिया। पर्णिक पास के झरने से पानी ले आया, युवराज को अपनी गोद में लिटाकर उनके मस्तक का घाव धोया, उस पर कोई जंगली बूटी पीसकर लेप कर देने के पश्चात्, युवराज के मुकुटबंध से कपड़ा फाड़कर सर पर पट्टी बांध दी।
'धन्यवाद!' युवराज ने कहा और पर्णिक के कंधे का सहारा लेकर उठ खड़े हुए। पर्णिक ने उन्हें बलपूर्वक घोड़े पर बिठा दिया, तत्पश्चात् आगे बढ़कर मृत वाराह को उठा लिया और युवराज को अभिवादन कर जाने लगा। 'किरातकुमार...!' युवराज ने पुकारा।
और चार पग आगे बढ़े हुए पर्णिक को पुन: लौटना पड़ा। पूछा-'क्या श्रीयुवराज ने मुझे पुकारा है?' 'हां, मैं चाहता हूं कि हमारी इस प्रतिद्वंद्विता का आज ही अंत हो जाए, कम-से-कम तब तक जब तक कि हम लोगों के बलाबल का पूर्ण निर्णय न हो जाये, हम लोग प्रतिद्वन्द्वी ही रहेंगे। यदि महामाया की कृपा रही तो जल्द ही हम दोनों कहीं-न-कहीं पुन: मिलेंगे...।'
'अवश्य मिलेंगे श्रीयुवराज...! मेरे हृदय में इस प्रतिद्वन्द्विता की अग्नि सदैव प्रज्जवलित रहेगी और मुझे विश्वास है कि बहुत जल्द हम पुन: मिलेंगे और तब हमारे बलाबल का निर्णय हो जायेगा...।' पर्णिक ने कहा।
युवराज बोले-'जैसी महामाया की इच्छा। अब तुम जा सकते हो....।' पर्णिक बढ़ चला, आगे की ओर। युवराज उसकी ओर तब तक देखते रहे, जब तक कि उसकी छाया सघन वृक्षाबलि के श्यामल आंचल में जाकर विलीन न हो गई।
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पर्णिक ने अपनी पीठ का वाराह भूमि पर रखकर माता की ओर दृष्टिपात किया, जो इस समय झोंपड़े के द्वार पर बैठी हुई उसी की प्रतीक्षा कर रही थीं।
सामान्य किरात-स्त्रियों के समान उनकी मुखाकृति पर मूढ़ता एवं दीनता नहीं थी। साधारण वस्त्र धारण किये रहने पर भी उनके मुखमंडल पर अपूर्व तेज की रेखा विद्यमान थी। 'इतनी देर से प्रतीक्षा कर रही हूं, कहां थे वत्स...?' पूछा पर्णिक की माता ने। 'क्या कहूं माताजी, यहां से कई योजन दूर चला गया था। एक प्रतिद्वंद्वी से भेंट हो गई...।' पर्णिक ने श्रम की श्वास खींची।
'क्या पराजित होकर आ रहे हो...? अपनी माता के श्वेतांचल पर कलंक-कालिमा लगा आये हो....?'
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'नहीं माताजी! आपका पुत्र क्या कभी पराजित हुआ है? फिर आज ही कैसे पराजित हो जाता...? मगर आपका मुख अप्रतिभ क्यों है, माताजी...?'
उसकी माता कुछ न बोली। एक बार उसने सामने की ओर दृष्टि डाली। किरातों के सहस्रों झोंपड़े एक पंक्ति में लग बने हुए थे। कितने ही किरात बालक इधर-उधर अमोद-प्रमोद में तल्लीन थे।
उसकी माता ने एक दीर्घ श्वास ली—उस श्वास में निहित था हार्दिक वेदना पर प्रखर प्रतिरूप।
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