RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
संध्या का आगमन जैसे उलझनयुक्त एक गूढ़ समस्या है। दिन का देदीप्यमान प्रकाश थक-थककर अपनी सहज वेदना का भार वहन करता हुआ रात्रि की भयानक कालिमा के अंचल में अपना गोरा-सा मुख छिपा लेता है। दिवस की श्वेत परी रक्तरंजित प्रदेश का आलिंगन करती हुई अनंत की ओर बढ़ जाती है।
पुष्पपुर नगरी का पद-प्रक्षालन कर बहती हुई कालिंदी सरिता का निर्मल वक्षस्थल एवं श्वेत सुकामल झागा से युक्त सुमधुर कलकल निनाद, थमने-थमने-सा हो जाता।
उसकी हाहाकारमयी वेगवती तीन धारायें अबाध गति से अग्रसर होना छोड़कर स्थिर हो जाती हैं—एकदम निश्बल !
तट पर बैठी हई बकुल-राशि उड़कर ऊपर वृक्ष की मोटी शाखाओं पर जा बैठती है। संध्याकाल की उदासीन मलीनता घनघोर अंधकार में डूबने-डूबने-सी लगती है।
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रात्रि का भयानक मुख हाहाकार करता हुआ यावत जगत को अपना ग्रास बना लेता है। पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने निर्मित महामाया के सुविशाल राजमंदिर से घंटे का 'टन टन' स्वर सुनाई पड़ने लगता है,परन्तु निमिष मात्र में ही क्षितिज के पास से शीतलता की वर्षा करता हआ एक प्रकाशमान रजतगोला, धीरे-धीरे आकाशमंडल को प्रदीप्त करता हुआ अपनी सुधामयी ज्योत्स्ना पुष्पपुर नगरी पर बिखेर देता है।
निर्मल चन्द्र ज्योत्स्ना में वैभवशाली पुष्पपुर चमक उठा है—चमाचम!
पुष्पपुर राजप्रासाद के अंतप्रकोष्ठ में बैठे हुए जम्बू द्वीप के अधीश्वर द्रविड़राज युगपाणि किसी प्रगाढ़ चिंता में तल्लीन हैं।
उनके तेजमान प्रतिभा-सम्पन्न नेत्रों के समक्ष, किसी बीभत्स घटना के अतीत चित्र अंकित हो रहे थे और परम तेजस्वी द्रविड़राज उन्हीं कष्टदायक विचारों में निमगन होकर दीर्घ श्वास लेकर रहे हैं
चालीस वर्ष पार कर चुकने पर भी उनके अवयव अपूर्व बलशाली एवं मुखश्नी दमकती हुई दृष्टिगोचर हो रही थी, परन्तु अपने इस लम्बे जीवन में उन्होंने क्या-क्या दुख, क्या-क्या कष्ट एवं क्या-क्या अबहेलनाएं नहीं सहन की थी?
दैवी चक्र आरंभ से ही उनके प्रतिकूल चलता आ रहा था, परन्तु उन्होंने अतुलित धैर्य के साथ सब कुछ सहन किया था। शत्रुओं पर विजय पाई थी, प्रजा की रक्षा की थी, अतीव उत्साह के साथ।
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न्याय!
द्रविड़राज युगपाणि का न्याय अटल था। उनके मुख से निकले हुए हर वाक्य न्याय के प्रतीक होते थे। उनके किसी कार्य ने, उनके किसी वाक्य ने, उनके किसी आचरण ने न्याय का उल्लंघन नहीं किया था।
द्रविड़राज युगपाणि चिंताग्रस्त होकर बैठे रहे। प्रकोष्ठ के प्रांगण से उदय होते हुए चन्द्र की एक रजत रेखा आकर नृत्य कर रही थीं।
सुचित्रित काले पत्थरों पर चारुचन्द्रिका का वह कल्लोल ऐसा मनोहर था मानो स्वर्ग की दिव्य ज्योति आकर वहां पर अठखेलियां कर रही हो।
प्रकोष्ठ के बहिप्रांत में हाथीदांत के निर्मित चरणपादुका का खट-खट शब्द सुनाई पड़ा। दूसरे ही क्षण द्वारपाल ने आकर निवेदन किया श्री महापुजारी जी पधारे हैं।'
द्रविड़राज के मस्तक पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। ऐसे समय में महापुजारी जी ने आने का क्यों कष्ट किया...? उन्होंने सोचा, दूसरे ही क्षण संकेत से स्वीकृति दे दी।
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