RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
पुष्पपुर राजप्रासाद के ठीक सामने महामाया का राजमंदिर है। महापुजारी पौत्तालिक महामायों के अनन्य उपासक, धर्माचार्य एवं राजगुरु है। राज्य के सभी पदाधिकारी उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। द्रविड़राज युगपाणि में भी इतना साहस नहीं कि महापुजारी की आज्ञा की अवहेलना कर सके . दीर्घाकार आकृति, गौर वर्ण, सुविशाल मस्तक पर चंदन का तिलक लगाये हुए, महापुजारी पौत्तालिक के मुखश्री से एक अपूर्व तेज प्रतिभासित होता रहता है।
गले में बड़ी-बड़ी रुद्राक्ष मालाएं, शरीर पर स्वर्ण खंचित पीताम्बर एवं पैरों में हाथी दांत की पादुका-वास्तव में वे पुजारी थे। उनके मुख से अविच्छिन्न प्रतिभा प्रस्फुटित होती थी, मानो महामाया की समग्री तेजराशि उनके नेत्रद्वय द्वारा यावत् जगत का निरीक्षण कर रही हो।
द्रविड़राज ने महापुजारी के चरण छुए। महापुजारी ने 'आयुष्मान भव' कहकर उनकी मंगल कामना की, तत्पश्चात् वे द्रविड़राज की शैया पर आकर बैठ गये।
द्रविड़राज भी पैताने बैठकर राजगुरु की प्रतीक्षा करने लगे।
'श्री सम्राट का मुखमंडल श्रमित, क्लांत एवं प्रतिभाहीन क्यों दृष्टिगोचर हो रहा है...?' महापुजारी ने पूछा-'क्या किसी प्रगाढ़ चिंता ने भी सम्राट के हृदयालोक पर अपनी कालिमा बिखेर दी है या राज्य-संचालन में कोई दुरूह बाधा उपस्थित होने के कारण, इतने व्यंग्न हो रहे है
"कुछ नहीं है...' द्रविड़राज ने किंचित स्मित करने का व्यर्थ प्रयत्न किया—यह सब कुछ नहीं है, महापुजारी जी! मेरे हृदय में कोई चिंता, कोई व्यग्रता, कोई कष्ट नहीं है और न राज्य पर ही कोई विपत्ति आई है, सब कार्य पूर्ववत् सुचारु रूप से संचालित हो रहे हैं। प्रात:कालीन सूर्य की स्वर्णिम आभा हिमराज के हिमाच्छादित उच्च शिखरों पर कल्लोल करती हुई पुष्पपर-निवासियों के हृदय-प्रदेश में एक अनिर्वचनीय आनन्दोल्लास की सृष्टि कर देती है। सन्ध्याकाल में हिमराज के आंचल का आलिंगन करके आता हआ सुखद समीर, शरीर का सम्पर्क कर दिवस का सारा परिश्रम अपने साथ उड़ा ले जाता है। रात्रि में पक्षिगण अपने नीड़ों में विश्राम करते हैं। यावत जगत सुखद निद्राभात होकर स्वप्न-संसार में विचरण करता है। सब कुछ यथावत हो रहा है, महापुजारी जी!
कहते-कहते सम्राट ने महापुजारी के प्रतिभायुक्त मुख पर अपनी दृष्टि डाली। महापुजारी जी की आकृति गंभीरता धारण किए हुए थी।
"किंतु सभी कार्य जब यथावत चले रहे हैं तो आप ऐसे प्रश्न क्यों कर रहे हैं, महापुजारी जी। क्या आपके दिव्य चक्षुओं को किसी प्रलयंकारी अनिष्ट का आभास मिला है...?' सम्राट ने पूछा। 'जाने दीजिए इन सब कष्टदायक बातों को। समय पड़ने पर उचित प्रबंध किया जा सकता है...आप अस्वस्थ हैं। सन्ध्योपासना में भी आप सम्मिलित न हो सके...।'
'सन्ध्या-पूजन हो गया क्या...?' अभी तक सम्राट को यह भी पता न था कि इस समय एक प्रहर रात्रि व्यतीत हो चुकी है।
'संध्यायोपासना तो बहुत पहले ही समाप्त हो चुकी है, श्रीसम्राट...! परन्तु दुख है कि न तो आपने ही पर्दापण करने का कष्ट किया और न ही श्रीयुवराज ने ही, भला यह बेला शयनकक्ष में रहने की है? अवश्य आपके अन्त:स्थल में कोई गुह्य व्यथा है श्रीसम्राट...!'
उसी समय द्वारपाल ने पुनः प्रवेश कर सम्राट एवं महापूजारी को अभिवादन किया —'प्रात:काल से श्रीयुवराज आखेट को गये है,और अभी तक नहीं लौटे...।' उसने विनम्न स्वर में कहा।
'अभी नहीं लौटा...?' द्रविड़राज ने अस्त-व्यस्त स्वर में पूछा।
'अभी तक नहीं...?' महापुजारी का शरीर अनिष्ट की आशंका से कम्पायमान हो उठा।
थोड़ी देर बाद महापुजारी हंस पड़े—'आप निश्चिंत रहें। महामाया की माया से भी युवराज पर कोई अनिष्ट आ पड़ने की आशंका नहीं है।'
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'हृदय नहीं मानता, महापुजारी...!' द्रविड़राज युगपाणि ने दीर्घ श्वास छोड़कर कहा-'सब कुछ खो चुका है, अब यदि उसे भी खो बैठेंगा तो कैसे धैर्य रख सकूँगा? इस पृथ्वी पर अब अकेला ही तो हूं—युवराज ही मेरे नेत्रों की ज्योति है।'
'इस प्रकार व्यथित होना एक सम्राट के लिए अशुभ-सूचक है, ऐसे विशाल हृदय में एक तुच्छ भावना को स्थान देना हेय है, घृणित है...कौन कह सकता है कि द्रविड़राज युगपाणि इस नश्वर जगत में एकाकी है? जम्बूद्वीप के अधीश्वर को ऐसी अशुभ बात मुख से बहिगर्त नहीं करनी चाहिए। जम्बूद्वीप की सारी प्रजा आपकी संतान हैं, द्वीप का सारा ऐश्वर्य आपकी सम्पत्ति है और द्वीप की सारी प्रकृति-प्रदत्त सुषमा आप पर निछावर होने को प्रस्तुत है, श्रीसम्राट...! फिर क्यों आप इस प्रकार अधीर हो रहे है?'
'महापुजारी जी...।'
'आज्ञा श्रीसम्राट देव।'
'मुझे बचाइये...मेरी रक्षा कीजिये, महापुजारी जी...।' द्रविड़राज व्यथित स्वर में बोला—'मैं पथ विमुख हो रहा हूं, मुझे शक्ति प्रदान कीजिये...।'
'कौन-सी ऐसी दुर्भेद्य शक्ति है जो आपको पथविमुख कर रही है, श्रीसम्राट का हृदय सदैव निर्धारित मार्ग पर अग्रसर होगा...।'
पर्व स्मति की चिंगारी भीषण दावानल बनकर मेरा रक्त शोषण कर रही है। आज कई दिनों से राजमहिषी त्रिधारा की स्मृति मेरे अंतर्पट पर उभर कर मुझे व्यथित कर रही है, महापुजारी जी! मैं नहीं जानता था कि आज से पच्चीस वर्ष पूर्व किए हुए कार्यों के लिए अब पश्चाताप करना होगा....।
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