RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'लीजिये...! चक्रवाल तो स्वयं इधर ही आ रहा है...।' महापुजारी ने कहा। उसी समय बीस वर्षीय युवक चारण वहां आ उपस्थित हुआ। चक्रवाल ने झुककर महापुजारी के चरण छुए एवं द्रविड़राज को अभिवादन किया। 'क्या श्रीसम्राट अस्वस्थ हैं...?' उसने विनम्रता से पूछा।
'तुम अपनी कला द्वारा श्रीसम्राट को स्वस्थता प्रदान करो...।' कहते हुए महापुजारी प्रकोष्ठ से बाहर चले गए।
चक्रवाल ने आगे बढ़कर प्रकोठ में रखी हुई वीणा उठा ली। वीणा के तार झंकार उठे-झन्न! झन्न!! चक्रवाल की अभ्यस्त अंगुलियां वीणा के तारों पर अविराम गति से दौड़ चलीं। मधुर झनकार ने हततन्त्री के तारों को झंकृत करना प्रारंभ कर दिया। प्रकृति कांपने-सी लगी। धवल चन्द्र खिलखिला उठा। दिशायें हंस पड़ीं।
'अब रहने दो, चक्रवाल! हृदय सम्राट के प्रखर आघात को यह वीणा की झंकार और द्विगुणित कर रही है...।'
'क्या श्रीसम्राट को कोई मानसिक व्यथा कष्ट दे रही है?' चक्रवाल ने वीणा रखते हुए पूछा।
'तुम युवक हो...तुम क्या जान सकोगे उस व्यथा की बात...?' सम्राट के मुख पर करुण मुस्कान नत्य करने लगी।
'मैं सुनना चाहता हूं, श्रीसम्राट...! आपकी व्यथा की कहानी अवश्य सुनूंगा...।'
"सुनोगे...? जिस करुण गाथा को आज पच्चीस वर्ष से अपने अंतरा में छिपाये मैं जल रहा है, उसे सुनोगे तुम?' द्रविड़राज बोले-'न सुनो चक्रवाल! शायद तुम भी व्यथाग्रस्त हो जाओ...बह एक दु:खद कहानी है, इसलिए तो अभी तक युवराज को भी नहीं बतलाया है मैंने। सम्भवत: सुनकर मुझसे भी अधिक व्यथित हो जायेगा वह...। खैर! तुम सुन लो मगर युवराज को मत सुनाना—यह उसकी माता की कहानी है—यह मेरे न्याय की कहानी है...।'
चक्रवाल कुछ आगे खिसक आया।
द्रविड़राज कहने लगे—'आज से पच्चीस वर्ष पूर्व...।'
जी हां, आज से पच्चीस वर्ष पूर्व, सम्राट युगपाणि बाईस वर्ष के नवयुवक योद्धा एवं प्रतिभासम्पन्न शासक थे।
उस समय द्रविड़राज का संसार हरीतिमा-सा मनोहर एवं मुकुलपुष्प-सा सौंदर्यपूर्ण था। वे अपनी धर्मपत्नी राजमहिषी त्रिधारा का अपूर्व प्रेम प्राप्त करते हुए सुखमय दाम्पत्य जीवन का उपभोग कर रहे थे, परन्तु बहुत दिन व्यतीत हो जाने पर भी अभी तक उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी।
यही एक कारण ऐसा था जिससे राजदम्पती के मधुर मुस्कान युक्त मुख पर कभी-कभी वेदना की प्रखर कालिमा छा जाती थी।
यों तो सम्राट द्रविड़राज भी इस बात के लिए कम चिंतित नहीं थे, परन्तु राजमहिषी त्रिधारा की चिंता असीम थी। वे रात-दिन इसी चिंता से व्याकुल रहतीं। यद्यपि द्रविड़राज राजमहिषी के दुख का, चिंता का कारण पूर्णतया समझते थे, मगर सब व्यर्थ। पुष्पपुर की सारी प्रजा राजदम्पती के इस कष्ट से दुखी थी। पुष्पपुर का अतुलित वैभव एवं श्रीसम्पन्न वातावरण सूना-सा प्रतीत होता था
—बिना एक युवराज के। कई मास व्यतीत हो गए।
घनघोर गर्जन के साथ बरसते हुए काले-काले बादल जब शिशिर की मधुमयी ओस में परिवर्तित हो गये
अब हिमाच्छिदित हिमराज के उच्चतम शिखरों ने नीलाकाश का चुम्बन करते हुए दुग्धवत श्वेत रंग धारण कर लिया।
जब पुष्पपूर नगरी पर शिशिर ने अपने कलापूर्ण कर्णों द्वारा अगाध सुषमा बिखेर दी
तब एक रात्रि को द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के साथ सुसज्जित शयन-कक्ष में विश्राम कर रहे थे, उन्होंने राजमहिषी के मुख पर आज प्रसन्नता की प्रोज्वल रेखायें देखी तो उन्हें आश्चर्य हुआ।
"तुम अतीव प्रसन्न दिखाई दे रही हो, राजमहिषी...। तुम्हारे क्लांत मुख पर इस समय चन्द्रदेव की मधुरिमा नृत्य कर रही है इसका कारण...? इसका कारण बता सकती हो, राजमहिषी?' पूछा उन्होंने।
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