RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'कारण आप अभी तक नहीं जान सके, नाथ...!' राजमहिषी ने द्रविड़राज के विशाल वक्ष पर अपना मस्तक टेक दिया—' प्रसन्नता क्यों न हो...? नीरस हृदय प्रदेश में अनिर्वचनीय आनंद क्यों न नृत्य करे...? जबकि अपनी सुषमा बिखरने के लिए विधाता ने एक मानव का सृजन किया है। अंधकारमयी रात्रि का गर्व-खर्व करने के लिए एक परमोज्वल शिशु इस अवनीतल पर अवतरित होने वाला है। राज दंपत्ति की शून्य गोद भरने के लिए महामाया की माया अपना चमत्कार दिखाने वाली है...।'
'सत्य कहती हो राजमहिषी...!' आश्चर्यपूर्ण हर्षोल्लास से सम्राट उछल पड़े—'क्या तुम सत्य कहती हो, प्रिये? क्या वास्तव में हमारे नष्टप्राय एवं अंधकारपूर्ण संसार को अपनी प्रतिभा से प्रोज्वल करने के लिए कोई दैवी शक्ति आ रही है, क्या सत्य ही हमारी सूनी गोद, कुछ ही दिनों में किसी सुकुमार शिशु के मधुर क्रन्दन से गुंजरित होने वाली है ? सत्य कहना राजमहिषी।'
"ऐसी शुभ बात भी कोई असत्य कहता है, सम्राट देव...?' राजमहिषी ने लज्जा से अपना उज्ज्वल मुख सम्राट की गोद में छिपा लिया।
इस समय राजदम्पती को संतान के आगमन से जो आह्लाद हुआ वह वर्णनातीत था। वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात् उनकी गोद भरने वाली थी, उनके दुखपूर्ण जीवन की समाप्ति होने वाली थी—तो क्यों न वे हर्ष से चीत्कार कर उठते।।
ज्यों-ज्यों प्रसव के दिन सन्निकट आने लगे, त्यों-त्यों द्रविड़राज की प्रसन्नता में वृद्धि होती गई।
और अंत में एक दिन राज प्रासाद एक नवजात शिशु के क्रन्दन से मुखरित हो उठा।
दिवस एवं रात्रि की श्वेत एवं श्यामल अप्सरायें आकर यावत जगत पर अपनी सुषमा बिखेरती रहीं। समय का चक्र द्रुत गति से घूमता रहा।
पलक मारते दो वर्ष व्यतीत हो गये। तृतीय वर्ष में पदार्पण करते ही युवराज का नामकरण संस्कार हुआ। महापूजारी पौत्तालिक युवराज की मंगलकामना के लिए महामाया से प्रार्थना करते थे और महामाया के चरणों पर चढ़ाया हुआ कुंकुम (रोली) लाकर युवराज के मस्तक पर लगाते,ताकि युवराज पर किसी भाबी विपत्ति की आशंका न रहे। यह नित्य का, प्रतिदिन का कार्य था। प्रात:काल होते ही राजमंदिर का घंटा घोष करने लगता। द्रविड़राज युवराज को गोद में लेकर महामाया के मंदिर में उपस्थित होते। राजकिन्नरी नृत्य करती हुई महामाया की आरती उतारती। महापुजारी पौत्तालिक विधिवत पूजन करते एवं महामाया के चरणों पर स्वर्णपात्र में भरा हुआ कुंकुम अर्पित करते।
पूजन समाप्त हो चुकने पर वहीं कुंकुम बाल युवराज के मस्तक पर लगा दिया जाता। भोले युवराज की देदीप्यमान मुखश्री कुंकुम की लालिमा से और भी प्रोद्भासित हो उठती थी।
इसी तरह मास-पर-मास व्यतीत होते चले गए। एक दिन, जबकि द्रविड़राज युगपाणि राजमहिषी त्रिधारा के शयन प्रकोष्ठ में विश्राम कर रहे थे। तो राजमहिषी से यह सुनकर कि कुछ ही मास पश्चात् उन्हें एक दूसरी संतान की प्राप्ति होने वाली है तो उनके हर्ष का पारावार न रहा।
'कितने सौभाग्य का विषय है प्रिय!' द्रविड़राज कहने लगे—'जहां हम एक संतान के लिए लालायित रहते थे, वहां अब दूसरी संतान हमें प्रसन्नता प्रदान करने आ रही है...।'
'परन्तु इस बार न जाने क्यों मेरा हृदय अत्यंत उद्विग्न रहता है, प्राण...पता नहीं क्या होने वाला
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"किसी प्रकार की दुश्चिन्ता में न पड़ो, साम्राज्ञी...!'द्रविडराज ने अपने कण्ठ में पड़ा हआ बहुमूल्य रत्न हार निकालकर राजमहिषी के गले में पहना दिया—'यह लो! प्राचीनकाल से आता हुआ परम पवित्र कल्याणकारी रत्न तुम्हारी रक्षा करेगा। यह हमारे प्राचीन महापुरुषों द्वारा प्रदत्त रत्नहार है—इसकी अवहेलना,इसका अपमान न करना नहीं तो अनिष्ट की संभावना है...इसका अपमान करने पर राजदण्ड का भागी होना पड़ेगा।'
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