RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
अन्ततोगत्वा महामाया मंदिर के वार्षिक पूजनोत्सव का दिन आ उपस्थित हुआ। महामाया के मंदिर को विविध मणिमुक्ताओं द्वारा सुसज्जित कर दिया गया। हरित पल्लवों से निर्मित वन्दनवार की पंक्तियों ने शोभा द्विगुणित कर दी। विविध साज-सज्जा से मंदिर का कोना कोना मुखरित हो उठा।
पूजनोत्सव के दिन महापुजारी ने उस पवित्र रत्नाहार को द्रविड़राज से मांगा, क्योंकि महामाया की उपासना के पश्चात् उसकी भी विधिवत उपासना होती थी।
महापुजारी पौत्तालिक के आदेशानुसार द्रविड़राज अन्तर्मकोष्ठ में आये और राजमहिषी से बह रत्नहार मांगा।
राजमहिषी के श्वेत मुख मंडल पर प्रखरतर कालिमा फैल गई । उन्होंने रत्नहार देने में अपनी असमर्थता प्रकट की।
द्रविड़राज को किंचित आश्चर्य हुआ—यह क्यों राजमहिषी...? रत्नहार देने में असमर्थता क्यों प्रकट कर रही हो? क्या कारण है...? जानती हो कि वार्षिक पूजनोत्सव के समय उसकी भी उपासना परमावश्यक है—फिर भी ऐसा कहती हो?...लाओ, देर न करो।'
'मुझे ऐसा प्रतीत होता है...नाथ...!' राजमहिषी आसन्न भय से कम्पित स्वर में बोली—'यदि मैं वह कल्याणकारी रत्नहार अपने से विलग करूंगी तो मेरी मृत्यु निश्चित है। बहुत बड़े अनिष्ट की आशंका मेरे हृदय में जागयक हो उठी है। जाने दीजिए प्राण...! प्राण-प्रतिष्ठा के मंत्रों से भी रत्नहार की उपासना हो सकती है, वैसा ही करें...।'
राजमहिषी कालचक्र के प्रभाव से, अब भी द्रविड़राज को सत्य बात न बता सकीं। राजमहिषी के हठ से बाध्य होकर द्रविड़राज महापुजारी के पास आये और राजमहिषी का कथन अक्षरश: सुना दिया।
महापुजारी पौत्तालिक के शुभ्र ललाट पर दुश्चिन्ता की स्पष्ट रेखायें खिंच उठी—'भवितव्य बलवान है...।' वे स्थिर वाणी में बोले—'तभी तो यह अघटनीय हो रहा है। अच्छा ! प्राण-प्रतिष्ठा के मंत्रों द्वारा ही उस पवित्र रत्नाहार की उपासना हो जाएगी, मगर श्रीसम्राट! वह रत्नहार है तो सुरक्षित न...?'
"निस्सन्देह महापुजारी! राजमहिषी असत्य कभी कह नहीं सकतीं। एक पवित्र देवी पर अविश्वास करना अपने हृदय के साथ अपघात करना होगा...दाम्पत्य में अविश्वास का प्रवेश ही तो अनर्थ की सृष्टि करता है। मैं साम्राज्ञी के वचनों पर अविश्वास करने का स्वप्न में भी विचार नहीं कर सकता। इस विषय में निश्चिंत रहें, महापुजारी जी।
पूजनोत्सव के दिन खूब खुशियां मनाई गईं। महामाया का विधिवत् पूजन हुआ। पूजनोत्सव में पुष्पपुर के सभी गणमान्य नागरिक द्रविड़राज एवं बाल युवराज आदि उपस्थित थे।
तीन वर्ष के युवराज नारिकेल उस समय द्रविड़राज की गोद में बैठे हुए आश्चर्यचकित दृष्टि से चतुर्दिक देख रहे थे।
पूजनोत्सव समाप्त हो जाने पर महापुजारी पौत्तालिक ने महामाया के चरणों में रखा कुंकुम का पात्र उठाकर युवराज के शुभ ललाट पर थोड़ा-सा लगा दिया और हर्ष से चिल्ला उठे—'युवराज नारिकेल की जय।'
तत्पश्चात्ग नगर के सम्पन्न नागरिक, युवराज के लिए अनेकानेक प्रकार की वस्तुएं, मणिमुक्ता-लसित थालों में लाकर भेंट करने लगे।
सभी थालें स्वर्ण-निर्मित थीं। किसी में थी बहुमूल्य रत्नराशि, किसी में थी जगत की यावत सम्पदा को भी लज्जित कर देने वाली मणिमुक्तायें। सभी थालें श्वेत एवं बहुमूल्य वस्त्रों से आच्छादित थीं।
नागरिक गण अपने-अपने उपहार स्वत: लेकर युवराज के समक्ष उपस्थित होते थे। महापुजारी उनके करों से थाल लेकर युवराज के निकट ले जाते और उस पर का वस्त्र हटाकर उनमें की अतुल धनराशि युवराज को दिखाते, तत्पश्चात् युवराज के कोमल करों से स्पर्श कराकर वह थाल भूमि पर रख दिया जाता।
अन्तोगत्वा पुष्पपुर का धनाढ्य नागरिक किंशुक, अपने उपहार का थाल लेकर युवराज के समक्ष उपस्थित हुआ।
महापुजारी ने अपने हाथों से यह थाल लेकर युवराज को उसमें का अतुलित वैभव दिखाने के लिए उस पर से बहुमूल्य वस्त्र हटाया।
'झन्न...!' एकाएक महापुजारी के कांपते हुए करों से छूटकर वह थाल झन्नाटे के साथ भूमि पर गिर पड़ा। सभी व्यक्ति आश्चर्य एवं उद्वेग से उठ खड़े हुए, क्योंकि थाल का गिरना महान अपशकुन का द्योतक था।
महापुजारी की मुद्रा आश्चर्यजनक हो गई। वे खड़े-खड़े कांपने लगे—क्रोध एवं आवेगपूर्ण भंगिमा धारण किये हुए।
अंत में उन्होंने स्वत: झुककर वह बिखरी हुई रत्नराशि पुन: थाल में एकत्रित की और वस्त्र ढककर उसके लिए हुए पार्श्व के प्रकोष्ठ में चले गए। साथ ही द्रविड़राज को भी पीछे आने का संकेत करते गये।
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द्रविड़राज आश्चर्यचकित एवं आशंकित भाव से महापुजारी के प्रकोष्ठ में आए। 'देख रहे हैं श्रीसनाट...।' महापुजारी उद्दीप्त स्वर में बोले—'आप देख रहे हैं? अंतत: अनर्थ, प्रलय और अनिष्ट की सृष्टि हो ही गई। तभी तो...तभी तो...।'
महापुजारी क्रोध से हाथ मलने लगे। सम्राट ने झुककर उनका पैर पकड़ लिया—'क्या बात है महापुजारी जी...क्या अनर्थ हुआ? क्या अपराध हुआ?'
'अपराध...?' महापुजारी गरज पड़े—'पूछते हैं क्या अपराध हुआ...? देखिये ! नेत्र खोलकर देखिये कि क्या हुआ, क्या होगा?'
महापुजारी ने बढ़कर उस थाल का वस्त्र हटा दिया। द्रविड़राज ने एक थाल में पड़ी हुई अगम रत्नराशि देखी— एकाएक वे भी भय एवं उद्वेग से चौंक पड़े।
उन्होंने कम्पित करों से थाल से एक रत्नहार उठा लिया। 'ओह ! वही रत्नहार...! हमारे कुल का प्रदीप...!' उनके मुख से अस्त-व्यस्त स्वर निकला।
उन्होंने वह रत्नहार मस्तक से लगाकर उसका सम्मान किया। पुन: सावधानी से उसे थाल में रख दिया।
'देखा आपने...!' महापुजारी ने अपने प्रज्जवलित नेत्र द्रविड़राज के प्रभाहीन मुख पर स्थिर कर दिये, 'कह दीजिए! अब भी कह दीजिये कि रत्नहार सुरक्षित है। अब भी कह दीजिये कि इस रत्नहार का प्रखरतर अपमान नहीं हुआ है—कह दीजिये श्रीसम्राट कि...।'
द्रविड़राज निस्तब्ध एवं निश्चेष्ट खड़े रहे। उनका शरीर कांप रहा था, परन्तु नेत्र निश्चल थे। जीवन में आज प्रथम बार उन्हें राजमहिषी पर अविश्वास करने का अवसर मिला था। द्रविड़राज के शासनकाल में यह पहली घटना थी कि एक धर्मपत्नी ने अपने पति से असत्य भाषण किया था। न्यायप्रिय द्रविड़राज क्रोध से दांत पीस रहे थे। नगर सेठ किंशुक को बुलाया गया। वह कांपता हुआ आया। उसने पूछने पर बताया—'यह रत्नहार मेरी पुत्री ने उद्यान में पाया था। मैं नहीं जानता था कि यह सम्राट केही राजप्रकोष्ठ का है और चुराकर लाया गया है। मैंने निर्णय किया कि यह बहमुल्य रत्नहार सम्राट के कोष में ही शोभावृद्धि पा सकता है। यही विचार कर यह तुच्छ भेंट लाया था, मुझे क्षमा करें श्रीसम्राट...!'
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