RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'आप भूल रहे हैं...भूल रहे हैं आप, श्रीसम्राट...! अपनी दुर्बलता के वशीभूत होकर आप अपनी सारी प्रजा को यह दिखा देना चाहते हैं कि आपका हृदय कितना क्षुद्र एवं दुर्बल है। आप अपनी सारी प्रजा पर यह प्रकट कर देना चाहते हैं कि जिस न्याय का पालन आप प्रजा से चाहते हैं, स्वयं आप उसका पालन करने में असमर्थ हैं। आज आप सब पर यह प्रकट कर देना चाहते हैं कि द्रविड़राज का न्याय 'न्याय नहीं प्रवंचना मात्र रहा है। आज आप सबको यह बता देना चाहते हैं कि द्रविड़ वंश की सारी न्यायप्रियता पर आपने प्रखरतर कालिमा पोत दी है...।'
महापुजारी दो पग आगे बढ़ आये—'क्या अपनी आंखों से आप यह देख सकते हैं, श्रीसम्राट ! प्राणों की बलि देकर न्याय का पालन करने वाले द्रविड़राज, क्या आप एक छोटी-सी दुविधा में पड़कर न्याय की हत्या कर देंगे...? क्या आप...?'
'......' द्रविड़राज स्थिर खड़े रहे। केवल एक बार उन्होंने अपनी अनामिका में पड़ी हुई मुक्ताजड़ित मुद्रिका पर दृष्टि निक्षेप की। 'भूल जाइए श्रीसम्राट.....। मोहमाया को भूल जाइये, यावत् जगत को दिखा दीजिये कि द्रविड़राज का न्याय अटल है, अचल है...हिमराज की भांति!'
'ऐसा ही होगा महापुजारी जी...!' सम्राट ने अपना हृदय संयत कर लिया। अंतराल में उठते हुए भयानक उद्वेग का उनकी न्यायशीलता से शमन कर दिया।
'द्रविड़राज का न्याय अटल है और अटल रहेगा। न्याय के लिए हृदय का बलिदान, पत्नी का बलिदान, सबका बलिदान करने को प्रस्तुत हूं मैं!'
'श्रीसम्राट की जय हो...!' महापुजारी ने आशीर्वाद दिया।
द्रविड़राज गुनगुनाते रहे—'न्याय अटल है और अटल रहेगा...।'
'अटल कैसे रहेगा, श्रीसम्राट!' महामंत्री करबद्ध खड़े होकर द्रविड़राज से बोले—'श्रीसम्राट के न्याय का विरोध करने के लिए इस समय सारी प्रजा प्रस्तुत है। राजमहिषी को दण्ड न दिया जाए,
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यही प्रजा की आकांक्षा है...।'
'प्रजा की यह आकांक्षा प्रलयंकारी है महामंत्री...!' गरजे द्रविड़राज—'इससे द्रविड़राज के शुभ न्याय पर कलंक की कालिमा लगती है। प्रजा की यह आकांक्षा सफलीभूत नहीं हो सकती। राजमहिषी को न्यायदण्ड भोगना ही पड़ेगा।
'अपने हृदय की ओर देखिए, श्रीसम्राट! टुकड़े-टुकड़े तो हो गया है आपका संतप्त हृदय! इन दो दिनों में ही आपकी मुखश्री प्रभावहीन होकर एकदम म्लान पड़ गई है, फिर भी आप राजमहिषी को दण्ड देंगे? अपनी सबसे प्रिय वस्तु का बलिदान करेंगे?'
'केवल प्रियतमा का बलिदान ही नहीं, प्राणों का भी बलिदान कर दूंगा न्याय के लिए, महामंत्री जी! न्याय ही तो शासनकर्ता का भूषण है। जिस न्याय का प्रतिपालन शासनकर्ता अपनी असहाय प्रजा से चाहता है। उसी न्याय पर आरूढ़ होकर स्वयं उसे भी अग्रसर होना चाहिये। यही उसका कर्तव्य है। यह नहीं कि प्रजा के दंड के लिए तो नित्य नये-नये नियम बनें और शासनकर्ता के लिए सदैव यावत् जगत की सम्पदा उसके चतुर्दिक नृत्य करती रहे, यह कहां का न्याय है?' द्रविडराज एक ही सांस में सब कुछ कह गये।
'आपको राजमहिषी की गर्भावस्था पर ध्यान देना चाहिये, श्रीसम्राट।'
'व्यर्थ है...! न्याय के प्रतिपालन में किसी भी अवस्था पर ध्यान देना अन्याय होगा।'
'श्रीसम्राट, मुझे प्राणदान दें...न्याय तो यही है...।'
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