RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
'यह अन्याय है।' द्रविड़राज का सारा शरीर क्रोध से प्रकम्पित हो उठा—'अन्याय है यह? आज आप मुझे न्याय की दीक्षा देने आये हैं? जो अब तक न्याय का पोषक एवं उपासक रहा है, उसे आप न्याय का मार्ग दिखाने का साहस करते हैं, महामंत्री जी...?' क्रोध से इंकार उठे सम्राट ___—'कहां थे न्याय के पृष्ठ-पोपक अब तक, जबकि मैं स्वर्ण सिंहासन पर आसीन होकर न्याय दण्ड हाथों में लेकर, अभागी प्रजा के अपराधों का न्याय किया करता था? कहां थे आप जब कि मैं एक साधारण अपराधी को भी न्याय की रक्षार्थ कठोरतम दण्ड देता था? कहाँ थे आप, जबकि मेरे अटल न्याय के कारण कितने ही अपराधी मृत्यु दण्ड पाते थे, कितने ही देश-निर्वासन सहन करते थे। कहां थे आप जब मैं अपने न्यायासन पर बैठकर प्रजा का न्याय करता था। आपका न्यायपूर्ण हृदय कहां था तब?"
'.........' महामंत्री निस्तब्ध खड़े थे नीचा सिर किये हुए द्रविड़राज के सम्मुख। 'आज जबकि स्वयं राजमहिषी ने एक असत्य बात कहकर गुरुतर अपराध किया है और मैं स्वयं अपनी पत्नी को राजदण्ड देने जा रहा हूं-तो आप आये हैं मुझे न्याय की याद दिलाने, आप आये हैं मुझे अन्याय और न्याय का अंतर बताने। असत्य बोलना कितना बड़ा अपराध है बहे भी अपने ही पति से...। भूल गये महामंत्री! इसी अपराध में कितनों के ही प्राण उनके शरीर से विलग कर दिये हैं—फिर भी आप ऐसा कहते हैं? जाइए महामंत्री जी, न्याय की व्यवस्था की कीजिये। द्रविड़राज ने जिस प्रकार आज तक अपनी प्रजा का न्याय किया है, उसी प्रकार राजमहिषी का भी न्याय करेंगे। न्याय की सीमा में राजा-प्रजा सभी समान हैं। न्याय अटल है और अटल रहना ही चाहिये। आज मैं अपने स्वार्थ हेतु प्रजा के नेत्रों में निकृष्ट बनना नहीं चाहता। प्रजा भी देख ले कि स्वयं द्रविड़राज की प्राण-प्रिय राजमहिषी त्रिधारा भी, द्रविड़राज के अटल न्याय का सीमोल्लंघन करने का साहस नहीं कर सकती। आज सारी प्रजा नेत्र खोलकर देखे कि द्रविड़राज का जो न्यायदण्ड समस्त प्रजा के लिए है, वहीं राजमहिषी के लिए भी है...।'
"परन्तु श्रीसम्राट...!'
'शांत रहिये, महामंत्री...! द्रविड़राज आगे एक शब्द भी सुनने के आकांक्षी नहीं। आप जा सकते हैं।'
महामंत्री चले गए और द्रविड़राज चिंतातिरेक से चेतनाहीन होकर भूमि पर लुढ़क गए।
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आज वह अशुभ दिन था, जब सारी प्रजा की आकांक्षा के विरुद्ध राजमहिषी त्रिधारा को असत्य कहने के महान अपराध में दण्डाज्ञा सुनाई जाने वाली थी।
राजसभा में तिल रखने तक का स्थान नहीं था। महापुजारी उच्च आसन पर आसीन थे। उनके कुछ नीचे द्रविड़राज का सिंहासन था। महामंत्री खड़े हुए अभियोग की व्यवस्था में व्यस्त थे। नगर के सभी छोटे-बड़े नागरिक यथोचित आसीन थे। राजसभा में मृत्यु जैसी निस्तब्धता छाई हुई थी।
सभी के नेत्र द्रविड़राज के शुष्क एवं प्रभावहीन मुखमंडल पर केंद्रित थे। द्रविड़राज शून्य दृष्टि से सामने की ओर देख रहे थे। कभी-कभी उनके नेत्रों के कोरों पर बहुत रोकने पर भी अश्रु कण झलक उठते थे।
दक्षिण की और झिलमिलाती एक श्वेत यविनका पड़ी थी, उसकी ओट में बन्दिनी राजमहिषी त्रिधारा अपनी एक परिचारिका के साथ उपस्थित थी।
'श्रीसम्राट राजमहिषी से यह पूछना चाहते हैं कि राजमहिषी ने वह पवित्र रत्नाहार कहां रखा है?' महामंत्री की संयत वाणी राजसभा में गूंज उठी।
चारों ओर निस्तब्धता व्याप्त थी। केवल यवनिका की ओट से राजमहिषी की परिचारिका ने उत्तर दिया—'राजमहिषी का कहना है कि वह रत्नहार यत्नपूर्वक मणिमंजूषा में सुरक्षित है...।'
पुन: शांति को साम्राज्य छा गया। द्रविड़राज ने एक बार क्रोध से दांत पीसे, राजमहिषी का पुन: असत्य भाषण सुनकर। 'क्या राजमहिषी यह रत्नहार पहचान सकती हैं...?' महामंत्री ने वह पवित्र रत्नाहार लेकर उस श्वेत यवनिका की ओर बढ़ा दिया।
परिचारिका ने अपना हाथ यवनिका से थोड़ा बाहर निकालकर बह रत्नहार ले लिया।
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