RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
बाहर से चरणपादुका का खट-खट शब्द हुआ और दोनों का वार्तालाप रुक गया। 'महापुजारी जी आ रहे हैं...।' चक्रवाल ने कहा।
और तुरंत ही उसकी मधुर रागिनी ने प्रकोष्ठ की दीवारों को गुंजित कर दिया—'हरि हरि बोल प्राण पपीहे हरि हरि बोल।'
सधे हुए पक्षी की भांति किन्नरी निहारिका ने अपनी भंगिमा ठीक कर ली। उसके अवयव कलार्पण रौति से चक्रवाल के गायन का भाव प्रदर्शित करने लगे। चक्रवाल की कला के साथ किन्नरी की कला को सम्मिश्नण होने लगा। महापुजारी के समक्ष यह प्रदर्शित करने के लिए कि वे दोनों वहां गायन और नृत्य का अभ्यास कर रहे हैं, उनका यह कृत्रिम अभिनय अपूर्व था।
चक्रवाल की मधुर स्वर लहरी प्रवाहित हो रही थी—मेरे जीवन की धारा में जाग उठे मंजुल कल्लोल, प्राण-पपीहे हरि हरि बोल।
चक्रवाल का गायन एवं किन्नरी का नर्तन रुक गया। दोनों ने आगे बढ़कर महापुजारी के चरण स्पर्श किये।
महापुजारी ने उनकी मंगल कामना की—'क्या हो रहा था चक्रवाल?' उन्होंने पूछा।
'कुछ नहीं। आज एक नये गायन पर किन्नरी की कला की परीक्षा ले रहा था।'
'अच्छा...! परन्तु आज तुम श्रीयुवराज के समक्ष उपस्थित नहीं हए। अभी थोडी देर पहले वे तुम्हारे विषय में चर्चा कर रहे थे। अच्छा हो कि तुम अपनी वीणा लेकर उनके प्रकोष्ठ में चले जाओ और अपने गायन द्वारा कुछ समय तक उनका मनोरंजन करो...।'
'जो आज्ञा।'
'निहारिका ! अब तुम विश्राम करो।' महापुजारी ने किन्नरी को आज्ञा दी—'श्रीयुवराज अस्वस्थ हो गए हैं, कल प्रात:काल वे राजमंदिर में पधारेंगे। उनका स्वागत करने के लिए तुम्हें अपनी सम्पूर्ण कलाओं की मंजूषा खोल देनी है।'
महापुजारी चक्रवाल को लेकर किन्नरी के प्रकोष्ठ से बाहर चले गए। किन्नरी ने विश्राम की अंगड़ाई ली और स्वर्ण के दर्पण के समक्ष बह आ खड़ी हुई।
यह दर्पण एक दीर्घाकार पट पर न जाने किस वस्तु का आवरण चढ़ाकर निर्मित किया था कि वह आधुनिक दर्पणों से भी अधिक स्वच्छ एवं प्रकाशमान था। किन्नरी ने उस प्रोज्वल दर्पण में अपने मादक सौन्दर्य का अवलोकन किया। कितना आकर्षक एवं कितना उन्मादकारी था उसका देदीप्यमान सौंदर्य।
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रात्रि के अंतिम प्रहर में नीलाकाश पर दो-चार तारिकायें नृत्य कर रही थीं।
रात्रि का प्रगाढ़ अंधकार कलान्त-सा प्रतीत होता था और उसके कालिमापूर्ण पट पर प्रकाश की प्रोज्वलता क्रमश: अपना अधिकार स्थापित करती जा रही थी।
पर्वाकाश शीघ्र ही पदार्पण करने वाली ऊषा के शुभागमन का स्वागत करने को पूर्णतया प्रस्तुत था। सुखद नीड़ों में से पक्षियों का गुंजारित कलरव क्रमश: बढ़ रहा था।
पुष्पपुर राजप्रासाद के पार्श्व में ही स्थित था महामाया का सविशाल राजमंदिर, जहां अपने प्रकोष्ठ में एक छोटी-सी खिड़की के पास बैठा हुआ गायक चक्रवाल आकाश-मण्डल की क्षुद्र तारिकाओं का कल्लोल देख रहा था, साथ ही उसकी स्वरागिनी यावत् प्रकृति की निस्तब्धता को बंधती हुई थिरक रही थी
''रात्रि शेष हो चली अलसा रहे गगन के तारे। दिन से चली अंक भर मिलने, अब विभावरी हाथ पसारे।
यह उनका नित्य का कार्य था। इसमें तनिक भी विश्रृंखलता अथवा तनिक भी अव्यवस्था नहीं आ पाती थी। प्रतिदिन घड़ी भर रात्रि रहे, उसकी निद्रा टूट जाती। निद्रा टूटते ही सर्वप्रथम वह महामाया का स्मरण करता। तत्पश्चात, महापुजारी को मन-ही-मन प्रणाम कर प्रकोष्ठ की छोटी-सी खिड़की पर जा बैठता।
प्रकृति की नि:स्तब्धता एवं प्रात:काल के सुखद समीर का मृदु संदेश पाकर उसके हृदय की गायन कला प्रस्फुटित होने लगती।
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वह अपनी कला में पूर्णतया तन्मय हो जाता। उसका गायन सुनकर महापुजारी जी की निद्रा खुलती। किन्नरी जाग पड़ती एवं मंदिर के पार्श्व में स्थित राजप्रकोष्ठ के सभी व्यक्ति, द्रविड़राज, युवराज आदि उठ बैठते।
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