RE: RajSharma Sex Stories कुमकुम
पुष्पपुर नगरी से कोई बीस योजन दूर, विकट बनस्थली के कोड़ में अवस्थित था एक विशाल ग्राम।
ग्राम के चारों ओर भयानकता एवं उदासीनता नर्तन कर रही थी। दीनता का अक्षय साम्राज्य था। उस ग्राम में अपना जीवनयापन करते थे दीनहीन एवं दुखी किरातगण।
छोटे-छोटे झोंपड़ों में रहते हुए वे ग्रीष्म की कड़कड़ाती धूप एवं अंग स्थिर कर देने वाली शीत ठण्डक का सामना करते थे।
उनके पास जो कुछ था, उसी में वे संतुष्ट थे। उनके बालक उल्लसित होकर इधर-उधर स्वच्छन्द विचरण किया करते थे।
संध्या का आगमन होते ही सब किरातगण एकत्रित होकर नाना प्रकार के आमोद-प्रमोद में तल्लीन हो जाते थे। सबमें एक्य भाव था। सभी अपने नायक की आज्ञा पर अपने प्राणों को उत्सर्ग करने की लिए सदैव, अहर्निश प्रस्तुत रहते थे।
नायक की आज्ञा की अवहेलना करने का कोई भी दुस्साहस नहीं कर सकता था। किरात कुमार पर्णिक भी इसी ग्राम के दुकूल पर, अपनी माता के साथ एक छोटे-से झोंपड़े में रहता था।
पर्णिक अपने उस आमोदमय छोटे-से संसार में पूर्णतया सुखी था, परन्तु उसकी माता के मुख पर कभी किसी ने हास्य की रेखा नहीं देखी थी। न जाने कौन गृह वेदना उसके अंग-प्रत्यंग को शिथिल बनाये रहती थी।
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वह अधिकतर अपनी झोंपड़ी के द्वार-देश पर, नेत्रों में अश्रु-कण छिपाये बैठी रहा करती थी।
अन्य किरात स्त्रियों के पास बैठकर मुर्खता की कुछ बातें कर लेना उसे स्वीकार न था। उसे सदैव एकांत ही प्रिय था।
पर्णिक आज प्रात:काल से ही किरात युवकों के साथ खेलने में तल्लीन था। पर्णिक की अवस्था लगभग बीस वर्ष की थी। उसके साथी भी समवयस्क ही थे। सब पणिक की झोंपड़ी के पास ही खेल रहे थे।
पर्णिक की माता भी द्वार पर बैठी हुई उन युवकों का कल्लोल देख रही थी।
'आओ। आज हम लोग 'सम्राट का न्याय' नामक नाटक का अभिनय करें...।' पर्णिक ने कहा।
'कैसा है यह नाटक...?' एक ने पूछा। पर्णिक उन्हें नाटक की सब बातें बताने लगा।
अंत में ऊंचे शिलाखंड पर आसीन होता हुआ वह बोला—'लो, अब मैं सम्राट बन गया।' उसका नाटक प्रारंभ हो गया था। 'साम्राज्ञी को उपस्थित करो...।' वह गरजकर बोला—'सम्राट का न्याय न्याय है। ध्रुव-सा अटल ! साम्राज्ञी ने स्वयं सम्राट से असत्य भाषण कर महान अपराध किया है, उसका दण्ड उन्हें भोगना ही पड़ेगा। सम्राट का न्याय साम्राज्ञी एवं प्रजा सबके लिए समान है...।"
'क्षमा ! श्रीसनाट...।' मंत्री का अभिनय करने वाले लड़के ने कहा—'साम्राज्ञी गर्भवती हैं...।'
'चुप रहो...!' कल्पित सम्राट गरजे—'मेरी क्रोधाग्नि में भस्म न हो। शीघ्र उपस्थित करो बन्दिनी साम्राज्ञी को ...।'
साम्राज्ञी उपस्थित हो गई। एक बालक ने अपने वस्त्र का एक भाग अपने सिर पर डालकर थोड़ा घूघट निकाल लिया था -बही साम्राज्ञी का अभिनय कर रहा था। पर्णिक की माता आश्चर्य-विस्फारित नेत्रों से अपने पुत्र का वह अद्भुत अभिनय देख रही थी।
"साम्राज्ञी!' सम्राट ने गरजकर पुकारा—'तुमने मुझसे असत्य भाषण कर महान अपराध किया है। तुम्हें अपने अपराध का दण्ड स्वीकार करना हेगा।'
'दासी को राजाज्ञा कभी अस्वीकार न होगी।' साम्राज्ञी ने कहा।।
सम्राट ठुड्डी पर हाथ रखकर न जाने किस विचार में निमग्न हो गये, परंतु कुछ क्षण पश्चात् एकाएक वे उठ खड़े हुये।
मंत्री भयभीत स्वर में चिल्ला उठा—'दया...! क्षमा...।'
सम्राट ने मंत्री की और एक बार क्रुद्ध नेत्रों से देखा, पुन: तीव्र स्वर में बोले—'साम्राज्ञी तुम्हें आजन्म निर्वासन की दण्डाज्ञा सुनाई जाती है।'
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